सोमवार, 21 दिसंबर 2009

गीता दुसरा अध्याय

ज्ञान की प्रप्ति
दुसरा अध्याय का नाम दिया गया है सांख्य योग यानि की ज्ञान की प्राप्ति। विषाद योग के बाद सांख्य योग। दुख के बाद ही ज्ञान प्राप्त होता है। आंसूओं से भरा चेहरा, व्याकुल नेत्र, शोकयुक्त बताया गया है अर्जुन को। उसके प्रति भगवान कहते हैं। यहां पर यह भी कह सकते थे। कि अर्जुन को भगवान ने कहा लेकिन इन सब बातों को दर्शाने का अर्थ है कि आगे जो भगवान कहने जा रहे हैं, वो थप्पङ हमारे गाल पर भी पङेगा। क्योंकि हम सब तो रोज आये दिन रोते रहते हैं, व्याकुल और बैचेन होते रहते हैं, और लोभ मोह तथा भय के कारण अपने कई जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं। ये नही समझते की ऐसा सब करने से कल्याण नही हो सकता। अर्जुन क्या सोच रहा था कि इस प्रकार रोकर और बैचेन होकर अपने पद की गरीमा बचा सकता है। हम अपने पद जो भी हमें मिला हुआ है अगर उसकी गरीमा को बचाना है तो सत्यभाव में कर्म करना पङेगा, नही तो हानि ही होगी इस बात का वर्णन भगवान ने यहां सही किया है।
जब अर्जुन बिलकुल स्पस्ट कहकर चुप हो गया कि मैं युद्ध नही करूंगा। तो भगवान ने उसे बङे कटु वचन कहे, जैसे हमारा किसी का बच्चा सही काम नही करता तो हम उसे कटु वचन कहते हैं कि अगर तु नही पढेगा तो धक्के खाता घुमेगा, कहीं भीख मांगेगा। भगवान भी ऐसा ही कहते हैं कि तुझे इस असमय में यह मोह कैसे हुआ। इससे ना तो तुझे यस ही मिलेगा और ना राज्य और स्वर्ग ही। और इससे आगे बङे ही सख्त लहजे में कहते हैं कि तु नपुंसकता को मत प्रप्त हो जो तेरे अंदर डर बैठा हुआ है जिससे तु भयभीत हो रहा है उसे निकाल बहार फैंक। और युद्ध कर। एक यौद्धा को डरपोक हिजङा कहना कितने लानत की बात है। लेकिन अर्जुन के उपर तो जुं तक नही रेंगती। यह सब सुनकर कहां गया आज उसका क्षत्रापण कहां गयी उसकी वीरता क्या हो गया गांडीव धनुष को जो बङे बङे यौद्धाओं के छक्के छुङा दिया करता था। क्यों आज इतना स्वार्थी हो गया कि इतना सुनने के बाद भी कह रह रहा है कि किस तरह मैं भीष्म और गुरू द्रोण के विरूद्ध लङुंगा दोनो ही अति पुजनीय हैं। कौरवो की सेना में वो दोनो ही सबसे बङे पराक्रमी योद्धा थे। और उन दोनो से युद्ध ना करने के लिए अर्जुन आज उन्हे पुजनीय बता रहा है। जब अज्ञातवास में थे और राजा विराट के यहां रहे तो अर्जुन को हस्तिनापुर की सेना के साथ युद्ध करना पङा था । और उस जंग में अकेले ने ही सबको हराया। और तो और उत्तरा कुंवर ने भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि सबके कपङे भी उतार लिए तब वो लोग पुजनीय नही लगे थे। आज कितना भयभीत और मोहग्रस्त है कि भगवान के समक्ष समर्पण कर देता है कि हे प्रभु में आपका शिष्य हुं आपकी शरण हुं मुझे वह ज्ञान दिजिये जिससे मेरा यह मोह भय सब दुर हो सके और में अपना कर्तव्य पुरा कर सकुं। यहां पर अर्जुन ने यह भी साफ कर दिया है की हम जिस राज्य के लिए यहां युद्ध करने के उद्देश्य से इकठ्ठा हुए हैं यह तो उसके सामने कुछ भी नही है। इससे आगे कितनी बङी बात कहता है कि अगर मुझे सारी धरती का राज्य भी मिल जाये और अगर मैं देवताओं का भी राजा बन जाऊं तो भी जो आज मेरे अंदर जो शोक है, दुख है और भय है यह सब भी उसको दुर नही कर सकते। अर्जुन इतना परेशान है दुखी है भयभीत हो रहा है और इतना बैचेन है कि पागलों जैसी हालात हो गयी क्योंकि मरने की बात कर रहा है, और ऐसे हालात में भगवान उसको देखकर हंस रहे हैं जैसे बच्चे ने कोई शरारत कर दी हो। और बङा आदमी हंस रहा हो। भगवान हंसते हुए कहते हैं कि तु न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है। जिनको आज अर्जुन इतना पुजनीय मान रहा था उसके एक झटके में ही तरोङ मरोङ कर रख दिया भगवान ने। वही क्या हम सब भी तो उन सभी मनुष्यों के लिए शोक करते रहते हैं जिसके लिए हमें करना ही नही चाहिए। और सारी जिंदगी भयभीत रहकर डर डरकर काम करते हैं। और अपनी ही बुद्धि से सोचते रहते हैं की यह गलत है। यह भगवान का वचन आज के हर आदमी की समस्या का समाधान इतनी सहजता और सरलता से बता दिया कि ना करने योग्य शोक हम करते रहते हैं और जो कार्य करने की हमारी जिम्मेदारी है चाहे वह एक पिता की हो पति की या फिर अधिकारी या हो सैनिक इससे पलायन करने के रास्ते खोजते रहते हैं। यही कारण है कि शोक और भय से ग्रसीत रहते हैं। भगवान यहां पर अर्जुन को बहुत सा ज्ञान देते हैं और वह बच्चे की भांति सुनता रहता है। और सुनता भी क्यों नही वह जानता है कि मेरे समस्या का समाधान बस कृष्ण के पास ही है। इतनी ज्ञान की बातें अर्जुन को भगवान बताते हैं कि जितने भी इस सृष्टि में जो भी चर अचर हैं सबका एक दिन नाश हो जाना है। प्रमात्मा अविनाशी है। इतना स्पस्ट समझाते हैं कि तु यह मत सोच कि तु मैं या ये राजा लोग अभी हैं आगे नही होगें अब भी हैं आगे भी रहेंगे बस ये नाशवान शरीर नही रहेगा। लेकिन ये सब बातें अर्जुन की तो क्या हमारी भी किसी की समझ में नही आती। एक दुसरे ओर सरल तरिके से भी समझाने का प्रयत्न करते हैं। कि अपने धर्म पर चलना चाहिए चाहे कितना भी कष्ट हो कितना भी कठिन कर्म क्यों नही हो डरना नही चाहिए। और एक क्षत्रिय के लिए एक सैनिक के लिए युद्ध से बढकर कोई कर्तव्य नही होता। अगर एक शिक्षक बच्चों को तो पढाये नही और राजनिती करने लगे कितनी भयावह परिस्थती होगी। भगवान भी यही समझाते हैं कि तु एक सैनिक है ओर पंडितो का काम करेगा जो ज्ञान ध्यान की बात करेगा तो युद्ध कोन करेगा। अपने धर्म पर ही चलकर सब लोग कल्याण को प्रप्त हो सकते हैं। और अगर अपने कर्म से भागेगा तो लोग जो अब तक तुझे चाहते हैं तेरी इज्जत करते हैं वो तेरी निंदा करेंगे और जीवन में कोई नही चाहता की कभी निंदा या कोई गलत ना कहने योग्य बात कभी कहे। अगर कभी कोई निंदा या अपमान करता है तो एक अच्छे सम्मानीय व्यक्ति के लिए तो मरण से भी ज्यादा हो जाता है। ये सब ज्ञान की बातें भगवान कहते रहते हैं लेकिन अर्जुन कुछ जबाब नही देता उसकी खामोशी साफ बता रही थी की वह संतुष्ट नही है। कोई भी बात का जबाब नही दे रहा था बस चुप्पी साधे रहा। तो कृष्ण ने सोचा की इसके ऊपर तो कोई असर ही नही हो रहा है। आगे भगवान कहते हैं कि अब में तुझे वह बात बता रहा हुं जिससे तु कर्म करता हुआ भी सभी कर्म बंधनों से मुक्त रहेगा। यह जो मन है ना बङा ही चतुर है अपने ही अनुसार चलने के हजारों तरिके खोज निकालता है। लेकिन कृष्ण तो महायोगेश्वर हैं। वो तो ये बात भलीभांति जानते थे कि अगर आज अर्जुन अपने कर्म से पलायन करने में कामयाब हो गया तो आगे इसी प्रकार अपनी जिम्मेदारी अपने दायित्व से मुंह मोङने लगेंगे, और बङी हानि हो जायेगी दुनिया की। भगवान ने बहुत छोटे स्तर पर आकर अर्जुन के सामने दुसरा विकल्प रखा कि अर्थात एक तरह का प्रलोभन सा दिया कि देख अगर ये वो रास्ता है जिससे तु अपने कर्म यानि की युद्ध भी करेगा और जो कर्मफल होते हैं अच्छे बुरे उनसे मुक्त होकर प्रमात्मा की प्राप्ति कर लोगे लेकिन करना पङेगा। और जो भी इस प्रकार कर्म करेगा उसमें कोई दोष भी नही लगेगा। इस कर्मयोग धर्म का थोङा सा साधन भी जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। उसे यहां पर थोङा भयभीत सा भी कर दिया कि इस जीवन में दो दुख सबसे बङे होते हैं जन्म और मृत्यु अब तो उनका भय भी कुछ नही बिगाङ सकता। व्याक्ति सबसे ज्यादा अपनी मृत्यु से ही डरता है। जैसे अगर हमें ही कोई कह दे कि तुझे मरने के कष्ट से मुक्ति दिलाऊंगा तो हम उसके बदले में कुछ भी कर गुजरेंगे। भगवान कहते हैं कि कर्मयोग में बुद्धि एक ही होती है लेकिन जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है अज्ञानी हैं अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है। बुद्धिहीन तो अधर्म को धर्म मानकर अपने को संतुष्ट कर लेते हैं। अर्जुन को बता दिया की जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है मंद बुद्धि हैं उसमें तो स्थिर यानि कि निश्चायत्मिका बुद्धि नही होती और अर्जुन तो क्या हममें से कोई भी स्वंय को पागल और मंद बुद्धि कभी नही समझते हैं। भगवान ने सोचा था कि इतनी साफ बात सुनकर तो अर्जुन के अंदर तो कुछ कर्म के प्रति श्रद्धा जग जायेगी लेकिन परिणाम जस का तस। जब द्रोपदी का स्वयंवर हो रहा था और जो शर्त थी मछली की जो भी आंख बेध देगा उसी के साथ द्रोपदी की शादी कर दी जायेगी। जब बङे बङे शक्तिशाली राजा महाराजा आये और मछली तो क्या बेधेंगे धनुष को तक नही उठा पाये। तो बङा दुखी होकर द्रुपद ने कहा था की क्या कोई ऐसा नही है जो इस धनुष को उठा सके जो मैंने शर्त रखी क्या कोई भी पुरी नही कर सकता मेरी बेटी कि वरमाला के लायक कोई नही है। जब कङुवी कङुवी बात कही तो अर्जुन जो पंडित के वेश में बैठा था खुन खोल गया और शंकर भगवान के धनुष को उठाया भी और मछली की आंख भी बेधी थी। लेकिन आज इतनी कटु बातें सुनकर भी उसके रक्त में कोई उबाल नही आया कितना ठंडा पङ गया भय और मोह में। नपुंसक भी कह दिया और अप्रत्यक्ष रुप ये यह भी कह दिया की जो पागल हैं जो मंदबुद्धि हैं वो कोई भी पक्का निर्णय नही कर पाते। ये सब बातें सुनकर भी खामोश रहा अर्जुन। यह भी कहते हैं कि जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त हैं उन पुरूषों की प्रमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नही होती। कितना सुंदर कितने सरल तरिके से बता दिया कि जो आदमी अपना किसी भी कर्म का निर्णय नही ले पाते इसका मतलब ये हुआ कि कहीं ना कहीं भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हैं। गीता पाठ प्रतिदिन लाखो लोग करते होंगे लेकिन सिर्फ उसके पुजा तक ही सिमित रखा हुआ है। कृष्ण के उपदेश को बस ये ही समझकर पढते हैं कि अर्जुन को बता या था उसी के लिए था। और समस्या हम सब की है कितनी बार ऐसा होता है कि हम कोई निर्णय नही ले पाते। लोभ और भय में इस तरह से लिपटे रहते हैं कि अपनी जिम्मेदारी से पलायन करने के तरिके खोजते रहते हैं। आगे भगवान कहते हैं कि तु आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्म कर। जब भगवान ने देखा की अर्जुन के अंदर तो आज अपनों के प्रति आसक्ति और मोह बढता ही जा रहा है। जिसके कारण वह अपने दायित्व से भाग रहा है। अपने कर्म से डर रहा है। तो फिर अपना कथन जारी रखते हुए कहते हैं कि सकाम कर्म तो बहुत ही निम्न श्रेणी का है और ये तक कह दिया कि फलहेतव: कृपणा: यानि की फल के लिए काम करने वाले अत्यंत दीन होते है गरीब होते हैं। मांगने वाले के पास चाहे कितना भी धन दौलत हो लेकिन जब किसी से कोई मांग की तो दीन हो जाता है भीखारी हो जाता है।
