गुरुवार, 9 जुलाई 2009

-------मैं कोन हुं-------


यह सवाल अपने आप में ही सुनने वालों का दिमाग चकरा देता है ,
मैं कोन हुं ???? फलां आदमी, फलां बाप के बेटा, एक व्यापारी, एक शिक्षक या अधिकारी आखिर कोन हुं मैं ??
ये जितने भी नाम लिए हैं ये रिस्तों ओहदों के नाम हैं !
यह आग पानी हवा आकाश से बना हाड मांस का पिंड आखिर कोन हुं मैं ???
यह अजीब सा सवाल एक दिन मैं सत्संग में बैठा था वहीं पर किसी ने पुछा !
उनमें से एक ने कहा की सब स्वयं से ही यह प्रश्न करो की मैं कोन हुं !
तो कईयों ने जबाब दिये कि हम प्रमात्मा के अंश आत्मा हैं ... हम विराट प्रभु का एक छोटा सा अंश हैं !
लेकिन मैं इस जबाब से संतुष्ट नही हुआ, क्योंकि जब हमें पता है कि हम प्रमात्मा के अंश हैं और सारा दिन एक दुसरे की निंदा चुगली दुसरे की अनिष्ट की भावना अधर्म पुर्वक धनादि का संग्रह करते रहते हैं, वासना में भ्रमण करते रहते हैं !
फिर हम कैसे प्रमात्मा के अंश हो सकते हैं ?????
सत्संग में बैठे सब ज्ञानी स्वयं को आत्मा समझते हैं फिर भी एक दुसरे के खुन के प्यासे ....
मैंने विचार किया की ये लोग जो बता रहे हैं वो छुट है, या फिर जो कह रहे हैं वो झुट है!
मैं इस विषय पर गहरा चिंतन करता रहा लेकिन कोई परिणाम नही निकला !
मेरी स्थिती ऐसी हो गयी जैसे कोई नदी के एक किनारे पर बैठे दुसरे किनारे की बात कर रहा जहां हम कभी गये ही नही उसकी शोभा का वर्णन कर रहा हो ! जिसको सिर्फ हमने उधर से आने वाले यात्रियों से सुन रखा था उसे ही गाये जा रहे हैं ! और इस चर्चा पर दो ढाई घंटे विचार किया ! बाद में आपस में कहने लगे कि वाह भई वाह आज का सत्संग बहुत अच्छा रहा गम्भीर चर्चा थी !
वो सब तो वाह वाह कर रहे थे, लेकिन मुझे तो और ज्यादा बैचेनी सी होने लगी थी !
रात को खाना खाकर लेट गया लेकिन सवाल वही कि मैं कोन हुं ????
मेरा विवेक मेरी बुद्धि इतनी विशाल नही है कि जो इतनी बङी समस्या का समाधान खोजने में सक्षम हो .....
मैंने टुकङे टुकङे करके इस समस्या को हल करने की कोशिश की .. जैसे मैं शरीर हुं लेकिन हाथ पांव नाक पेट पैर जांघ सिर को हम अलग अलग देखे तो वह भी मैं नही हुं ! फिर थोङा गहराई में गया सांस तो वहां से भी लगा की यह भी में नही हुं...
दिल आंत फेफङे अखिर कोन हुं मैं ???
मैंने सोचा की चलो ये बात ये छोङो जैसे हम दिल्ली से मुम्बई चले जायें तो लोग वहां हमें नही जानते बस ये जानते हैं कि फलां आदमी दिल्ली से आया है... उसकी पहचान जगह से बन गयी ....
मैंने भी यही विचार किया कि मैं का ज्ञात यानि की सही पहचान नही तो प्रथम यही देख लो कि यह मैं आया कहां से है ??? शायद कोई सुराग वहीं से हाथ लग जाये !
चिंतन किया जो यह इतना बङा शरीर हट्टा कटटा जवान दिखाई दे रहा है.यह पहले बहुत मुलायम सा था उसके पहले मां के गर्भ में,, गर्भ से पहले पिता के विर्य में फिर वही मनुष्य.................... आखिर क्या है ये पहेली ?????
इन सब चिंतन मनन के बाद एक बात सामने आयी कि जो लोग इतनी आसानी से कह रहे थे वो सब एक दुसरे की कही बात को ही दोहरा रहे थे कुछ यथार्थ का ज्ञान नही है...
दुसरी बात यह शरीर हाथ पांव मन बुद्धि अंह क्रोध सांस कुछ भी मैं नही हुं जो मैं है वो इन सबसे अतीत है सबसे अलग है....
