गुरुवार, 19 नवंबर 2009
हर कोई है असंतुष्ट
क्या अजीब बात है क्यों नही है संतुष्टि,,,,,, यह मैं खाली बात ही नही कर रहा। बहुत अध्ययन किया चिंतन किया मनन किया। तब लिखने का साहस किया है।
और यह किसी एक व्यक्ति की बात नही है बल्कि सारी दुनिया मे मच रही हा हा कार आपाधापी भृष्टाचार और अपराध का आंकङा देखकर सभी बातों पर गहरा विचार किया और खोजने का प्रयत्न किया कि व्यक्ति देश और संसार में इतनी त्राही त्राही क्यों हो रही है।
भगवद्गीता में एक श्लोक है..... किसी विषय का बार बार चिंतन करने से उसकी आसक्ति होती है और आसक्ति से कामना पैदा होती है कामना अर्थात पाने की लालसा। और जब कामना पुर्ण नही होती तो असंतुष्टि होती है। और व्यक्ति कुछ भी कर बैठता है। चाहे वह कितना भी जघन्य अपराध ही क्यों ना हो।
अगर स्वभावत: यह बात किसी से पुछी जाय तो शरमा शरमी हर व्यक्ति कहता है कि मैं तो बिलकुल संतुष्ट हुं।
लेकिन अगर हम अपने ही अंदर खोजे तो सब असंतुष्ट हैं। कोई करोङो में एक आद होगा जो संतुष्ट होगा। जब बच्चा गर्भ से बहार आता है इतना दुख और कष्ट से गुजर कर बहार आता है होना तो उसे खुश चाहिए लेकिन फिर भी रोता है। और रोता कोन है जो किसी चीज की कामना कर रहा हो। किसी चीज की उसके पास कमी हो अर्थात कहीं ना कहीं असंतुष्ट है।
और भगवान ने गीता में हम सबको कहा भी है कि मुझे वह भक्त प्रिय है जो सदा ही संतुष्ट है। वरना भगवान को क्या पङी थी यह बात कहने की अगर किसी को कोई बीमारी हो जाती है हम अच्छे से अच्छे डाक्टर के पास जाते हैं और बीमारी का इलाज करवाते हैं। लेकिन अपनी इस घातक बीमारी को अंदर ही अंदर पनपने देते हैं, बतायें तो क्या कोई स्वीकार तक नही करना चाहता कि मैं संतुष्ट नही हुं। बल्कि इसको ढांपने के लिए तरह तरह की बातें बताकर यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि जिस बीमारी से सब जुझ रहे है मैं उससे मुक्त हुं।
एक छोटी सी कहानी है। एक साधु बाबा कही भ्रमण पर जा रहे थे जाते जाते रात हो गयी आगे बियाबान जंगल और पुराने जमाने में तो शेर चीते आदि खतरनाक जानवर ऐसे ही खुले घुमते रहते थे। रास्ते में एक बुढिया की छोपङी दिखाई दी और रात काटने के लिए वहां पहुंच गये बाबा। उसने साधु बाबा की अपने सामर्थ्य के अनुसार बङी खातिर दारी और सेवा की।
जब रात को खाना खाकर विश्राम करने लगे तो बाबा बोले की तुमने मेरी बहुत सेवा की है और तेरे पास कोई कमाने वाला भी नही है। जो मुझे आटा वगैरह भीक्षा में मिला है उसमें से आप भी कुछ ले लो। बुढी माई ने अपने आटे का बरतन देखा और कहने लगी की महाराज सुबह का काम चल जायेगा और सांय को ऊपर वाला देगा। देखा कितनी संतुष्टि।
बाबा को यह बात सुनकर बङा आश्चर्य हुआ कि हम तो बाबा होकर भी संग्रह करते रहते हैं और और इसके पास कुछ है ही नही फिर भी कितने मजे में है। ना कोई चिंता है ना कोई फिक्र।
यह है सच्ची संतुष्टि। अगर कोई चीज हमारे पास नही है या इसका अभाव है और हम कहे कि मुझे उसकी कोई इच्छा नही है इसे संतुष्टि नही कह सकते।
जैसे कोई शाराब का सेवन करने वाला जेल चला जाता है (ये बात मैं सिर्फ सुनकर नही कह रहा है गहरा चिंतन किया है) और वहां तो शाराब या कोई भी नशा का सामान मिलता ही नही और वो महिना दो महिना शाराब या कोई भी ड्रग्स छोङ दे और कहे मुझे इच्छा नही है मैं संतुष्ट हुं तो कोरी बात है कोई भी विस्वास नही करेगा।
यहां किसी एक की बात नही हो रही है मानव स्वभाव की बात हो रही है मानव मन की बात हो रही है।