अगर व्यक्ति अपने कर्म को सही यथार्थ रूप से जिससे की किसी का अनिष्ट ना हो यानि की समता से करेगा तो इसी जन्म में पाप पुन्य को त्याग देता है। सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है। कहने का आशय ये है कि जो हम सब जीनव में अपने अपने कर्म करते हैं जो अन्याय पुर्वक धनादि का संग्रह करते हैं या जो भी हम अनुचित तरिके से आगे बढते हैं। अगर हम समत्व योग में स्थित होकर वही कर्म करें तो कोई बंधन नही होगा। अर्जुन को यहां युद्ध करना था और वह अपनो को देखकर मोहीत हो गया अपने अंदर की समता को नष्ट कर दिया। और भगवान ने तो समता को ही सबसे बङा योग बताया है और उसी से विमुख हो गया अर्जुन। कि ये ही एक रास्ता है जिससे चाहे तु यहां लाखों आदमीयों को मार भी डाले तो लेकिन तेरे ऊपर कोई हत्या का पाप नही लगेगा। कोई दोष नही लगेगा। कई लोग इस उपदेश को गलत समझ जाते हैं। जैसे अगर किसी के हाथ से कोई अपराध हो जाता है तो बस गीता को माध्यम बनाकर कहते हैं लोगो को गुमराह करते हैं कि ये तो स्वंय भगवान ने ही कहा है जो भी होता है वो सब मुझसे ही होता है तु तो सिर्फ निमित्त मात्र है। तो इसमें हमारा क्या दोष है। लेकिन जरा एकाग्र होकर सुनो की भगवान ने ये कहा है कि जिसका जो भी कर्म है जैसे कोई डाक्टर हो या इंजिनयर या वकिल हो कोई किसी की हत्या कर देता है चाहे वह कितना गलत या कितना भी बङा अपराधी क्यों ना हो उस पर हत्या का आरोप लगेगा और पाप भी लगेगा, सजा मिलेगी ही। क्योंकि वह उसका कार्य नही है। जो नियम है जो व्यवस्था है तो पुलिस या फिर सैनिक या न्यायधीष ही किसी अपराधी को सजा सुनाने दंड देने के अधिकारी है। यहां सबसे महत्वपुर्ण यह है कि कोई विकार के शिकार होकर ना किसी को मारे अपना फर्ज समझकर एक सैनिक किसी अपराधी को पकङकर सजा देता है तो ही कर्मयोग है। अगर कोई सैनिक किसी का आप्रेसन करने लगे तो कितना भयानक परिणाम होगा। और इससे आगे तो भगवान ने बिलकुल स्पस्ट ही कह दिया की, जब तेरी बुद्धि इस मोह रूप दल दल को भली भांति पार कर जायेगी तो सभी भोगो से वैराग्य प्राप्त हो जायेगा। इन भोगो के कारण ही तो लोभ, मोह, क्रोध, और भय के शिकंजे में फंसे रहते हैं। और अगर इन भोगो से ही वैराग्य प्राप्त हो जाये तो कोई व्यवस्था कभी बिगङेगी ही नही। चाहे वह राजनिती हो शिक्षा नीति सब अपनी अपनी जगह ठीक होंगी। जो इन भोगों के प्रति राग हो रहा है इनकी जितनी आसक्ति बढ रही है तो व्यक्ति अपनी इच्छा पुर्ण करने के लिए किसी काम के करने से चाहे कितना भी अनुचित हो नही चुकता है। भगवान की इतनी सारी ज्ञान की और कर्म की बातें सुनने के बाद भी उसकी समस्या कम नही हुई जस की तस बनी रही। मानो कहीं ना कहीं कोई भारी असमंजस की स्थिती बनी हुई है कोई ठोस निर्णय नही ले पा रहा है अर्जुन। भगवान से पुछता है प्रभु जिसे आप कई बार कह चुके हैं कर्म योग में स्थित रहुं स्थिर बुद्धि रहुं तो लेकिन प्रभु स्थिर बुद्धि के पूरूष के क्या लक्षण हैं। वह कैसे चलता है कैसे बोलता और कैसे बैठता है। इस सवाल के पुछने के तरिके से क्या आपको लग रहा है कि पुछने वाला इतना बङा शूरवीर और इंद्र देवता के आशिष से कुंती जैसी श्रेष्ठ नारी के गर्भ से पैदा हुआ हो बिलकुल आम आदमी की तरह स्थिर बुद्धि की पहचान शारीरिक रूप से कर रहा है। कितनी अबोधता से कह रहा है कि स्थिर बुद्धि कैसे चलता है। इस तरिके से सवाल करने से ये तो साफ हो गया कि वह भगवान की बात पुरी तन्मयता से सुन रहा था। और जब इतना सब कुछ उसे बता दिया कि तेरी बुद्धि इस मोह रूप दलदल को पार कर जायेगी तो स्थिर बुद्धि ही समझो यहां ये सवाल पुछकर हो सकता है कि ये देखना चाह रहे हो अर्जुन की मेरे अंदर भी कोई स्थिर बुद्धि के लक्षण हैं या नही।
भगवान बिना रूके कहते हैं जिस पल यह मनुष्य मन में स्थित सम्पुर्ण कामनाओं को त्याग देता है तो स्थिर प्रज्ञ ही समझो। कितना सटीक हमला है ये हम सबकी अंर्तात्मा को झकझोर कर रख दिया। अर्जुन तो क्या हम सब भी उन्ही कामनओ की फांसियों में फंसे पङे हैं। तो अर्जुन अपनी कामनाओं के शिकंजे में है उनसे मुक्त ही नही हो पा रहा। वह कह तो रहा है कि राज्य की इच्छा नही है राज्य से कोई लोभ नही है। लेकिन दुसरी कामनाओं की झङी लगा रखी है। कि जो मेरे सामने हैं ये सब दादा परदादा मामा साले भाई बंधु खङे हैं उनके बिना क्या करूंगा में राज्य का कहने का मतलब ये है कि अर्जुन चाहता था कि ये सब लोग भी ना मारने पङे और राज्य भी मिल जाये। तो कामनाओं का पहाङ तो उसके अंदर ज्यों का त्यों खङा है। एक छोटी सी कहानी मेरे याद आ रही है एक आदमी अपनी बहुत सारी जमीन जायदाद धन दौलत छोङकर साधु बन गया और सन्यासियों का जीवन जीने लगा। अब वह सिर्फ एक लकङी से बना टाट जैसा कुछ पेट पर लपेटता था। एक दिन उसके किसी शिष्य ने उसके पास भोजन के लिए आमंत्रण भेजा। तो उसे रेल से सफर करना था। जहां जिस स्टेशन पर उसे उतरना था वहां करीब 6 बजे रेल पहुंचेगी। लेकिन बाबा तो तीन बजे ही उठ गये नींद नही आ रही थी। किसी से पुछा कि फलां स्टेशन कितनी दुर है उसने कहा बाबा आप आराम से सो जाओ अभी बहुत समय बाद आयेगा और हमें भी सोने दो। तो बेचारा बाबा चुप बैठ गया अपनी सीट पर। तकरीबन एक घंटे बाद फिर पुछा कि कितनी दुर है देखा इतना सब त्यागने के बाद भी कितनी बैचेनी और व्याकुलता हो रही है बाबा को। अब तो उनसे बिलकुल भी सोया नही गया। और उठकर हाथमुंह धोये अपनी दाढी पर तेल लगाकर चमकाया। अब वह लकङी का टाट अपने पेट पर बांधने लगा और बार बार रेल के डिब्बे में लगे आईने में देख रहा है कि कैसा लग रहा है। यह ठीक नही है तो दुसरा पहनुंगा, दाङी में कंघी की। अरे भाई कामना तो कामना है घर त्याग दिया तो टाट की कामना बनी है छुटी तो नही ना। जब तक कामनाएं है तब तक स्थिर बुद्धि कहां है। अर्जुन बात कर रहा है कि मुझे राज्य नही चहिए। मुझे किसी भी चीज से लोभ नही है बस कूल का नाश नही करना। लेकिन दुसरी तरफ सबको अधर्म पर चलते देखकर भी अपना कर्तव्य भुल रहा है। भगवान ने सिधी चोट उसकी कामनाओं पर ही की। आगे कहा की जो आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट हो वह स्थिर बुद्धि है. कहने का अर्थ यह हुआ कि अर्जुन तु स्थिर बुद्धि नही है, क्योंकि शरीरों को देखकर मोहित हो रहा है कि ये तो मेरे दादा हैं ये मेरे गुरू हैं। ये ज्ञान नही रहा कि जो तेरे अंदर आत्मा है इनके अंदर वो ही प्रकाश है। जैसे एक ही बिजली बल्ब, फ्रिज, हिटर फैक्टरी सबको प्रकाशित कर रही है उसी आत्मा से आत्मा में संतुष्ट हैं।
भगवान तो मानो एक के बाद एक उसकी हर कमजोर कङी पर हमला कर रहे हैं दुखों की प्रप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नही होता सुखों की प्रप्ति में सर्वथा निस्पृह है। जिसके राग भय क्रोध नष्ट हो गये ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि हैं। दुखो के मिल जाने पर जो उदास ना हो दुखी ना हो। हम तो रोने लगते हैं। और खुशियों में उझलने लगते हैं। तो कहां हम कर्म बंधनो से मुक्त हो सकते हैं। हम तो रोज नये बंधनो में फंसे रहेंगे।
भगवान स्थिर पूरूष के सारे लक्षण जब बताते हैं तो एक बात का ओर खुलासा कर देते हैं उसे स्पस्ट कर देते हैं। अगर कोई व्यक्ति हठ पुर्वक विषयों का सेवन नही करता तो उसके विषय तो निवर्त हो जाते । लेकिन उनकी आसक्ति बनी रहती हैं। जो स्थित प्रज्ञ है उसकी तो प्रमात्मा का दर्शन करके आत्मा से आत्मा में रमण करके आसक्ति भी निवर्त हो जाती है। जो मनुष्य बार बार गलत कार्यों की तरफ भागता है उनकी तरफ मोहित होता है। इनका सबसे बङा कारण ये ही कहा है कि जब तक आसक्ति का नाश नही होता प्रमंथन स्वभाव वाली इंद्रियां मन को बलात खिंच लेती है। यहां पर इंद्रियों को प्रमंथन स्वभाव वाली कहा है अर्थात ये सदा हर क्षण दुसरे का ही मंथन करती रहती हैं। बाहर ही इनका दरवाजा खुलता है। कभी स्वमंथन की कोशिश करती ही नही है। जब तक आदमी की बुद्धि स्थिर नही होती तो अपना मन स्वभाव के अनुसार कुछ ना कुछ चिंतन करता ही है। इसको तो कोई ना कोई काम चाहिए ही जैसे रेल को चलने के पटरी की आवस्यकता होती है तो मन को भी हर पल काम चाहिए और स्थिर बुद्धि के अभाव में ही गलत विषयों का अपने अनुसार ही चिंतन करता है। जो इसे अच्छा लगता है जो इसे भाता है। इसके आगे जो भगवान जो कहने जा रहे हैं वह सिर्फ अर्जुन या भारत के लिए 5100 वर्ष पहले कहा एक मामुली उपदेश नही था। वह विस्व में बढती हा हा कार, अपराध, हिंसा, व्याभीचार, अलगाव अशांति की जो मुख्य कारण है वो ही बता दिया की क्यों आदमी बलात्कार हत्या, डकैती और बम धमाके करता है। जरा ध्यान से पढे एक एक बात पर पुरा ध्यान रखे बिलकुल अर्जुन की भांति ही नही तो पता नही क्या हमारे काम का हाथों से निकल जाये। जो लोग विषयों में रमण करते हैं हर पल विषय भोगो में तत्पर रहते हैं विषयों का चिंतन करने से उनमें आसक्ति होती है। विषय धन का, वासना का, लोभ का, भय का कुछ भी हो सकता है। और किसी के भी अंदर हो सकता है। ऐसा नही है की अशिक्षित या गरीब पर होगा यह तो चाहे अनपढ हो या शिक्षित गरीब हो या अमीर, भारत का हो अमेरीका का, जो भी विषय भोगो का चिंतन करेगा तो उसके अंदर आसक्ति बढेगी ही अर्थात उस विषय को हासिल करने की लालसा बढेगी कामना पैदा होगी। और कामना पुर्ण होना हमारे किसी के हाथ में नही है कि जिस विषय की कामना हमारें अंदर जगी और पुर्ण हो गयी। ज्यादातर कामनाएं हमारी यानि की मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर ही होती हैं। और जब कामना पुर्ण नही होती उसमें किसी प्रकार का विघ्न पङता है उसके मार्ग में कोई रूकावट आती है और यह बेबश मजबुर मानव उस रूकावट को दुर करने में नाकाम होता है तो क्रोध आता है। हर समय चिङचिङा रहता है किसी से बात करने का मन नही करता बैचेन रहता है किसी से भी बात करेगा तो पता नही क्या कह दे क्या कर दे उसे स्वंय को भी ज्ञान नही होता की कि तु क्या कर रहा है। इस क्रोध के कारण अत्यंत मुढभाव यानि की आम भाषा में मूढ खराब रहता है। किसी अनजाने तनाव में रहता है। पता नही मन पर ऐसा कोनसा भार रहता है कि ऐसे भाव में भगवान कहते हैं कि उसे कुछ ज्ञान ही नही रहता की तु क्या कर रहा है। क्या बोल रहा है। कहते हैं ना कि पागल सा हो जाता है। यानि की बुद्धि खराब हो जाती है। और ऐसे व्यक्ति को सभी जानते हैं की कोई कुछ नही कहता। जब किसी घर में भी कोई सदस्य ऐसा हो जाता है तो कहते हैं कि ये पागल हो गया उससे कोई बात तक नही करता। क्योंकि उसकी बुद्धि खराब हो जाती है। वह अपनी वास्तविक स्थिती से गिर जाता है। और अंत में क्या होता है कि वह विषयी मनुष्य कोई भी अपराध कर देता है। वह कुछ परिणाम नही देखता कि इसके बाद क्या होगा। छोटे छोटे सुख और भोगों की खातिर अपना जीवन ही बरबाद कर देता है। लेकिन जिसने अपने मन इंद्रियां और अंतकरण को अपने अधीन कर रखा है यानि कि जैसा बुद्धि कहती है वैसे ही मन चलता है जो इंद्रियां अनुभव करती हैं उस सबका ज्ञान हो कि ये अच्छा है तो विषय को भोगते हुए भी अंतकरण प्रशन्न रहता है। कितनी बङी बात कही है कि जिस शांति के लिए सारा जीवन इधर उधर भागते रहते हैं कभी इसे मां बाप की गोद में खोजते हैं तो कभी बीबी के प्यार में तो कभी धन दौलत और सोहरत में खोजते हैं। और कभी प्राप्त ही नही हो पाती। पल दो पल की शांति को प्रमानंद समझ लेते हैं। अंतकरण की प्रशन्नता के बाद सब दुखों का अभाव हो जाता है। और जब दुख ही नही होंगे तो शांति मिलेगी ही। यहां पर ये बात भी चिंतन करने की है कि भगवान ने ये नही कहा की दुख समाप्त हो जाते हैं। कहा कि दुखों का अभाव हो जाता है। अर्थात दुख तो हर मनुष्य के जीवन में आते जाते हैं ही लेकिन अगर हमारा अंतकरण हमारा चित्त प्रशन्न रहता है तो उनको दुखों का ताप सताता नही है। क्योंकि सम्पुर्ण प्राणीयों के लिए जो रात्री के समान है उसमें स्थित प्रज्ञ योगी जागता है इसका अर्थ यह नही है कि योगी रात को सोते नही। अरे भाई रात्री मतलब अंधकार, अज्ञान यानि की अगर किसी भी प्राणी के सामने वह पशु पक्षी या मनुष्य कोई भी हो उसके मन के अनुसार कोई काम नही होता तो दुखों में रोता है बिलबिलाता है। और सुखो की प्रप्ति में हंसता है कुदता और नाचता है। सब सुखों में संसारी जागता है तो योगी सोता है। लेकिन जो योगी है उस पर जब भी कोई दुख या कोई कष्ट आता है तो बङा सावधान रहता है जागता है और सुख में संसारी जागते हैं तो योगी सोता है यानि की उसे भी सावधानी से भोगता है। जो पूरूष सम्पुर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित अहंकार रहित और स्पृहा रहित रहता है वही शांति को प्रप्त है। यहां यह बात भी साफ कर दी कि शांति कहीं बाहर नही है जो कोई हमें दे देगा कोई प्रदान कर देगा। ऐसा सम्भव नही है। जो अशांति की जङ हैं वो हमारे अंदर ही हैं। हमारे अंदर पैर फैला चुकि ममता अंहकार और कामनाएं हैं। और ऐसा योगी अंतकाल में भी ब्रह्मानंद यानि की सात्विक आनंद को प्रप्त होता है। ये बात इसलिए लिख रहा हुं कि आनंद तो हम विषयों को भोगते हुए भी अनुभव करते हैं। यहां उस आन्नद की बात हो रही है जो सास्वत है ध्रुव है जिसे प्राप्त होकर सारे दुखों का अभाव हो जाता है। चाहे कुछ भी कर्म करो तो आन्नद ही मिलता है कोई तनाव नही हो सकता। क्योंकि हम लोग सारा दिन सुबह से रात तक कोई ना कोई कर्म करते ही रहते हैं और कोल्हु के बैल की तरह पिलकर भी अशांति और पीङा का ही अनुभव करते हैं। तब भी भयभीत रहते हैं। लगता है जैसे कोई गलती हो गयी है कोई भुल हो गयी हो लेकिन स्थिर बुद्धि पुरूष जो भी कर्म करता है उसमें सुख शांति ही का ही अनुभव करता है।
बोलो कृष्ण भगवान की जय गीता माता की जय

