शनिवार, 12 दिसंबर 2009

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता-प्रथम



प्रथम अध्याय---
दुख और मोह से पीङीत है दुनिया
गीता का प्रारम्भ होता है युद्ध के मैदान कूरूक्षेत्र से, जहां कोरव और पांडव अपनी अपनी सेना के पुरी तैयारी में हैं। इसमें ऐसा दिखाया गया आदमी पहले भी कितना चतुर और चालाक था। यहां आपको कुटनीति, राजनीति, रणनिती सभी का दर्शन होगा बस ध्यान से एक एक बात को गहराई से चिंतन करते चले कुछ छुट ना जाये। कहीं ऐसा ना हो की जो काम का हो वो ही हमारे हाथों से निकल जाये और बाकि सब कुछ पकङे रहे। इस बात के प्रति सावधान रहे। और ये बात तो स्वंय भगवान ने भी कही है की यदि में कर्मों में सावधानी ना बरतु तो बङी हानि हो जाये। अगर हम भी सावधान नही रहेंगे तो कोई हानि तो होगी ही। इसलिए सचेत रहे सजग रहे। गीता शास्त्र ऐसा सागर है जिसमें से हर व्यक्ति को अपने अनुसार वो सबकुछ मिल सकता है जिसकी उसे जरूरत है। और यह भी देखना है कि आज ही नही पहले से ही यह मानव किस तरह अपना काम निकलवाने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता था। लालच और स्वार्थ ऐसा है कि राजा धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो रही है कि युद्ध के मैदान क्या हो रहा है। इतनी उत्सुक्ता हो रही है लङाई देखने की और यह भी पता है कि यह कोई आम युद्ध नही है इसमें लाखों लोग मारे जाने वाले हैं। रक्त की नदियां बहने वाली हैं। और जो भी होगा उसमें उन्ही के बच्चे मारे जायेंगे क्योंकि पाडव और कौरव दोनो ही अपने हैं। प्रथम अध्याय में ही हमारे सामने दोनो बात आ जाती हैं कि एक तरफ युद्ध को देखने के लिए और करने के लिए लालायित हैं तो दुसरी तरफ अर्जुन इतने बङे नरसंहार के परिणाम की कल्पना करके कहते हैं कि हे भगवान में अपने गुरूजनों ताऊ चाचा दादा प्रदादाओं को मारकर भीख लेकर खाना भी कल्याण ही समझता हुं। क्योंकि उनके रूधिर से सने हुए भोगों को नही भोग सकते हैं हम लोग। युद्ध की तैयारी होते हुए ही दुर्योध्न गूरू द्रोण के पास जाता है। यहां यह बात स्पस्ट होती है की कितना चालाक था दुर्योध्न की सेना का सेना पति भीष्म है। और वह सबसे पहले द्रोण के पास गया। और जाकर अपने सेनापतियों की गिनती कराता है और सबसे पहले द्रोण के सामने उनका ही नाम लेता है जिससे की वह खुश हो जाये। वह जानता था कि ये सब लोग लङ तो तेरी तरफ से रहे हैं लेकिन भावना पांडवो की तरफ है। उनका अहित नही करना चाहेंगे। तो वह अपनी साम,दाम,दंडभेद वाली सारी प्रकिया अपनाता है। हर व्यक्ति के जीवन में शंखनाद होता है। महाभारत में भी शंखनाद हुआ। बताया जाता है कि युद्ध का शंखनाद किया भीष्म ने। हर बात के दो पक्ष होते हैं एक अच्छाई दुसरा बुराई, एक धर्म दुसरा अधर्म। लङाई और हिंसा धर्म नही करना चाहता जब भी लङाई हिंसा तकरार कुछ भी कहो वो अधर्म ही करता है। उस समय भीष्म अधर्म के साथ हैं तो शंखनाद भी उन्ही की तरफ से हुआ। उसके पश्चात स्वेत घोङो के रथ पर बैठे श्री कृष्ण महाराज ने पाचजन्य शंख बजाया। स्वेत घोङो पर सवार अर्थात शांत है जब अधर्म बढ रहा है तो धर्म के रक्षा के लिए पंचजन्य बजाकर युद्ध का शंखनाद किया। गीता तो हर कोई पढ सकता है मैं तो सुक्ष्म बातें आपके समक्ष रखने चाहता हुं। अधर्म के साथ कोई भी चलना नही चाहता हर कोई बचता है। संजय बताता है कि महाराज वह शंखनाद ऐसा हुआ कि आपके पक्ष वाले योद्धाओं के ह्रदय विदीर्ण कर दिये भयभीत कर दिये। यह बात समझने की अब तो संजय भी कौरव पक्ष को अपना नही मान रहा। अगर कोई नोकर मालिक के पास बैठा होता है तो वह यही कहता कि हमारा पक्ष। लेकिन संजय को भी ज्ञात था कि ये सब गलती पर है पाप के साथ हैं अधर्म के साथ है और कोई नही चाहता की मैं पाप का साथ दुं वही किया संजय ने।