जैसे बिजली के खम्बे में कांच लोहे का टुकङा अन्य चीजें जो भी हैं वह उसमें बहता प्रकाश नही है ! वह सबसे सर्वथा अलग थलग है !
तो हमारे इस हाड मांस के शरीर में भी मैं कोई अलग ही चीज है !
बस यही विचार करना है कि वह कोन है !
जैसे इस शरीर पर कोई प्रहार करे तो दर्द के मारे बिलबिला उठता है, कोई प्यार से छुए तो प्रेम की भावना या बदन में स्पंदन तरंगीत सा अनुभव होता है !
जहां चोट लगी है वह भी मैं नही हुं जहां पर तरंगे सी उठी वह भी मैं नही हुं !
उन सत्संगियों की बात मात्र उनकी बातो से मैं संतुष्ट नही हुआ क्योंकि वो तो सब यही कह रहे थे कि कि हम प्रमात्मा के अंश हैं जब सभी जीवों के अंदर प्रमात्मा है तो यह जानते हुए क्यों एक दुसरे पर अत्याचार कर कहे हैं क्यों एक दुसरे के खुन के प्यासे हो रहे हैं !
मैं विचार करता करता मानसिक रूप से बहुत थक चुका था अचानक गीता का एक श्लोक याद आया न हन्यते हन्यमानें शरीरे अर्थात शरीर के मारे जाने पर भी यह नही मारा जाता ... गीता पर पुर्ण विस्वास है क्योंकि यह भगवान श्री कृष्ण की दिव्य वाणी है !
लेकिन ये सब मन बुद्धि से ऊपर की बात है और हम मन बुद्धि तक ही सीमित हैं !
हम मान सकते हैं कि भगवान ने कही है तो सत्य है लेकिन बुद्धि तो तर्कवादी होती है..
मैंने एक डाक्टर से बात की डा0 नवीन से पुछा की डाक्टर साहब यह बताओ मुझे की जैसे आदमी की आंख निकल जाये तो अंधा हो जाता है कान के खराब होने से बहरा हो जाता है.. तो जब आदमी मरता है तो इस हमारे शरीर के अंदर से कोन सा हिस्सा कम होता है !
डाक्टर साहब ने बङी गम्भीरता से कहा शिवा आज तक वैज्ञानिक भी इस बात का पता नही लगा पाये, कि इस शरीर में ऐसा कोन है जिसकी साहयता से देखता सुनता बोलता खाता पीता चलता स्वांस लेता है उसके निकलते ही अल्प समय पश्चात शरीर जो इतना सुन्दर था उसमें से बदबु आने लगती है !
डाक्टर साहब की बात मेरे दिमाग में आयी की इस शरीर में हाथ पैर सिर मन बुद्धि ह्रदय फेफङे के अलावा कोई है जो इसमें रहता है असली मैं वही है भगवान भी कहते हैं की न हन्यते हन्यामानें शरीरे शरीर के मारे जाने पर भी वह नही मारा जाता !
अगले दिन सुबह मैं ध्यान में बैठा हुआ उस सत्य को परखने की कोशिश करने लगा जिससे मैं के विषय में कुछ जानकारी हासिल हो सके कि मैं कोन हुं ????
ज्यादा देर तक बैठे बैठे पैर दुखने लगे सुन्न हो गये कमर में दर्द हो गया ! बुद्धि को तो इस बात की जानकारी है की शरीर सुन्न हो रहा है कमर में दर्द हो रहा है लेकिन कोई ओर भी है जिसे यह दर्द नही हो रहा है !
मेरी समझ में आ गया की मैं तो पता नही कोन हुं लेकिन जो में देख रहा सुन रहा कह रहा हुं वह इस शरीर से अलग है ! पता नही किसका अंश है, लेकिन यह बात सत्य है की कोई साक्षी है जो हर पल इस शरीर में होने वाली घटना पर ध्यान रखता है ! लेकिन कुछ कहता नही !
जैसे एक बाग का माली बाग में तो बैठा है सब कुछ देख रहा है लेकिन किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नही करता अच्छे या बुरे का मैं वही हुं...
मुझे अभी तक नही पता लगा की आया कहां से हुं जाना कहां है ???????
भगवान से प्रार्थना करता हुं मुझ पर अपनी असीम कृपा करो जिससे मैं यह पहेलियां जान सकुं...........


जय श्री कृष्णा
शिवा तोमर- 9210650915