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

प्रेम बङा दुर्लभ है----



दिखता तो ऐसा नही है हमें तो हर तरफ प्रेम ही प्रेम ही दिखता हम तो दिन में कई बार सुनते होंगे की जैसे कोई कहता है कि मैं तो फलां आदमी से बङा प्रेम करता हुं। और वह भी मुझसे बहुत प्रेम करता है। जब चारो तरफ प्रेम ही प्रेम है तो आप सोच रहे होंगे की शिवा पागल हो गया है क्या जो कह रहा है कि प्रेम बङा दुर्लभ है। ऐसा हो सकता है कि शिवा के जीवन में ही प्रेम ना हो सिर्फ और सिर्फ जीवन नीरस हो।
चाहे कोई जैसा भी समझे लेकिन मैं जीवन के तथ्यों को गहराई से जांचकर परखकर उनका विशलेषण करके ही कुछ लिखने का साहस करता हुं।
सच्चाई बङी कङुवी होती है कई बार सच को निंगल पाना नामुनकिन हो जाता है। और हम ऐसी असमंजस की हालात में फंस जाते हैं की अगर स्वीकार करें तो मरे ना करें तो मरे। हमारे यहां एक कहावत है पागल गिदङ के किसी ने कान पकङ लिए अब छोङे तो खाने का डर और नही तो कब तक पकङे रखेगा। तो यह सच्चाई है कि प्रेम बङा दुर्लभ है अर्थात प्रेम होना बङा कठिन है।
यहां संसार में तो कोई मानने को ही तैयार नही होता क्योंकि आप हो या मैं हममे से कोई भी नही चाहता की हमारी किसी भी बात की पोल सबके सामने खुल जाये सबके सामने उजागर हो जाये।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में एक जगह कहा है कि हजारों में कोई एक मुझे खोजने के लिए चलता है यानि की हजारों में से किसी एक के अंदर प्रेम का बीज अंकुरित हुआ। और उनमें से भी कोई एक है बिरला जो मुझे तत्व से जानता है। कितना स्पस्ट कहा है लेकिन हमारी तो समझ में ही नही आता। अरे बाबा जब किसी के अंदर प्रेंम उपजेगा तो ही तो प्रमात्मा की तरफ चलेगा अर्थात मानवता, अहिंसा, सदभावना, सहयोग, मैत्री और करूणा ह्रदय में प्रवेश करेगी।
सर्वप्रथम यह समझना चाहिए की प्रेम है क्या कैसे होता। कई बार हम किसी और चीज को ही प्रेम समझते रहते हैं। और भागते रहते हैं जीवन भर उसी के पीछे पागलों की तरह, और पता भी नही रहता की क्या कर रहे हैं और जाना कहां है। और अंदर ही अंदर खुश होते रहते हैं कि प्रेम प्रमात्मा का गुण है जो हमारे भीतर सबसे ज्यादा है।
एक छोटा सा उदाहरण है एक कोई गरीब आदमी था बेचारा उसने जीवन में कभी खीर नही देखी थी। उसका एक साथी खीर की बङी तारिफ कर रहा था। आज तो भाई मजा आ गया किसी ने मुझे खीर खिलाई। उस बेचारें ने बङी सहजता और भोलेपन से पुछा कि भाई कैसी होती है खीर.............
दोस्त ने कहा मीठी स्वाद्धिष्ट बङी लजीज होती है।
उसको क्या पता बेचारे को पुछता है की भाई देखने में कैसी होती।
अब वो कैसी बताये सामने एक बगुला खङा था कहने लगा देख इस बगुले जैसी सफेद होती है।
तो आप और हम सब समझ गये कि क्या हर सफेद चीज खीर हो सकती है। वैसी ही उपमा प्रेम की हो रही है। हम चाहे किसी से भी बात करके देखे बस यही कहेगा की मुझसे ज्यादा प्रेम तो कोई करता ही नही। कि इतना प्रेम करता हुं की फलां आदमी के बिना जी नही सकता। अरे भोले भाई प्रेम तो जीना सिखाता है जीवन को कैसे जीये ये हमें सिखाता है। जहां यह बात है कि हम जी नही सकते, तो प्रेम के बजाय कुछ ओर ही है जिसका हमने दर्शन किया है। राधा ने तो कभी नही कहा था की मैं कृष्ण के बिना नही जी पाऊंगी। और मीरा तो कृष्ण के प्रेम के आन्नद में झुम उठी थी, और कोई भी व्यक्ति दुखों में तो झुमेगा नही। भगवान श्री कृष्ण प्रेम के महासागर हैं। इसलिए बार बार कहते हैं कि हे अर्जुन तु मेरा सखा है भक्त है इसलिए जो गोपनीय से भी गोपनीय ज्ञान है वह मैं तुझे दे रहा हुं। अर्थात वह रहष्य तुझे बता रहा हुं। और हमारा कैसा प्रेम है। कि मैं फलां से प्रेम करता हुं वह भी मेरी सारी बात मानता है लेकिन जिस दिन उसी आदमी ने हमारी कोई बात मानने इंकार कर दिया तो सारा प्रेम टुटकर बिखर जाता है अब उससे खराब कोई नही है वह ही हमारा सबसे बङा दुष्मन बन जाता है। अरे भाई प्रेम तो दिव्य है अलौकिक है असीम है किसी का बंधन नही होता इसके ऊपर। और अगर किसी के अंदर एक बार अंकुरित हो जाये तो फिर जो भी उसके निकट आयेगा सभी को प्रेम मिलेगा ऐसा नही है जैसे एक मां अपने बच्चे को तो सीने से गलाकर रखती है और दुसरे का बच्चा चाहे रास्ते पर पङा रोता रहे कोई दया नही आती कोई प्रेम नही उमङता इतना स्वार्थी नही होता प्रेम इतना संकुचित नही होता।
जैसा आजकल देखा जा रहा है हम सबके समक्ष है एक लङका और एक लङकी आपस में बहुत प्यार करते हैं और एक दुसरे के लिए सभी दीवारें सभी मर्यादाएँ तोङकर मां बाप के प्रेम को ठोकर मारकर एक बंधन में बंध जाते हैं। कितना अटुट प्रेम है जिसने मां की ममता को भी दरकिनार कर दिया और पिता की परवरिश को भी अनदेखा कर दिया। एक दुसरे की हर बात को हर क्षण मानने को तैयार रहते हैं। एक दुसरे की दिल की धङकन हैं। कुछ समय बाद उन्ही के घर के प्रेम के मंदिर में हिंसा के कुत्ते भौंकते हैं नफरत और घृणा हर पल नाचती है। तो कहां छु मंत्र हो जाता है वह प्रेम। समझना बहुत कठिन है कोई सच्चाई को स्वीकार नही करना चाहता। सब भ्रम में जी रहे हैं। लोगो ने अपनी इच्छाओं को आसक्ति को प्रेम का चोला पहनाकर सबको को धोखे में रखते ही हैं स्वंय को भी धोखा दे रहे हैं।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-- 9210650915