इसके पश्चात कितना गहरा रहष्य है कपिध्वज से संबोधित किया है यहां अर्जुन को। अर्जुन कहता है की हे कृष्ण में इस सेना को देखना चाहता हुं। कपिध्वज यानि की जिसकी झंडे पर पताका पर हनुमान जी है यह प्रतिक है। हम सब भी किसी ना किसी प्रतिक के साहरे चलते हैं। गीता में यह दर्शाने की क्या जरूरत थी लेकिन उन्होंने समझी थी क्योंकि जिस प्रतिक के साहरे हम चल रहे हैं उसके गुण भी तो हमारे अंदर होने चाहिए ना। हनुमान जी जिन्होंने अधर्म के विरूद्ध पाप के खिलाफ 100 योजन का समुंद्र लांघ कर रावण की गुफा जहां पर यमराज भी आने से कतराते थे वहीं पहुंच गये थे। और अर्जुन ध्वजा पर हनुमान जी का प्रतिक लगाया है लेकिन अब असमंजस में पङ गया और ऐसी घङी में जब युद्ध का शंखनाद हो गया तब देखने की इच्छा कर रहा है। सब बातें भुल गया की ये वही लेग हैं जिन्होंने द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयत्न किया था और धोखे से लाक्षाग्रह में जलाकर मारने की कोशिश की। और भगवान भी कम नही थे उसके रथ को ले जाकर भीष्म और गुरू द्रोण के सामने खङा कर दिया और उनकी तरफ उंगली करके कहते है कि देख ये सब हैं जिनसे तुम्हें युद्ध करना है। अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो रथ को दुर्योध्न कर्ण और दुशासन के सामने खङा करते और जिसे देखते ही अर्जुन का खुन खोल उठता। चाहे कितना भी कायर हो डरपोक हो लेकिन दुष्मन को सामने देखते ही मारने की सोचता है। लेकिन भगवान ने रथ खङा किया भीष्म के सामने जिसके हाथों से अर्जुन ने खाना सिखा, कपङे पहनने सिखे। गुरू द्रोण जिसने धनुष पकङना सिखाया तरकस टांगना सिखाया और आज उन्हीं के सामने धनुष लेकर खङा होना पङ रहा है।
उन सब को देखकर कहते हैं कि अर्जुन को मोह सा हो गया लेकिन स्वंय अर्जुन ने कहा है कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता। अर्थात कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला में धर्म के विषय में मोहीत हुआ आपसे पुछता हुं। और यहां पर जब उसने सारी सेना देखी की सब अपने ही हैं और इतने शक्तिशाली की सभी के पराक्रम से परिचित भी था। तो उसे कुछ मोह भी हो गया और भय भी हो गया। यहां पर कई लोग कहते हैं कि वह मनोरोगी हो गया था। यह भी संभव है क्योंकि मनोरोगी वही होता है जिसका कहीं ना कहीं शोषण हुआ हो या कुछ छिन गया है। और ये दोनो बात ही अर्जुन के साथ घटित हुई इसलिए मनोरोगी हो गया। और कि इन सब लोगो को मारकर राज्य भोगने से बेहतर तो ये ही होगा की धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्र रहित को मार डालें वह भी कल्याण कारक होगा। कितना भयभीत हो गया की हाथ से हथियार छुट रहा है शरीर काप रहा है मुख सुख रहा है त्वचा जल रही है। ये सब भय के ही लक्षण है मोह के नही। और इसी भय को छिपाने के लिए कितनी दुर तक की बातें बताने लग जाता है भगवान को ये मत समझना की ये सिर्फ अर्जुन के जीवन की घटना है हम सबके जीवन में भी यही सब हो रहा है। कहता है की अगर सब लोग मर जायेंगे तो कोन पुर्वजो के पिंड दान करेगा और सारी