यहां एक बात को और साफ करना चाहता हुं कि असंतुष्टि सिर्फ धन दौलत और पैसे की हा नही होती। आदमी असंतुष्ट लोभ, भय, क्रोध, वासना किसी से भी हो सकता है। जरा देख लो इस लोभ के कारण ही उचित या अनुचित तरिके धनादि का संग्रह करते हैं। और मान लो किसी को आप या कोई भी समझाये तो कहेंगे कि अगर हम लोभ की इच्छा नही करेंगे तो अपने क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो या नोकरी या शिक्षा कैसे आगे बढेंगे कैसे तरक्की करेंगे।
लेकिन समाज सुधारकों ने बुद्धिजीवियों ने इसका खंडन किया है लोभ से तो हम अपने अंदर बैचेनी, व्याकुलता और स्वार्थ को बढा रहे हैं। जो भी हमारी कामनाए हैं उसमें लोभ की कामना ना करें उसके प्रति बस प्रयास करें की लाभ कैसे हो और वो भी किसी कि सुख शांति भंग ना करके।
दुसरा सबसे बङा कारण असंतुष्टि का,,,,, हमारे अंदर की वासना है।
एक ऐसा भाव जो सभी के अंदर है जिससे कोई भी बचा हुआ नही है। चाहे लाख छिपाने की कोशिश करे लेकिन छिपा नही पाते। कोई कहां तक बताये कि कितनी असंतुष्टि है। हां ये हो सकता है कि कोई थोङा ज्यादा तो कोई थोङा कम असंतुष्ट हो।
अर्जुन भगवान से पुछते हैं हे प्रभु यह मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। भगवान कहते हैं कि यह काम ही पाप है, हिंसा है, अपराध है काम यानि कि कामनाएं।
और यह बहुत खाने वाला भोगों से कभी ना अघाने वाला है। संसार में अपराध, हिंसा, नशा और सैक्स में वृद्धि का कारण ये असंतुष्टि ही है।
एक और छोटी सी कहानी है एक आदमी बेचारा नोकरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहा था। एक दिन उसकी बीबी ने कहा कि घर में एक टीवी आ जाये तो कितना अच्छा होगा। उस भले आदमी के अंदर अब इसका ही चिंतन चलता रहता कि भगवान बस टीवी आ जाये। और कामना पुर्ण हुई भी टीवी आ गया।
अब वह अपने एक दोस्त से बोला की भाई बस एक स्कुटर और मिल जाये तो बसों के धक्के खाने से छुटकारा मिल जायेगा। उसकी यह भी इच्छा पुर्ण हुई और एक स्कुटर भी आ गया। एक कामना पुर्ण नही होती की दुसरी सिर उठाकर खङी रहती। एक के बाद एक बस हर पल बैचेन रहने लगा उसके जीवन की सुख शांति छु मंत्र हो गयी। सारा दिन इधर उधर भागता रहता मकान बन गया एक कार खरीद ली एक फैक्टरी भी लगा ली। घर में सब ऐसो आराम का सामान आ गया। बस अपने दोस्त से एक दिन बोला की भाई बस भगवान एक फैक्टरी और लगवा दे तो बेटे को देकर बस हम दोनो पति पत्नि आराम से अपनी फैक्टरी में गुजारा कर लेंगे। अरे बाबा कहां संतुष्ट होगा यह मानव चाहे कितना भा मिल जाये फिर भी पागलों की तरह भागता रहेगा। कभी भी तृप्ति नही होती। कोई ना कोई उत्कंठा बनी ही रहती है। और उस भले आदमी को बस इसी तनाव में कि ये मिल जाये आज ये मिल जाये एक दिन दिल को दौरा पङा और भगवान को प्यारा हो गया।
कोई भी व्यक्ति जो उसके पास है उससे संतुष्ट नही है बस कहीं से ना कहीं से और ज्यादा प्रप्त हो जाये इसी उधेङ बुन में ही लगा रहता है। और अपनी संतुष्टि के लिए उचित या अनुचित कोई भी कार्य करके जिस वस्तु व्यक्ति या किसी और पदार्थ की कामना करता है हासील करने का भरकस प्रयास करता है। साम दाम दंड भेद वाली सारी नीति अपना लेता है।
इसी बात का खंडन भगवान ने गीता में ही किया है कि जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन यापन के लिए संग्रह करता रहता है विवेकी पूरूष भी उसी तरह लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। इस तरिके से ही हम संतुष्ट हो सकते हैं। लेकिन लोक संग्रह या परमार्थ तो कही रहा ही नही बस स्वार्थ ही स्वार्थ चारो तरफ मुंह बाये खङा रहता है। और हम अपनी असंतुष्टि पुर्ती के लिए अपनी तामसी बुद्धि के कारण अधर्म को भी धर्म मानकर जो भी हमें चाहिए उसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं।
इसे पढकर आप कृपा अपने विचार जरूर बताये।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915
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