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता-प्रथम



प्रथम अध्याय---
दुख और मोह से पीङीत है दुनिया
गीता का प्रारम्भ होता है युद्ध के मैदान कूरूक्षेत्र से, जहां कोरव और पांडव अपनी अपनी सेना के पुरी तैयारी में हैं। इसमें ऐसा दिखाया गया आदमी पहले भी कितना चतुर और चालाक था। यहां आपको कुटनीति, राजनीति, रणनिती सभी का दर्शन होगा बस ध्यान से एक एक बात को गहराई से चिंतन करते चले कुछ छुट ना जाये। कहीं ऐसा ना हो की जो काम का हो वो ही हमारे हाथों से निकल जाये और बाकि सब कुछ पकङे रहे। इस बात के प्रति सावधान रहे। और ये बात तो स्वंय भगवान ने भी कही है की यदि में कर्मों में सावधानी ना बरतु तो बङी हानि हो जाये। अगर हम भी सावधान नही रहेंगे तो कोई हानि तो होगी ही। इसलिए सचेत रहे सजग रहे। गीता शास्त्र ऐसा सागर है जिसमें से हर व्यक्ति को अपने अनुसार वो सबकुछ मिल सकता है जिसकी उसे जरूरत है। और यह भी देखना है कि आज ही नही पहले से ही यह मानव किस तरह अपना काम निकलवाने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता था। लालच और स्वार्थ ऐसा है कि राजा धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो रही है कि युद्ध के मैदान क्या हो रहा है। इतनी उत्सुक्ता हो रही है लङाई देखने की और यह भी पता है कि यह कोई आम युद्ध नही है इसमें लाखों लोग मारे जाने वाले हैं। रक्त की नदियां बहने वाली हैं। और जो भी होगा उसमें उन्ही के बच्चे मारे जायेंगे क्योंकि पाडव और कौरव दोनो ही अपने हैं। प्रथम अध्याय में ही हमारे सामने दोनो बात आ जाती हैं कि एक तरफ युद्ध को देखने के लिए और करने के लिए लालायित हैं तो दुसरी तरफ अर्जुन इतने बङे नरसंहार के परिणाम की कल्पना करके कहते हैं कि हे भगवान में अपने गुरूजनों ताऊ चाचा दादा प्रदादाओं को मारकर भीख लेकर खाना भी कल्याण ही समझता हुं। क्योंकि उनके रूधिर से सने हुए भोगों को नही भोग सकते हैं हम लोग। युद्ध की तैयारी होते हुए ही दुर्योध्न गूरू द्रोण के पास जाता है। यहां यह बात स्पस्ट होती है की कितना चालाक था दुर्योध्न की सेना का सेना पति भीष्म है। और वह सबसे पहले द्रोण के पास गया। और जाकर अपने सेनापतियों की गिनती कराता है और सबसे पहले द्रोण के सामने उनका ही नाम लेता है जिससे की वह खुश हो जाये। वह जानता था कि ये सब लोग लङ तो तेरी तरफ से रहे हैं लेकिन भावना पांडवो की तरफ है। उनका अहित नही करना चाहेंगे। तो वह अपनी साम,दाम,दंडभेद वाली सारी प्रकिया अपनाता है। हर व्यक्ति के जीवन में शंखनाद होता है। महाभारत में भी शंखनाद हुआ। बताया जाता है कि युद्ध का शंखनाद किया भीष्म ने। हर बात के दो पक्ष होते हैं एक अच्छाई दुसरा बुराई, एक धर्म दुसरा अधर्म। लङाई और हिंसा धर्म नही करना चाहता जब भी लङाई हिंसा तकरार कुछ भी कहो वो अधर्म ही करता है। उस समय भीष्म अधर्म के साथ हैं तो शंखनाद भी उन्ही की तरफ से हुआ। उसके पश्चात स्वेत घोङो के रथ पर बैठे श्री कृष्ण महाराज ने पाचजन्य शंख बजाया। स्वेत घोङो पर सवार अर्थात शांत है जब अधर्म बढ रहा है तो धर्म के रक्षा के लिए पंचजन्य बजाकर युद्ध का शंखनाद किया। गीता तो हर कोई पढ सकता है मैं तो सुक्ष्म बातें आपके समक्ष रखने चाहता हुं। अधर्म के साथ कोई भी चलना नही चाहता हर कोई बचता है। संजय बताता है कि महाराज वह शंखनाद ऐसा हुआ कि आपके पक्ष वाले योद्धाओं के ह्रदय विदीर्ण कर दिये भयभीत कर दिये। यह बात समझने की अब तो संजय भी कौरव पक्ष को अपना नही मान रहा। अगर कोई नोकर मालिक के पास बैठा होता है तो वह यही कहता कि हमारा पक्ष। लेकिन संजय को भी ज्ञात था कि ये सब गलती पर है पाप के साथ हैं अधर्म के साथ है और कोई नही चाहता की मैं पाप का साथ दुं वही किया संजय ने।
इसके पश्चात कितना गहरा रहष्य है कपिध्वज से संबोधित किया है यहां अर्जुन को। अर्जुन कहता है की हे कृष्ण में इस सेना को देखना चाहता हुं। कपिध्वज यानि की जिसकी झंडे पर पताका पर हनुमान जी है यह प्रतिक है। हम सब भी किसी ना किसी प्रतिक के साहरे चलते हैं। गीता में यह दर्शाने की क्या जरूरत थी लेकिन उन्होंने समझी थी क्योंकि जिस प्रतिक के साहरे हम चल रहे हैं उसके गुण भी तो हमारे अंदर होने चाहिए ना। हनुमान जी जिन्होंने अधर्म के विरूद्ध पाप के खिलाफ 100 योजन का समुंद्र लांघ कर रावण की गुफा जहां पर यमराज भी आने से कतराते थे वहीं पहुंच गये थे। और अर्जुन ध्वजा पर हनुमान जी का प्रतिक लगाया है लेकिन अब असमंजस में पङ गया और ऐसी घङी में जब युद्ध का शंखनाद हो गया तब देखने की इच्छा कर रहा है। सब बातें भुल गया की ये वही लेग हैं जिन्होंने द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयत्न किया था और धोखे से लाक्षाग्रह में जलाकर मारने की कोशिश की। और भगवान भी कम नही थे उसके रथ को ले जाकर भीष्म और गुरू द्रोण के सामने खङा कर दिया और उनकी तरफ उंगली करके कहते है कि देख ये सब हैं जिनसे तुम्हें युद्ध करना है। अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो रथ को दुर्योध्न कर्ण और दुशासन के सामने खङा करते और जिसे देखते ही अर्जुन का खुन खोल उठता। चाहे कितना भी कायर हो डरपोक हो लेकिन दुष्मन को सामने देखते ही मारने की सोचता है। लेकिन भगवान ने रथ खङा किया भीष्म के सामने जिसके हाथों से अर्जुन ने खाना सिखा, कपङे पहनने सिखे। गुरू द्रोण जिसने धनुष पकङना सिखाया तरकस टांगना सिखाया और आज उन्हीं के सामने धनुष लेकर खङा होना पङ रहा है।
उन सब को देखकर कहते हैं कि अर्जुन को मोह सा हो गया लेकिन स्वंय अर्जुन ने कहा है कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता। अर्थात कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला में धर्म के विषय में मोहीत हुआ आपसे पुछता हुं। और यहां पर जब उसने सारी सेना देखी की सब अपने ही हैं और इतने शक्तिशाली की सभी के पराक्रम से परिचित भी था। तो उसे कुछ मोह भी हो गया और भय भी हो गया। यहां पर कई लोग कहते हैं कि वह मनोरोगी हो गया था। यह भी संभव है क्योंकि मनोरोगी वही होता है जिसका कहीं ना कहीं शोषण हुआ हो या कुछ छिन गया है। और ये दोनो बात ही अर्जुन के साथ घटित हुई इसलिए मनोरोगी हो गया। और कि इन सब लोगो को मारकर राज्य भोगने से बेहतर तो ये ही होगा की धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्र रहित को मार डालें वह भी कल्याण कारक होगा। कितना भयभीत हो गया की हाथ से हथियार छुट रहा है शरीर काप रहा है मुख सुख रहा है त्वचा जल रही है। ये सब भय के ही लक्षण है मोह के नही। और इसी भय को छिपाने के लिए कितनी दुर तक की बातें बताने लग जाता है भगवान को ये मत समझना की ये सिर्फ अर्जुन के जीवन की घटना है हम सबके जीवन में भी यही सब हो रहा है। कहता है की अगर सब लोग मर जायेंगे तो कोन पुर्वजो के पिंड दान करेगा और सारी स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी और वर्णशंकर पैदा होगा। वह इस भयानक युद्ध से बचना भी चाह रहा था लेकिन यह भी सोच रहा था कि कोई यह ना कहे की डरकर भाग गया है। और कहता है कि हम बुद्धिमान होकर भी इस महान पाप करने को तैयार हो गये और एक आह सी निकलती है उसके मुंह से जिसका स्पस्ट वर्णन किया है कि हा शोक.......। जैसे पता नही कितना बङा जुलम करने जा रहा हो। आज यह युद्ध अर्जुन को पाप लग रहा है ना जाने कितने युद्ध किये और कितने लोगो को मारा तब पाप नही था। सब राज्य और सुखों को छोङकर वन जंगल में रहना ही पसंद करता है। साफ कह देता है की मुझसे युद्ध नही होगा। अब जरा चिंतन करो की क्या हम अपने जीवन में आये दिन किसी ना किसी जिम्म्दारी से पलायन करने की नही सोचते और उसका ठिकरा किसी और के सिर फोङते हैं। ऐसा युद्ध हमारे अंदर चलता ही रहता है और हमारा मन है कि कोई ना कोई बहाना बनाकर युद्ध से बचता रहता है और बातें घङने की आदत सा बन गयी है लेकिन जैसे हमारे पास कोई ऐसा नही है इससे हमें निकाल सके क्योंकि जो निकाले वह पहले ही ऐसा होना चाहिए जो इस समस्या से मुक्त हो। वहां तो भगवान थे कोई आम आदमी नही स्वंय भी उलझा रहे। भगवान ने पहले अध्याय में कुछ नही बोला क्योंकि जो व्यक्ति अपनी गलती छुपाने की कोशिश करता है वह सामने वाले को बोलने का मौका कम ही देता है। और सोचता है कि बस मेरी सुने और मान जाये। यहां तक पहला अध्याय है कि धनुष बाण सब छोङकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। इतना तनाव में पहुंच गया कि कुछ समझ ही नही आ रहा कि क्या करूं और क्या ना करूं। यह देखो ना कि जब आदमी किसी काम से बचने के लिए आत्महत्या करने तक की बात करने लगे तो कैसी स्थिती होगी कल्पना मात्र से ही सारे बदन में सिहरन सी दोङती है। भगवान सारथी भी है और अर्जुन के सखा भी है। पहले अध्याय को विषाद योग कहा गया है यानि की दुख का मिलना । और जब हम अपनी जिम्मेदीरियों से पलायन करेंगे तो दुख और विषाद तो प्राप्त होगा ही। अर्जुन को इतना भारी तनाव गलत नही हुआ था क्योंकि एक सैनिक होने के बाद भी वह युद्ध से बचने के रास्ते खोज रहा है तो क्या होगा अगर कोई शिक्षक, डाक्टर, इंजिनयर कोई भी अपने काम से अपने फर्ज से पलायन करेगा तो उसका परिणाम भारी तनाव और विषाद का योग तो भोगना ही पङेगा । शिवा तोमर-9210650915

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता



विस्व का सबसे पवित्र और प्राचीन ग्रंथ है श्री मद्भगवद्गीता। नाम तो इस शास्त्र का संसार के बहुत से लोगों ने सुना होगा लेकिन इसका अध्ययन किया होगा 4-5 प्रतिशत ने ही। और अगर दर्शन करने की बात की जाय तो हजारों में किसी एक ने इसका यथार्थ रूप से दर्शन किया होगा। लोग इसे पढना नही चाहते पलायन करते हैं इससे। और अपने को सही साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी बताते हैं। कोई कहता है कि ये तो हिंदूओं का शास्त्र तो कोई कहता है कि ये तो साधु संतो के लिए है, तो कोई युद्ध की जङ बताते है, कहते हैं कि अर्जुन तो युद्ध करना ही नही चाहता था कृष्ण ने यह उपदेश देकर कितना बङा नरसंहार कराया। मंदबुद्धि लोग ऐसे बाते करके ही इसके अध्ययन करने से बचने लगे।
यह भी सत्य है कि यह युद्ध क्षेत्र में दिया गया उपदेश है। लेकिन भगवान का मकसद युद्ध कराने का नही था, नही तो भीम और अर्जुन को कहीं भी भङका कर युद्ध करा सकते थे। लेकिन भगवान ने यह कहा है हे अर्जुन यह योग तो मैंने कल्प के आदि में सुर्य को दिया था ऐसा नही है कि तुझे ही दिया है। लेकिन अब यह लुप्तप्राय हो गया है इसलिए मैं तुझे यानि कि तेरे माध्यम से फिर दे रहा हुं। जिससे सभी का कल्याण हो सके। इसकी आवस्यकता तो सभी मनुष्यों को थी और रहेगी। और जब जब लोग इससे विमुख होगें तो ऐसे ही भृष्टाचार अपराध हिंसा और व्याभीचार में वृद्धि होगी ही। ये बात नही है कि अर्जुन को यह लङाई करने के लिए दिया था। यह उपदेश तोङने के लिए नही जोङने के लिए है। नफरत के लिए नही प्रेम और सदभावना के लिए है। श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही ऐसे बातों से होता है कि जिससे ज्ञात हो कि कितनी अज्ञता भरी पङी थी लोगो में। धृतराष्ट्र कहता है हे संजय कुरूक्षेत्र में मैंरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया है क्या कर रहे हैं वो। जहां श्री कृष्ण स्वंय मोजुद हो भीष्म, गुरू द्रोण, कृपाचार्य, और राजा स ऐसी बात करें तो कितना गलतो हो सकता है। तेरे मेरे की ओर पाडुं पुत्र तो उन्हें सर्वस्व ही समझते थे लेकिन मोह और लोभ में अंधा धृतराष्ट्र के मन में तेरे मेरे की दीवार बन गयी थी। तो ही ऐसी बात कर रहा था। तो देश समाज इमानदारी और इन्सानियत का क्या होगा हर तरफ मारा मारी हर तरफ खुन खराबा ही होगा। एक राजा के अंदर ऐसे भाव तो क्या होगा समाज का ऐसी स्थिती में गीता का उपदेश दिया गया था। जिससे ऐसे भाव समाप्त होकर सदभावना जागे।
मैंने लिखा है जीवन का श्री मद्भगवद्गीता। मैं कोई ज्ञानी नही हुं बस उस महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का आभारी हुं जिन्होंने ऐसा विवेक दिया और मैंने गीता अध्ययन किया और इसमें पाया की यह तो जीवन का आईना ही है। यह हमें ऐसा दिखाती है जैसे हम होते हैं। मैंने कभी भी गीता को इस तरह से नही पढा की जैसे ये अर्जुन को सुनाई थी मैंने तो सदा इसी भाव से पढा जैसे ये मेरे लिए ही हो और मुझे ही सुनाई हो। गीता पढने का अपना लाभ है मैं ये नही कह रहा की लाभ नही है। यह तो दिव्य है अलौकिक है निर्मल है । इसके स्पर्स मात्र से ही कल्याण हो जाये। लेकिन जो भगवान ने आदेश दिया है उस पर चले बिना कैसे मंजील तक पहुंचेगे। जैसे सङक पर चलने के लिए कई दिशा निर्देश लिखे होते हैं जैसे लाल बत्ती हो गयी, कहीं पर बोर्ड पर लिखा होगा की प्रवेश वर्जित है, तो कही लिखा होगा की गाङी खङी ना करे ये सभी निर्देश हमारी सुरक्षा के लिए जिससे हम अपनी मंजील तर जल्दी और बिना किसी कष्ट के पहुंच सके इसिलिए बनाये हैं।
गीता को कहानी की तरह से नही पढना है बल्कि उसमें दी गयी शर्तों के अनुसार ही पढना है तभी हम अपनी मंजील कर पहुंचेंगे। भगवान ने कदम कदम पर संकेत दिया है ये नही करने या ऐसा करोगे तो लाभ होगा लेकिन हम वो संकेत तो देखते ही नही और अपनी गाङी को 100 की रफ्तार से भगाते रहते हैं और टक्कर मारते रहते हैं और कोसते रहते हैं कि हम तो भगवान का नाम लेते हैं उनका ध्यान करते हैं गीता भी पढते हैं लेकिन विपत्तियां तो हमारे ऊपर आती ही रहती हैं। अरे भाई जब हम संकेतो को देखकर चलेंगे ही नही तो परेशानी तो आयेगी ही। मेरा यह लिखने का उद्देश्य यह नही है कि किसी को ज्ञान दुं ज्ञान तो सभी के पास है। हो सके किसी की नजर में कोई संकेत आ जाये और हमारी जीवन की गाङी सही सलामत पहुंच जाये अपनी मंजील तक। यह मैं लिखने की कोशिश कर रह हुं अगर कोई त्रुटी हो या सुझाव हो तो जरूर बतायें।