स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी और वर्णशंकर पैदा होगा। वह इस भयानक युद्ध से बचना भी चाह रहा था लेकिन यह भी सोच रहा था कि कोई यह ना कहे की डरकर भाग गया है। और कहता है कि हम बुद्धिमान होकर भी इस महान पाप करने को तैयार हो गये और एक आह सी निकलती है उसके मुंह से जिसका स्पस्ट वर्णन किया है कि हा शोक.......। जैसे पता नही कितना बङा जुलम करने जा रहा हो। आज यह युद्ध अर्जुन को पाप लग रहा है ना जाने कितने युद्ध किये और कितने लोगो को मारा तब पाप नही था। सब राज्य और सुखों को छोङकर वन जंगल में रहना ही पसंद करता है। साफ कह देता है की मुझसे युद्ध नही होगा। अब जरा चिंतन करो की क्या हम अपने जीवन में आये दिन किसी ना किसी जिम्म्दारी से पलायन करने की नही सोचते और उसका ठिकरा किसी और के सिर फोङते हैं। ऐसा युद्ध हमारे अंदर चलता ही रहता है और हमारा मन है कि कोई ना कोई बहाना बनाकर युद्ध से बचता रहता है और बातें घङने की आदत सा बन गयी है लेकिन जैसे हमारे पास कोई ऐसा नही है इससे हमें निकाल सके क्योंकि जो निकाले वह पहले ही ऐसा होना चाहिए जो इस समस्या से मुक्त हो। वहां तो भगवान थे कोई आम आदमी नही स्वंय भी उलझा रहे। भगवान ने पहले अध्याय में कुछ नही बोला क्योंकि जो व्यक्ति अपनी गलती छुपाने की कोशिश करता है वह सामने वाले को बोलने का मौका कम ही देता है। और सोचता है कि बस मेरी सुने और मान जाये। यहां तक पहला अध्याय है कि धनुष बाण सब छोङकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। इतना तनाव में पहुंच गया कि कुछ समझ ही नही आ रहा कि क्या करूं और क्या ना करूं। यह देखो ना कि जब आदमी किसी काम से बचने के लिए आत्महत्या करने तक की बात करने लगे तो कैसी स्थिती होगी कल्पना मात्र से ही सारे बदन में सिहरन सी दोङती है। भगवान सारथी भी है और अर्जुन के सखा भी है। पहले अध्याय को विषाद योग कहा गया है यानि की दुख का मिलना । और जब हम अपनी जिम्मेदीरियों से पलायन करेंगे तो दुख और विषाद तो प्राप्त होगा ही। अर्जुन को इतना भारी तनाव गलत नही हुआ था क्योंकि एक सैनिक होने के बाद भी वह युद्ध से बचने के रास्ते खोज रहा है तो क्या होगा अगर कोई शिक्षक, डाक्टर, इंजिनयर कोई भी अपने काम से अपने फर्ज से पलायन करेगा तो उसका परिणाम भारी तनाव और विषाद का योग तो भोगना ही पङेगा । शिवा तोमर-9210650915

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता



विस्व का सबसे पवित्र और प्राचीन ग्रंथ है श्री मद्भगवद्गीता। नाम तो इस शास्त्र का संसार के बहुत से लोगों ने सुना होगा लेकिन इसका अध्ययन किया होगा 4-5 प्रतिशत ने ही। और अगर दर्शन करने की बात की जाय तो हजारों में किसी एक ने इसका यथार्थ रूप से दर्शन किया होगा। लोग इसे पढना नही चाहते पलायन करते हैं इससे। और अपने को सही साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी बताते हैं। कोई कहता है कि ये तो हिंदूओं का शास्त्र तो कोई कहता है कि ये तो साधु संतो के लिए है, तो कोई युद्ध की जङ बताते है, कहते हैं कि अर्जुन तो युद्ध करना ही नही चाहता था कृष्ण ने यह उपदेश देकर कितना बङा नरसंहार कराया। मंदबुद्धि लोग ऐसे बाते करके ही इसके अध्ययन करने से बचने लगे।