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

हर कोई है असंतुष्ट


क्या अजीब बात है क्यों नही है संतुष्टि,,,,,, यह मैं खाली बात ही नही कर रहा। बहुत अध्ययन किया चिंतन किया मनन किया। तब लिखने का साहस किया है।
और यह किसी एक व्यक्ति की बात नही है बल्कि सारी दुनिया मे मच रही हा हा कार आपाधापी भृष्टाचार और अपराध का आंकङा देखकर सभी बातों पर गहरा विचार किया और खोजने का प्रयत्न किया कि व्यक्ति देश और संसार में इतनी त्राही त्राही क्यों हो रही है।
भगवद्गीता में एक श्लोक है..... किसी विषय का बार बार चिंतन करने से उसकी आसक्ति होती है और आसक्ति से कामना पैदा होती है कामना अर्थात पाने की लालसा। और जब कामना पुर्ण नही होती तो असंतुष्टि होती है। और व्यक्ति कुछ भी कर बैठता है। चाहे वह कितना भी जघन्य अपराध ही क्यों ना हो।
अगर स्वभावत: यह बात किसी से पुछी जाय तो शरमा शरमी हर व्यक्ति कहता है कि मैं तो बिलकुल संतुष्ट हुं।
लेकिन अगर हम अपने ही अंदर खोजे तो सब असंतुष्ट हैं। कोई करोङो में एक आद होगा जो संतुष्ट होगा। जब बच्चा गर्भ से बहार आता है इतना दुख और कष्ट से गुजर कर बहार आता है होना तो उसे खुश चाहिए लेकिन फिर भी रोता है। और रोता कोन है जो किसी चीज की कामना कर रहा हो। किसी चीज की उसके पास कमी हो अर्थात कहीं ना कहीं असंतुष्ट है।
और भगवान ने गीता में हम सबको कहा भी है कि मुझे वह भक्त प्रिय है जो सदा ही संतुष्ट है। वरना भगवान को क्या पङी थी यह बात कहने की अगर किसी को कोई बीमारी हो जाती है हम अच्छे से अच्छे डाक्टर के पास जाते हैं और बीमारी का इलाज करवाते हैं। लेकिन अपनी इस घातक बीमारी को अंदर ही अंदर पनपने देते हैं, बतायें तो क्या कोई स्वीकार तक नही करना चाहता कि मैं संतुष्ट नही हुं। बल्कि इसको ढांपने के लिए तरह तरह की बातें बताकर यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि जिस बीमारी से सब जुझ रहे है मैं उससे मुक्त हुं।
एक छोटी सी कहानी है। एक साधु बाबा कही भ्रमण पर जा रहे थे जाते जाते रात हो गयी आगे बियाबान जंगल और पुराने जमाने में तो शेर चीते आदि खतरनाक जानवर ऐसे ही खुले घुमते रहते थे। रास्ते में एक बुढिया की छोपङी दिखाई दी और रात काटने के लिए वहां पहुंच गये बाबा। उसने साधु बाबा की अपने सामर्थ्य के अनुसार बङी खातिर दारी और सेवा की।
जब रात को खाना खाकर विश्राम करने लगे तो बाबा बोले की तुमने मेरी बहुत सेवा की है और तेरे पास कोई कमाने वाला भी नही है। जो मुझे आटा वगैरह भीक्षा में मिला है उसमें से आप भी कुछ ले लो। बुढी माई ने अपने आटे का बरतन देखा और कहने लगी की महाराज सुबह का काम चल जायेगा और सांय को ऊपर वाला देगा। देखा कितनी संतुष्टि।
बाबा को यह बात सुनकर बङा आश्चर्य हुआ कि हम तो बाबा होकर भी संग्रह करते रहते हैं और और इसके पास कुछ है ही नही फिर भी कितने मजे में है। ना कोई चिंता है ना कोई फिक्र।
यह है सच्ची संतुष्टि। अगर कोई चीज हमारे पास नही है या इसका अभाव है और हम कहे कि मुझे उसकी कोई इच्छा नही है इसे संतुष्टि नही कह सकते।
जैसे कोई शाराब का सेवन करने वाला जेल चला जाता है (ये बात मैं सिर्फ सुनकर नही कह रहा है गहरा चिंतन किया है) और वहां तो शाराब या कोई भी नशा का सामान मिलता ही नही और वो महिना दो महिना शाराब या कोई भी ड्रग्स छोङ दे और कहे मुझे इच्छा नही है मैं संतुष्ट हुं तो कोरी बात है कोई भी विस्वास नही करेगा।
यहां किसी एक की बात नही हो रही है मानव स्वभाव की बात हो रही है मानव मन की बात हो रही है।
यहां एक बात को और साफ करना चाहता हुं कि असंतुष्टि सिर्फ धन दौलत और पैसे की हा नही होती। आदमी असंतुष्ट लोभ, भय, क्रोध, वासना किसी से भी हो सकता है। जरा देख लो इस लोभ के कारण ही उचित या अनुचित तरिके धनादि का संग्रह करते हैं। और मान लो किसी को आप या कोई भी समझाये तो कहेंगे कि अगर हम लोभ की इच्छा नही करेंगे तो अपने क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो या नोकरी या शिक्षा कैसे आगे बढेंगे कैसे तरक्की करेंगे।
लेकिन समाज सुधारकों ने बुद्धिजीवियों ने इसका खंडन किया है लोभ से तो हम अपने अंदर बैचेनी, व्याकुलता और स्वार्थ को बढा रहे हैं। जो भी हमारी कामनाए हैं उसमें लोभ की कामना ना करें उसके प्रति बस प्रयास करें की लाभ कैसे हो और वो भी किसी कि सुख शांति भंग ना करके।
दुसरा सबसे बङा कारण असंतुष्टि का,,,,, हमारे अंदर की वासना है।
एक ऐसा भाव जो सभी के अंदर है जिससे कोई भी बचा हुआ नही है। चाहे लाख छिपाने की कोशिश करे लेकिन छिपा नही पाते। कोई कहां तक बताये कि कितनी असंतुष्टि है। हां ये हो सकता है कि कोई थोङा ज्यादा तो कोई थोङा कम असंतुष्ट हो।
अर्जुन भगवान से पुछते हैं हे प्रभु यह मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। भगवान कहते हैं कि यह काम ही पाप है, हिंसा है, अपराध है काम यानि कि कामनाएं।
और यह बहुत खाने वाला भोगों से कभी ना अघाने वाला है। संसार में अपराध, हिंसा, नशा और सैक्स में वृद्धि का कारण ये असंतुष्टि ही है।
एक और छोटी सी कहानी है एक आदमी बेचारा नोकरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहा था। एक दिन उसकी बीबी ने कहा कि घर में एक टीवी आ जाये तो कितना अच्छा होगा। उस भले आदमी के अंदर अब इसका ही चिंतन चलता रहता कि भगवान बस टीवी आ जाये। और कामना पुर्ण हुई भी टीवी आ गया।
अब वह अपने एक दोस्त से बोला की भाई बस एक स्कुटर और मिल जाये तो बसों के धक्के खाने से छुटकारा मिल जायेगा। उसकी यह भी इच्छा पुर्ण हुई और एक स्कुटर भी आ गया। एक कामना पुर्ण नही होती की दुसरी सिर उठाकर खङी रहती। एक के बाद एक बस हर पल बैचेन रहने लगा उसके जीवन की सुख शांति छु मंत्र हो गयी। सारा दिन इधर उधर भागता रहता मकान बन गया एक कार खरीद ली एक फैक्टरी भी लगा ली। घर में सब ऐसो आराम का सामान आ गया। बस अपने दोस्त से एक दिन बोला की भाई बस भगवान एक फैक्टरी और लगवा दे तो बेटे को देकर बस हम दोनो पति पत्नि आराम से अपनी फैक्टरी में गुजारा कर लेंगे। अरे बाबा कहां संतुष्ट होगा यह मानव चाहे कितना भा मिल जाये फिर भी पागलों की तरह भागता रहेगा। कभी भी तृप्ति नही होती। कोई ना कोई उत्कंठा बनी ही रहती है। और उस भले आदमी को बस इसी तनाव में कि ये मिल जाये आज ये मिल जाये एक दिन दिल को दौरा पङा और भगवान को प्यारा हो गया।
कोई भी व्यक्ति जो उसके पास है उससे संतुष्ट नही है बस कहीं से ना कहीं से और ज्यादा प्रप्त हो जाये इसी उधेङ बुन में ही लगा रहता है। और अपनी संतुष्टि के लिए उचित या अनुचित कोई भी कार्य करके जिस वस्तु व्यक्ति या किसी और पदार्थ की कामना करता है हासील करने का भरकस प्रयास करता है। साम दाम दंड भेद वाली सारी नीति अपना लेता है।
इसी बात का खंडन भगवान ने गीता में ही किया है कि जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन यापन के लिए संग्रह करता रहता है विवेकी पूरूष भी उसी तरह लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। इस तरिके से ही हम संतुष्ट हो सकते हैं। लेकिन लोक संग्रह या परमार्थ तो कही रहा ही नही बस स्वार्थ ही स्वार्थ चारो तरफ मुंह बाये खङा रहता है। और हम अपनी असंतुष्टि पुर्ती के लिए अपनी तामसी बुद्धि के कारण अधर्म को भी धर्म मानकर जो भी हमें चाहिए उसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं।
इसे पढकर आप कृपा अपने विचार जरूर बताये।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

भय का सर्वथा अभाव


कोई भी जीव,,,, मनुष्य हो या जीव जन्तु या देवता कोई भी भय में नही रहना चाहता। हर कोई निर्भय रहना चाहता है। और हम सबके अंदर जो सबसे ज्यादा है अगर हम अपने अंदर की खोज करें तो या थोङा सा ध्यान करें तो ज्ञान होता है कि भय की मात्रा ही सबसे ज्यादा है। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में भी इसका बहुत बार वर्णन किया है। कि हे अर्जुन तु भय मत कर। जब अर्जुन जैसा योद्धा महावीर शक्तिशाली व्यक्ति और जिसका संचालन स्वंय भगवान कर रहे हैं उसे भी भगवान को बार बार कहने की आवस्यकता पङी की तु भय मत कर। हर व्यक्ति चाहे वह अमीर हो या गरीब व्यापारी हो या अधिकारी सब भयभीत हैं। एक आदमी की ही नही देश और विस्व की भी ही हालात हैं।
एक देश दुसरे देश से डरता है कि कहीं अटैक ना कर दे।
और इसका दर्शन हम और आप बखुबी कर सकते हैं। कि आये दिन हर देश अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन करके हथियार मिशाइल आदि को दिखाकर यह दर्शाना चाहते हैं कि किसी से डरते नही हैं। कितना भी छोटा आदमी हो या बङा डर में जीवन व्यतीत कर रहे है भय में हैं।
और यही कारण है कि भगवान ने गीता के 16 वें अध्याय के प्रथम श्लोक में प्रथम वाक्य कहा है कि भय का सर्वथा अभाव ................ बिलकुल शत प्रतिशत निर्भय। उन्होंने सबसे ज्यादा जोर भय पर ही दिया क्योंकि इसी के कारण समाज में अराजकता, अलगाव, अशांति असुरक्षा और हिंसा बढती है। हम लोग भी हर समय यही सोचते हैं कि कहीं कोई हमारा अमंगल ना हो जाये कोई अनिष्ट ना हो जाये। इसी भय के बचाव के लिए सब लोग सुबह से रात तक दिन रैन एक ऐसा सुरक्षा कवच बनाते रहते हैं कि कोई भी कैसे भी ना तोङ सके। और इसी प्रक्रिया में हमसे कई अनुचित कार्य ऐसे हो जाते हैं जिससे दुसरों की सुख शांति भंग हो जाती है। और परिणाम भुगतना पङता है सभी को।
जो ये बात कही है कि भय सर्वथा अभाव तो ये गुण भी दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन हुए पूरूषों का बताया है। निर्भय वो ही रहते हैं जो सत्य कहो या प्रमात्मा कहो उसकी छतरी के निचे जो आ जाता वो ही निर्भय रहता है।
हर आदमी अपने जीवन में जीतोङ मेहनत करके धन दौलत शोहरत कमाता है कि कोई भी यह जो भी एकत्रत करता कोई भी किसी और के लिए नही कमाता सिर्फ स्वयं के लिए ही कमाता है। इतनी कुत्ता घसीङी करके पुख्ता इंतजाम अपने अंदर छीपे भय के कारण ही करता है।
एक छोटी सी कहानी है
एक सेठ के चार बेटे थे अपने जीवन काल में कठिन परिश्रम करके सेठ ने फैक्ट्री लगाई बच्चों को पढा लिखाकर कामयाब किया। चारों को अपना अपना व्यापार करा दिया। जब वह सेठ बुजुर्ग हुआ तो बीमार पढ गया। काम कर नही सकता था और बीमारी बढती गयी पैसा पानी की तरह लग रहा था। उसका बङा बेटा बोला की पिताजी सारा नगद पैसा जितना भी था हमारे पास सब लग गया कुछ नही बचा।
सेठ ने कहा बेटा पैसा तो हम बाद में कमा लेंगे एक फैक्ट्री बेच दो। इसी तरह तीन फैक्ट्री बिक गया सारा नगद जाता रहा लेकिन सेठ की हालात में कोई सुधार नही आया। डाक्टर ने कहा कि आखिरी उम्मीद है इसमें खर्चा कुछ ज्यादा ही आयेगा बस आप्रेसन करना पङेगा और सेठ जी की स्वस्थ होने की पुरी उम्मीद है।
सेठ जी की बीबी बच्चे सब इकठठे होकर सेठजी के पास गये।
इस तरह अचानक सबको एक साथ देखकर सेठजी ने उत्सुक्ता से पुछा कि क्या हुआ
सेठानी ने कहा डाक्टर कह रहा है एक लाख रूपये लगेंगे आप्रेसन करना है।
फिर क्या परेशानी है दे क्यों नही देते सेठ जी ने कहा
सेठानी ने बङी दुखी होकर बोली- आपकी बीमारी में सब कुछ बीक गया है तीन फैंक्ट्री सारा नगदी और मेरे जेवरात सब कुछ लग गया । अब हमारे पास कुछ भी नही बचा है बस एक फैंक्ट्री है। तो उसे ही बेच दो। फिर हमारे पास क्या बचेगा क्या खायेंगे हम।
सेठजी ने झल्लाकर कहा की अरे मेरी ही तो कमाई की है तुम लोग क्यों चिंता करते हो।
देखा सेठ जी बीबी बच्चे सब कुछ भुल गया बस अपनी जान की पङी है ये बात एक सेठ की नही है हर व्यक्ति की बात है। जो सारी जिंदगी इतनी मेहनत करके धन दौलत गाङी बंगला बच्चे और सारा सामान इकठठा करता है वो सब अपनी ही सुरक्षा के लिए। क्योंकि भयभीत जो रहते हैं।
ये भय ही हमारी सुख शांति और चैन का सबसे बङा दुष्मन है। भगवान बार बार कहते हैं कि हे अर्जुन तु भय मत कर उन्होंने उपदेश दिया था अर्जुन को लेकिन वो संकेत हमारी सबकी तरफ ही था। लेकिन हम रोज नित्य गीता पाठ भी करते हैं। उनके संदेश को भी पढते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि फिर भी हम भयभीत रहते हैं डरे रहते हैं। पता नही क्युं। या तो हम आसुरी प्रवृत्ति के हैं या फिर हमें पता ही नही है की हमें इस समय क्या बीमारी है।
अशांति का एक और सबसे बङा कारण है कि हम अपने अंदर इस घातक बीमारी को छीपा कर रखे रहते हैं। और इसकी किसी को जानकारी भी ना हो ये ही कोशिश करते हैं।
हमें सबसे पहले इस बात पर विस्वास करना है कि जो भी हमारी जिंदगी में अराजकता, अलगाव, अशांति, बैचेनी, चिङचिङापन रहता है उसका कारण ये भय ही है। और कब यह हमारें अंदर प्रवेश कर जाये हमें ही नही पता चलता।
और हम इसके शिकार होते चले जाते हैं। जब हमें कुछ ज्ञान ही नही रहेगा की कोन आ रहा है या जा रहा है तो हम किससे सावधान रहेंगे। लेकिन भाईयों अर्जुन ने तो स्वीकार कर लिया था कि मैं भयभीत हुं। हममे में से कोई भी इस बात को कबुल नही करता की भय हमारे अंदर अपने पैर पसार चुका है।
हर आदमी के अंदर है ये ऐसा नही है कि मेरे अंदर नही है बहुत है लेकिन मैं इसे खोजने का प्रयत्न करता हुं की ये कहां है कहां छुपा हुआ है। जैसे कोई चोर घर में घुस जाये और उसे लगे की कोई खोज रहा है तो किसी ऐसे कोने में जाकर बैठ जाता है जहां उस पर हमारी नजरें नही पङती। ये भय भी ऐसा ही करता है कहीं छुपकर बैठ जाता है।
जब भी ऐसी परिस्थती आती तो मैं ये ही खोजने की कोशिश करता की ये आया कहां से है और कहां अंदर छुपकर बैठ जाता है। तो इसके छुपने का स्थान मन ऐसा करता की कुछ अनिष्ट होने वाला है।
तो सबसे पहले बात आती अपने घर परिवार की कहीं कोई घटना का शिकार तो नही होने वाला लेकिन जब और गहराई में जाकर खोजा तो पाया की हमें अपने से ज्यादा डर किसी और का है ही नही। बस हर समय ये ही रहता है कि मेरा कुछ अनिष्ट तो नही होगा। इसका क्षेत्र सबसे ज्यादा मैं तक ही है। अगर किसी की फिक्र भी करता है या किसी के प्रति भयभीत भी होता है तो उसमें भी मैं का ही स्वार्थ होता है। मेरे मां पिता भाई बहन जमीन जायदाद बीबी बच्चों को कुछ हो ना जाये। जो मैं ये लिख रहा हुं कटु सत्य है जिसे कोई भी स्वीकार नही कर पाता क्योंकि सच्चाई से सभी को डर लगता है।
अब बात आती है कि ये भय हमारे अंदर प्रवेश कैसे और क्यों करता है। नहीं तो सब भाई सोचेंगे की बात तो इतनी गहरी कर रहा है समस्या भी सभी की है। दुनिया का एक बहुत बङा हिस्सा इसी से पीङीत है। और ये नही बता रहा कि कि इस घातक बीमारी से कैसे निजात मिले कैसे छुटकारा हो। तो जैसा मैंने अनुभव किया है की आखिर ये आता कैसे है।
इसका मुख्य कारण है अज्ञान............. यह एक ऐसा पर्दा है एक ऐसा ऐनक है जो सिर्फ अपने अनुसार ही हर चीज का दर्शन कराती है। मन अपने ही अनुसार देखता है। बुद्धि की कभी सुनता ही नही। और मन डरता बहुत है जैसे एक चोर होता है कितना डरता है बिलकुल उसी तरह ही डरता है हर किसी पर शक करता है। और जहां शक होता है संदेह होता है वहीं पर असुरक्षा भय अशांति तो आ ही जाती है। भय से मुक्ति का बस एक ही उपाय है ज्ञान। जब भी यह चोर हमारे अंदर प्रवेश करने की कोशिश करे तो सावधान रहो बस यह इतना शक्तिशाली नही है बस जैसे चोर सिर्फ खांसी सुनकर ही भाग जाता है ये भी फिर हमसे दुर ही रहेगा। बस अपने अंदर ज्ञान का एक छोटा सा दीपक जलाओ और इस बीमारी से मुक्ति पाओ।

जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

दिवाली पङ रही है फिकी



दिवाली का नाम आते ही सब लोग खुशियों से झुम उठते थे। और आंखो के सामने अस्तबाजियां, बम फोङना और मिठाईयां बांटना घुमने लगता था। और इस त्योहार की हम सब महिनों पहले ही तैयारियां करने लगते थे। इस पावन त्योहार का वर्णन प्राचीन काल से शास्त्रों में भी होता आया है। आज के दिन लक्ष्मी जी की विशेष पुजा की जाती है। और कहते हैं कि इस पुजा करने के बाद लक्ष्मी जी खुश होकर हमारे घरों में निवास करती है। मैं जब छोटा करीब 7-8 साल का हुआ करता था ये उन दिनों की बात है। एक महिना पहले से ही मां से पुछने लगते थे कि दिवाली कब है क्योंकि चार दिन की छुट्टी होती थी। सब बच्चे मिलकर खुब मस्ती से खेलते कभी किसी के घर जा रहे तो कभी किसी के। हम सारे गली के बच्चे सुबह जल्दी से ही हाथों मैं छोटी छोटी सी बंदुके लेकर पटाखे छुङाने शुरू कर देते थे। अब तो सुबह इतनी ठंड नही पङती लेकिन दिनों सही ठंड पङती थी सुबह सांय। मम्मी मुझे कहती रहती थी कि बेटा अभी बहार मत जाओ शर्दी लग जायेगी जुकाम हो जायेगा। लेकिन बच्चे किसी की नही मानते थे। और सांय को कोई खिल बांटता था तो कोई मुरमुरे कोई मिठाई। लोग नोकरी से छुट्टियां कर कर के अपने घर आते थे। कितना मजा आता था। बस अब तो वो दिवाली यादों में ही रह गयी है।
होली दिवाली ईद दशहरा सब त्योहारों की खुशियां हमारे स्वार्थ ने निंगल ली है।
क्या करें कोई मिठाई खरीदने से भी डरता है क्योंकि खोया घी सब नकली बनाने लगे हैं लोग। दुसरा इन सबसे भी बङा डर है बम धमाकों का पता नही कहां विस्फोट हो जाये और दिवाली की जगह दिवाला ही न निकल जाये। दो दिन पहले ही पाकिस्तान में आतंकियों ने दिवाली को खुन से लाल कर दिया।
दिवाली दीयों का त्योहार था यानि की सबको प्रकाश दिखाने का दीये जलाना एक मतलब ये भी होता है कि अपनी खुशी में सबको शामिल करने का । लेकिन क्या करे आज तो हम एक दुसरे किसी कि भी खुशी नही देख पाते। मैं किसी एक व्यक्ति की या धर्म सम्प्रदाय की बात नही कर रहा हर आदमी की बात कर रहा हुं।
कुछ वर्षों पहले आदमी के पास कमाई के नाम पर थोङा बहुत ही होता था लेकिन आज बहुत पैसा कमा रहे हैं लेकिन किसी के पास भी वो शांति संतुष्टी नही हैं।
हम सबने अपनी शांति को दिवाली को अपने स्वार्थ तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता की आग में स्वाहा कर दिया।
और अपने को संकिर्ण करते हुए चले गये। जैसे पहले सारे मुहल्ले का साथ खुशियां मनाते थे तो लेकिन कुछ वर्षों पहले अपने परिवार तक सिमट गये। और अब लोग और संकुचीत हो गये घर परिवार की कोन करे परवाह बस अपनी बीबी बच्चे तक ही सिमट गये और हर त्योहार को बस यहीं तक बांध दिया। कहां से खुशियां मिलेगी। खुशियों के तो सारे रास्ते हमने खुद बंद कर दिये।
भगवान ने गीता में कहा है कि हे अर्जुन पृथ्वी से आकाश तक सम्पुर्ण जगत को एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हुं। जब सारे जगत में एक ही प्रकाश है एक ही ताकत है और हमने तो अपनी बुद्धि को ऐसी तामसी बना लिया है कि अधर्म को भी धर्म मानकर बस सोचती है कि जो तु करता है जो तु कहता वो ही ठीक है बाकि सब गलत। जब ये सारा जगत ही एक प्रमात्मा का है तो उसके बिना कैसे हमें खुशी प्राप्त होगी।
अरे दोस्तों दिवाली के अगले दिन होती गोवर्धन पुजा। इस पर तो भगवान ने साफ दिखा भी दिया था कि कोई भी त्योहार या खुशी संकुचित नही है। एक इंद्र को खुश करने के लिए ही ब्रजवासी उसे पुजते थे लेकिन भगवान तो दिव्य हैं विराट उन्होने तो सारे जगत को एक माला में पिरोया हुआ है। तो उनकी तो खुशी भी विराट होगी तो उन्होंने गोवर्धन को ही पुजवा दिया। कोई भी त्योहार को जब भी हम बांधने की कोशिश करेंगे तो परिणाम घातक होगा।
दिवाली का मेरे विचार से एक और गहरा रहष्य है कि आज के दिन लोगो ने इतने दीये जलाए की अगर किसी घर में कोई कष्ट या दुख पीङा हो और वो खुशी नही मना रहा हो तो सबके घर के प्रकाश से उसके घर में प्रकाश पहंचेगा यानि कि खुशियां आंयेगी।
दिवाली हो या कोई भी त्योहार हो सिर्फ मिठाई बांटने तक ही नही है। इन पावन दिनों का मतलब है कि जो हमने अपने स्वार्थ वस जो दीवारें खींच रखी हैं उन सबको तोङकर प्रेम से गले मिलों और एक हो जाओ क्योंकि हम सब एक ही माला के मोती है। जब से बिखरें हैं तभी से ही अलगाव अशांति अराजकता असुरक्षा, और भय में जी रहे हैं।
हर त्योहार आज फीका पङता जा रहा है। चाहे वह दीवाली हो या होली या फिर ईद। इनको एक बार फिर हम सबको ही मिलकर ही रंगीन करना होगा। आज अपने अंदर ऐसे दीपक जलाओ जिससे वो सारा अंधकार दुर हो जाये जिससे ये सब हमारी खुशियां फिकी पङ गई है।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