यह भी सत्य है कि यह युद्ध क्षेत्र में दिया गया उपदेश है। लेकिन भगवान का मकसद युद्ध कराने का नही था, नही तो भीम और अर्जुन को कहीं भी भङका कर युद्ध करा सकते थे। लेकिन भगवान ने यह कहा है हे अर्जुन यह योग तो मैंने कल्प के आदि में सुर्य को दिया था ऐसा नही है कि तुझे ही दिया है। लेकिन अब यह लुप्तप्राय हो गया है इसलिए मैं तुझे यानि कि तेरे माध्यम से फिर दे रहा हुं। जिससे सभी का कल्याण हो सके। इसकी आवस्यकता तो सभी मनुष्यों को थी और रहेगी। और जब जब लोग इससे विमुख होगें तो ऐसे ही भृष्टाचार अपराध हिंसा और व्याभीचार में वृद्धि होगी ही। ये बात नही है कि अर्जुन को यह लङाई करने के लिए दिया था। यह उपदेश तोङने के लिए नही जोङने के लिए है। नफरत के लिए नही प्रेम और सदभावना के लिए है। श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही ऐसे बातों से होता है कि जिससे ज्ञात हो कि कितनी अज्ञता भरी पङी थी लोगो में। धृतराष्ट्र कहता है हे संजय कुरूक्षेत्र में मैंरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया है क्या कर रहे हैं वो। जहां श्री कृष्ण स्वंय मोजुद हो भीष्म, गुरू द्रोण, कृपाचार्य, और राजा स ऐसी बात करें तो कितना गलतो हो सकता है। तेरे मेरे की ओर पाडुं पुत्र तो उन्हें सर्वस्व ही समझते थे लेकिन मोह और लोभ में अंधा धृतराष्ट्र के मन में तेरे मेरे की दीवार बन गयी थी। तो ही ऐसी बात कर रहा था। तो देश समाज इमानदारी और इन्सानियत का क्या होगा हर तरफ मारा मारी हर तरफ खुन खराबा ही होगा। एक राजा के अंदर ऐसे भाव तो क्या होगा समाज का ऐसी स्थिती में गीता का उपदेश दिया गया था। जिससे ऐसे भाव समाप्त होकर सदभावना जागे।
मैंने लिखा है जीवन का श्री मद्भगवद्गीता। मैं कोई ज्ञानी नही हुं बस उस महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का आभारी हुं जिन्होंने ऐसा विवेक दिया और मैंने गीता अध्ययन किया और इसमें पाया की यह तो जीवन का आईना ही है। यह हमें ऐसा दिखाती है जैसे हम होते हैं। मैंने कभी भी गीता को इस तरह से नही पढा की जैसे ये अर्जुन को सुनाई थी मैंने तो सदा इसी भाव से पढा जैसे ये मेरे लिए ही हो और मुझे ही सुनाई हो। गीता पढने का अपना लाभ है मैं ये नही कह रहा की लाभ नही है। यह तो दिव्य है अलौकिक है निर्मल है । इसके स्पर्स मात्र से ही कल्याण हो जाये। लेकिन जो भगवान ने आदेश दिया है उस पर चले बिना कैसे मंजील तक पहुंचेगे। जैसे सङक पर चलने के लिए कई दिशा निर्देश लिखे होते हैं जैसे लाल बत्ती हो गयी, कहीं पर बोर्ड पर लिखा होगा की प्रवेश वर्जित है, तो कही लिखा होगा की गाङी खङी ना करे ये सभी निर्देश हमारी सुरक्षा के लिए जिससे हम अपनी मंजील तर जल्दी और बिना किसी कष्ट के पहुंच सके इसिलिए बनाये हैं।
गीता को कहानी की तरह से नही पढना है बल्कि उसमें दी गयी शर्तों के अनुसार ही पढना है तभी हम अपनी मंजील कर पहुंचेंगे। भगवान ने कदम कदम पर संकेत दिया है ये नही करने या ऐसा करोगे तो लाभ होगा लेकिन हम वो संकेत तो देखते ही नही और अपनी गाङी को 100 की रफ्तार से भगाते रहते हैं और टक्कर मारते रहते हैं और कोसते रहते हैं कि हम तो भगवान का नाम लेते हैं उनका ध्यान करते हैं गीता भी पढते हैं लेकिन विपत्तियां तो हमारे ऊपर आती ही रहती हैं। अरे भाई जब हम संकेतो को देखकर चलेंगे ही नही तो परेशानी तो आयेगी ही। मेरा यह लिखने का उद्देश्य यह नही है कि किसी को ज्ञान दुं ज्ञान तो सभी के पास है। हो सके किसी की नजर में कोई संकेत आ जाये और हमारी जीवन की गाङी सही सलामत पहुंच जाये अपनी मंजील तक। यह मैं लिखने की कोशिश कर रह हुं अगर कोई त्रुटी हो या सुझाव हो तो जरूर बतायें।