काहे का अभिमान


अभिमान यह एक ऐसा भाव है जो हर मनुष्य के अंदर भरा होता है। इसके भाव से भावित रहता है। क्या है अभिमान। मैं किसी की कही या लिखी बात नही कर रहा जिस समय जो अनुभव होता है उसे शब्द्धों का रूप दे देता हुं। तो बात चल रही है अभिमान की यह होता है या कहा जाय कि इसका क्षेत्र मैं और मेरे में होता है। अर्थात मैं इतना बुद्धिमान इतना बलवान शक्तिशाली इतनी पहुंच वाला मेरा ऐसा मकान व्यापार अच्छी नोकरी मेरे इतने अच्छे बच्चे जो मैं कहुं या जो मैं करुं वह सब सही जो अन्य कोई करे वह गलत। यानि कि अपने को दुसरे की तुलना में श्रेष्ठ समझना तथा दुसरों को तुच्छ समझना।
ये बातें मैंने मोटी मोटी वो लिखी हैं जो सबकी समझ में आ जाये। हर रोज इतनी धर्म की बातें होती हैं सभाए होती हैं। करोङो लोग रोज किसी ना किसी संत या मौलवीयों से धर्म कर्म की बातें सुनते हैं। जो कहते हैं अभिमान नही होना चाहिए अहं नही होना चाहिए। यह हमारे उन्नति के मार्ग में बहुत बङी बाधा है। और वास्तव में यह सत्य भी है। लेकिन हम बार बार अभिमान के वेग में उङते हैं और ठोकर खाकर गिर पङते हैं। जिस पर भगवान की कृपा होती है उसको थोङा बहुत समझ आ जाता है अन्यथा उठने और गिरने का यह क्रम जीवन भर जारी रहता है।
मुझमें भी बहुत अहं अभिमान की गंदगी भरी पङी थी इसके कारण मुझे कई बार बहुत हानि और कष्ट उठाना पङा। लेकिन जब तक भगवान की कृपा का हाथ हमारे सिर पर नही आता तो हमारे आगे अभिमान रूपी पत्थर पङे दिखाई नही पङते। और फिर ठोकर खा जाते हैं। मेरे साथ एक घटना घटी जिसने मुझे प्रभु की कृपा प्राप्त करा दी। मैं 1999 में किसी कारण से जेल चला गया वहां जाकर देखा की लोग कैसे रह रहे हैं कैसे सोते हैं। क्या मैं यहां सोने के लायक हुं अहं भरा पङा था ना यह सब वो ही कह रहा है। एक बैरिग में करीब 100 से भी ज्यादा लोग सोते रहते थे। सारी बातें मुझे याद आ रही थी क्या कमी है हमारे घर में। मैं वहां के माहोल को बिलकुल भी अपने लायक नही समझ रहा था और यही कारण था कि किसी से भी बात नही करता। प्रमात्मा तो बङे शक्तिशाली हैं। उनको तो घमंड अंहकार बिलकुल भी पसंद नही है। क्योंकि अहं के चंगुल में फंसकर ही प्रमात्मा से दुर होता है उनसे विमुख होता है। जहां पर 40 आदमीयों के सोने की जगह वहां पर 100 से भी ज्यादा सो रहे फिर भी पता नही क्या वहां मुझे कहा कि यहां से जा बहार जाकर सो। मैंने उससे कहा कि कम से कम बात तो प्यार से कर ले। वह और ज्यादा भङक गया। मैं वहां से चुपचाप निकल गया। सारा दिन तनाव से भरा रहा। मैंने अकेले एक पेङ के निचे बैठकर सोचता रहा कि आखिर यह सब है क्या। ऐसा क्यों हो रहा है। मेरा दिमाग तेजी से चल रहा था। यह कैसी विडम्बना है कि दो दिन पहले ही में अपने घर में आराम से सौ रहा था तो आज ही मेरे पास बैठने के लिए भी जगह नही है। ऐसे हालात बन गया कि एक पेङ के निचे बिलकुल अकेला बेसाहरा अनाथ की तरह बैठा। कोई कुछ पुछने वाला नही। कहां गया घर बार मां बाप भाई बहन यार दोस्त धन दौलत कुछ भी काम नही आया। किस चिज का अभिमान।
फिर मुझे एक घटना याद आयी पांडवो ने इंद्रप्रस्थ बसाया ऐसा भव्य किला कि आज तक कोई दुसरा बना पाया। लेकिन प्रभु की मर्जी की सोने के सिंहासन पर बैठने वाले फुलों पर चलने वाली द्रोपदी जंगल के कांटो पर रहे धरती पर सोये तो हम काहे का अभिमान करते हैं।
दोस्तों ये सिर्फ मेरे ही जीवन की सच्चाई नही हर व्यक्ति के समक्ष प्रमात्मा संकेत देते हैं। लेकिन जिस पर कृपा नही होती वो नही समझ पाते की करोङो की गाङी में बंगले में रहने वाले इस शरीर को एक झटके में ही ऐसा कर देंगे कि जिनको अपना समझता है वो ही इसे आरामदेह विस्तर से उठाकर सफेद चद्दर पर ढांप कर धरती पर लिटा देंगे।

जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर- 09210650915

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

बापु को श्रद्धांजली



सुबह से ही हर अखबार में न्युज चैनल पर बापु को श्रद्धांजली दी जा रही है। सरकार 2 अक्तुबर को इतना खर्च देगी की हमारे सैंकङो गरीब परिवारो को खाना मिल सकता है। जगह जगह बहुत बङी बङी सभायें होगी। सारे नेता बयानबाजी करते देखे जायेंगे बापु प्रतिमा पर पुष्प चढायेंगे। उनके जीवन की चर्चा करके उनके कार्यों की सराहना करके एक दुसरे को हम सबको उस पर चलने के लिए कहेंगे। और कार्यक्रम खत्म हुआ कोन बापु कोन गांधी सब भुल जायेंगे।
क्या यही मकसद था बापु का कि मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर पैसा बहायें और सभाएं करके भाषणबाजी करें।
क्या सोच रहे होंगे बापु रो रहें होंगे कहीं कोने में खङे होकर।
कहीं उनके चष्में की बोली लग रही हैं कहीं किसी और सामान की। सबसे पहले तो ये देखो की बापु ने हमारे लोगो को क्यों नही दी सारी अपनी चीजें जो आज विदेश में बौली लग रही है। अगर इस लायक समझते तो अपने बच्चों को ही देते। कोन पिता चाहता है कि उसकी कोई भी वस्तु किसी दुसरे के घर जाये।
लेकिन दोस्तो बापु को किसी भी चीज से आसक्ति नही उन्होने तो अनासक्त जीवन जीया है। 1892 के करीब बापु 300 रूपये प्रतिमाह कमा लेते थे। क्या कमी थी उनके पास वो भी हम सबकी भांति मोज ले सकते थे। ऐसो आराम का सब सामान तो था ही अपने परिवार के साथ आन्नद से जीवन जी सकते थे।
आज के नेता जो देश को चला रहे हैं जो आज के दिन बापु को पुष्प अर्पित करके श्रद्धांजली देंगे। अगर उनको उनकी पसंद का बंगला नही मिलता तो रहते नहीं। जिस देश में गरीब किसान रोज आत्म हत्या कर रहे हैं। आये दिन ना जाने कितनी मासुमों की चीख से दिल दहल उठता है। पता नही कितनी अबोद्ध बच्चीयां भेङियों की हवस की शिकार हो रही हैं। ना जाने कितने हिंसा का शिकार हो रहे हैं।
वहीं इन सब हालातों से बेखबर हमारे देश के नेता फाईव स्टार होटलों में कई कई महिने मोज करते है।
उनको तो बस आज मौका प्रप्त हुआ है। उस आदमी की प्रतिमा पर फुल चढा रहे हैं जिन्होंने अपनी गरीब जनता की हालात देखी। एक बार बापु सुना है कि उङीसा में चले गये वहां देखा कि औरतों के पास बदन ढांपने के लिए कपङा तक नही है। तो बापु की आंखों में आंसु आ गये। और क्या किया जरा ध्यान देना देश के नेताओं वो कहीं फाईव स्टार में नही गये। जो बापु दो सुती धोती लपेटते थे उनमें से एक को किसी महिला को ओढने के लिए देकर स्वयं एक धोती के दो टुकङे करके एक को लुंगी की जगह बांध लिया तो दुसरे भाग से शरीर के ऊपर के हिस्से को ढांप लिया। ये थे बापु गांधी।
मेरी तो समझ ही नही आ रहा कि मैं उन्हें क्या अर्पित करूं। मेरे पास क्या है उस महान पुरूष को देने के लिए। जिन्होंने अपना ही नही परिवार को भी इस देश को समर्पित कर दिया था। मां कस्तुरबा गांधी कितने दिनों जेल में रही और सुना है कि अंतिम सांस भी जेल में ही ली है। क्या कसुर था उनका क्या पङी थी बिना बात इतना कष्ट उठाने की।
70-75 साल की वृद्धवस्था में आराम करने के दिन फिर भी अन्याय और अत्याचार का पुरजोर विरोध किया और नमक उठाकर नये कानुन की खिलाफत की।
आज बापु मात्र किताबों तक ही सिमित रह गये हैं या फिर भाषणो में। 2 अक्तुबर को विस्व अहिंसा दिवस मनाया जाने लगा। लेकिन क्या विस्व में अहिंसा है। सारी दुनिया उस महान पुरूष को मान रही है। फिर ऐसा क्या है जो बढती हिंसा पर काबु पाने में नाकाम हो रही है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि एक आम आदमी मोहनदास कर्मचंद गांधी को ऐसा कोनसा पारस प्राप्त हुआ था जिससे लोग उन्हें बापु, राष्टपिता कहने लगे और उनकी महानता के ऐसे दीवाने हुए की उस वृद्ध शरीर जिसमें ताकत सिर्फ चलने के लिए ही थी उनके पिछे पागलों की तरह जनता चलती थी। उनके मुख से निकला एक एक शब्द्ध को गुरूमंत्र की तरह मानते थे।
दे दी हमें आजादी बिना खङग बिना ढाल,, साबरमति के संत तुने कर दिया कमाल।
कोनसा सुत्र था वो जिससे उन्हें कभी किसी भी चीज से आसक्ति नही हुई। अनासक्त रहे।
कहां से प्राप्त हुआ सत्य और अहिंसा का मार्ग जिसकी वजह से बापु ने सत्याग्रह किये।
बापु के वाक्य हैं कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इस बात को भुलकर लोग उन पर फुल चढाने में लगे हैं उनके चस्में उनकी लाठी के पिछे पङे हैं। अरे पागलों नादान भाईयों बापु के जीवन में ही वो रास्ता है वो संदेश है जिसको हम उन्हें श्रद्धांजली दे सकते हैं।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

बुधवार, 16 सितंबर 2009

हम तुमसे जुदा होके मर जायेंगे रो रोके



कई वर्षों पहले किसी फिल्म में के गाने में सुनी थी ये पंक्ति कि मर जायेंगे रो रो के। कितना प्रेम दिखाया गया है। कि जुदा हुए तो मर जायेंगे। कैसा अनुठा नाता है। एक दुसरे के प्रति ऐसा भाव इतना प्रेम की आंखो में आंसु और दिल से आह निकल रही है। ये पंक्ति दिल की गहराई से लिखी गयी है। हर आदमी अपने विवेक के अनुसार ही इसका अर्थ निकाल रहा है। इससे संबंधित एक दृष्टांत आता है तुलसीदास जी के जीवन का। एक दफा उनकी पत्नि कई दिन के लिए अपने मायके चली गयी। तो वो उनसे मिलने के बैचेन हो गये तङप गये। जब उनकी जुदाई नही सही गयी एक एक पल काटना बङा ही भारी और दुखद लगने लगा और वही हालात हो गयी कि हम तुमसे जुदा होकर मर जायेंगे रो रो कर। तो वो रात को ही उठकर ही चल पङे। अंधेरी काली रात के सन्नाटे को चीरते हुए तुलसीदास जी कामांधाग्नि की ज्वाला में धधकते हुए पत्नि के मायके की तरफ चले जा रहे थे। रास्ते में एक बहुत गहरी नदी भी थी। जिसे पार करने बहुत ही मुशिकल था। तो अचानक उन्हें कोई चीज तैरती हुई नजर आयी तो वो उसी के ऊपर लपक कर चढ गये। उन्हे यह भी नही दिखाई दिया कि जिस पर बैठकर यात्रा कर रहे हैं वो तो लाश है। वह तो उस वेदना में जल रहे थे जिसने आंखे बंद कर दी थी। यानि की हम सब की आंखो पर अज्ञान का पर्दा डाल दिया। बस उन्हें तो पत्नि के पास पहुंचना था। नदी पार करके पत्नि के घर तक पहुंच गये। अब आगे कैसे जाये दरवाजा बंद सब सो रहे हैं इस बेवक्त जगा भी नही सकता। क्योंकि समाज की लाज शर्म भी तो होती है।
पत्नि के कमरे की खिङकी खुली दिख रही थी। लेकिन चढे कैसे वहां तक। उनकी किष्मत अच्छी थी रात को भी एक रस्सी लटकी नजर आयी तुलसीदास जी उसे ही पकङकर चढ गये। पत्नि ने देखा तो अचम्भीत हो गयी। उसे तो यकिन ही नही हो रहा था कि वो इतनी रात में आ सकते थे। उसने पुछा कि आप कैसे चढे तो तुलसीदास जी ने बङी सहजता से बता दिया कि आपके खिङकी के पास एक रस्सी लटक रही है। जैसे ही उसने आश्चर्य से देखा तो देखती ही रह गयी क्योकि वह रस्सी नही सांप था। उनकी पत्नि भी बहुत समझदार थी उन्होने एक बात कही जिसने तुलसीदास जी को ऐसा मार्ग दिखाया जिससे आज सारा देश ही उन्हे याद करता है। उन्होने कहा था कि
जितनी नियत हराम में उतनी हर में होय,
तो चला जा बैकुंठ को पल्ला पकङे ना कोई।
भाईयों ये वही मार्ग है जिसकी जुदाई में सारा जीवन रोते रहते हैं और मर जाते हैं। लेकिन हम सब अपनी तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता के कारण उन नेत्रों से इसका दर्शन नही करते। जिसका रास्ता तुलसीदास जी की बीबी ने दिखाया था। लेकिन हमने हम सबने अपनी सुविधा के अनुसार ही इसका वर्णन किया। कोई अपनी बीबी की जुदाई में रोता रहा तो कोई अपनी प्रेमिका के गम में कोई धन के वियोग में मर रहा है तो कोई किसी की जुदाई में।
हर व्यक्ति के अंदर से आवाज निकलती है कि तु अपने प्रियतम से बहुत लम्बे समय से बिछुङा हुआ है। और उसी की जुदाई में ही कभी इधर कभी उधर भागता रहता है रोता रहता है। यही तो इतने जन्मों से होता आया है लेकिन क्या करे जहां हमें अपने प्रेमी को खोजना चाहिए वहां तो खोजते नही और बस किसी और से ही अपना काम चलाने की सोचते हैं। कुछ समय तक तो हमें शांति सी मिलती है लेकिन वह शास्वत नही है ध्रुव नही है। वो तो अनित्य है क्षणिक है।
किसी किसी के अंदर थोङी सी चेतना आती है तो वह अपने दिल की तङप को कागज पर लिखकर ही शांत कर लेता है। हम तुमसे जुदा हो के मर जायेंगे रो रो के,,,,,,, और इसे ही गाते रहते हैं। इससे तृप्ति तो होती नही लेकिन जैसे किसी मरीज को नींद नही आती है और दवा देकर डाक्टर लोग थोङा आराम दे देते हैं बस यही हम सब कर रहे हैं।
हम थोङी थोङी सी शांति को वही समझ जाते हैं जिसकी जुदाई में रो रो के मरते रहते हैं। हमें उसे ही खोजने का प्रयत्न करना चाहिए।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

शनिवार, 12 सितंबर 2009

बङे शर्म की बात है- क्या होगा इन लङकियों का



सोनिया गांधी जी शीला दिक्षित जी जबाब दो
कल की एक खबर पढकर दिल भर आया की कैसे हालात हो गये हैं देश के। हमारा युवा वर्ग किस तरह से अपराध और सैक्स के चंगुल में फंसकर अपना भविष्य चौपट कर रहा है। खजुरी खास के एक स्कुल में परिक्षा के दौरान जो कुछ भी हुआ उस हादसे से आज सारा देश तो शर्मशार है ही लेकिन, एक बात और है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के देश की ही आज मर्यादा खतरे में है। हमारे बच्चे आज अश्लीलता के चंगुल में इस तरह फंस गये हैं कि खुले आम लङकियों के कपङे फाङकर अपनी हवश पुरी कर रहे हैं। अभी सरकार ने महिलाओं को 50 फिसदी आरक्षण दिया है। जो 5-7 लङकियां उस हादसे कि शिकार हुई हैं क्या कोई आरक्षण उस क्षति को पुरा कर सकता है। और जो दर्जनों मासुम बच्चीयां उस विभत्सय दृष्य की साक्षी हैं जो अभी सदमें से लङ रही है उनका क्या होगा। जिसने भी वह दृष्य अपनी आंखो से देखा अभी भी याद करके उनके शरीर के रोंगटे खङे हो जाते हैं। जो लङकियां ऊपर सिढियों से गिरती हुई निचे आयी क्या उनमें हिम्मत होगी कि वो पढने के लिए स्कुल जाने का नाम ले। सारे देश में महिला दिवस.महिला कल्याण और बहुत से नामों से पैसा और समय बरबाद किया जा रहा है।
स्कुल कालेजों में योन शिक्षा के माध्यम से भी जागरूक करने का काम किया जा रहा है। लेकिन परिणाम हम सबके समक्ष है। और ऐसा सिर्फ एक स्कुल में ही नही हो रहा सारे देश में ही देख लो जितना भी अपराध, हिंसा, अश्लीलता और व्याभीचार बढ रहा है उस सबमें 80 प्रतिशत कालेज और स्कुल के विधार्थी ही हैं।
समझ नही आ रहा कि किसके हाथ की कठपुतली बन गये हैं लोग... कहां से इतना दिमाग आ रहा है। अश्लीलता को और ज्यादा बढाने का काम समलैंगिकता को स्वीकृति देकर किया जा रहा है।
एक दिन मैं अपनी ड्युटी करके घर जा रहा था तो स्कुल की भी छुट्टी हो गयी। तो बच्चे आपस में बात कर रहे थे मैंने ध्यान से सुना तो उनमें से एक कह रहा था कि अब सरकार और कोर्ट ने थी इजाजत दे दी है होमोसैक्स को। मैंने उससे पुछा कि भाई क्या होता है यह। उसने बङे लापरवाह अंदाज में कहा कि अंकल ज्यादा तो पता नही लेकिन अब लङकियों कि जरूरत नही रहेंगी।
अब आप ही चिंतन करो कि कैसा परिणाम रहेगा योन शिक्षा और समलैगिकता जैसी बातों का हमारे बच्चों पर।
एक दिन मैंने एक अखबार में पढा था कि एक 12 वर्ष का लङका बाप बन गया और लङकी है 14 साल की। ये खबर किसी पश्चिमी देश की थी। देखो तो सही कि दुनिया कितनी तरक्की कर रही है।
सरकार कहती है कि दोषियों को खिलाफ कार्रवाही होगी। सुनते सुनते कान ही पकने लगे हैं। लेकिन क्या करें।
अब खजुरी खास के उस मनहुस स्कुल को खुनी स्कुल कहा जा रहा है। कह रहे हैं कि खुनी स्कुल में नही पढेगी लङकियां। लोगों का गुस्सा थमने का नाम नही ले रहा वहां पर भारी पुलिस लगा दी गयी। इससे ज्यादा कर सकती है सरकार।
जब तक मरीज कि बिमारी का डाक्टर को पता नही चलेगा कि मेरे मरीज को क्या बिमारी तो कैसे ईलाज होगा। यह कितने लानत की बात है कि लोग कह रहे हैं कि हमारी बच्चीयां इस स्कुल में नही पढेंगी। सरकार की बेबशी इससे ज्यादा और क्या देखने को मिलेगी। जनता तो ऐसी है जो सामने है बस वही देखती है। आज एक स्कुल से अपनी बच्चीयों को हटा लेंगे कल ऐसी घटना किसी और स्कुल में हो जायेगी। तो आखिर कहां मां बाप अपनी बेटीयों को सुरक्षित समझे। कितनी भी पुलिस बढा दी जायें थाने बना दिये जाये। यह तो बस ऐसी ही हमारी कोशिश है जैसे कोई महामारी फैल जाये और हर अस्पताल में दुनिया भर के डाक्टर बैठा दे और बिमारी की कोई दवा उनको ना दे तो कैसे होगी बिमारी से मुक्ति ?????????????????
बापु गांधी के सिद्धांतो को सारी दुनिया स्वीकार कर रही है। उनके जन्म दिवस को विस्व अहिंसा दिवस के रूप में भी मनाया जाने लगा। लेकिन हमारे ही देश में कोई भी उनके बताये सिद्धांतो को ना तो ग्रहण ही कर रहे हैं और ना ही कोई उन पर चल रहा है। आज के विधार्थीयों की तरह से गांधी जी भी ईंगलैंड पढकर आये थे। लेकिन उनके जीवन में ऐसा क्या कुछ था जिससे आज सारी दुनिया उनके कर्म, आचरण और व्यवहार को महान मानने पर मजबुर हैं।
जिस आयु के बच्चे आज लङकियों के कपङे फाङ रहे हैं उसी उम्र में उधमसिंह ने कितना महान संकल्प किया था।
विचार करने वाली बात यह है कि दिल्ली ही नही पुरे देश में ही देख लो हर व्यक्ति भय में जी रहा है। डरा हुआ है सहमा हुआ है। कि पता नही किस समय कोनसी घटना का शिकार बन जाये। बङे नेता बङे अधिकारी सब लोग बयान बाजी में पिछे नही रहते एक दुसरे पर वार करते रहते हैं। किसी को किसी से कोई मतलब नही कहीं कोई भावना नही। बस स्वार्थ ही समाया है चहुं और।
इस घटना को देखकर मुझे एक और घटना की याद आयी है जिसे आप हम सबने सुना है। जैसे इस स्कुल में लङकियों को वस्त्रहीन किया गया 5600 वर्ष पहले भी भरी सभा में एक महिला को वस्त्रहीन करने का प्रयास किया था तो परिणाम भी हम सबने सुना होगा।
ऐसी ऐसी घटनाओं से हर कोई चिंतित है परेशान है लेकिन क्या करे किससे कहे अपने दुखङे। क्योंकि कोई इस लायक नही है जो आज हमारे बच्चों के गिरते चरित्र को संवार सके। जो आयु खेलने और पढाई की है उसमें ही वो सैक्स और नशे के आदि होकर समाज की सुख शांति भंग कर रहे हैं।
शिक्षा के साथ साथ जरूरी है बच्चों को संस्कारी और चरित्रवान बनाना। लेकिन जो बात मैंने इतनी आसानी और सहजता से लिख दी है इस पर अम्ल करना और आचरण में लाना लोहे के चने चबाना है।
क्योंकि कोन देगा चरित्र निर्माण की शिक्षा।
जिसका स्वयं का ही चरित्र अच्छा नही है जो खुद ही भ्रष्टता में लिप्त हो वो दुसरो को कैसे पवित्र कर सकता है।
भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि श्रेष्ठ पुरूष जैसा जैसा आचरण करते हैं अन्य पुरूष भी वैसा ही करते है। तो इस बात का भी विचार करो जो हमारे समाज को चलाने वाले वो कैसे हैं उनका चरित्र कैसा है। जैसे शिक्षक हैं, नेता हैं पुलिस अधिकारी हैं, न्यायाधिश आदि हैं।
आज जो भी हालात हो रहे हैं उसमें किसी एक का हाथ नही हम सब उसमें साहयक हैं।
और उससे मुक्त भी हम ही कर सकतें हैं। अन्यथा आज एक स्कुल में घटना हुई है कल देखना आपके सामने होगा। भाईयों मैं तो इस हालात को देखकर दुखी होता रहुंगा और जितना भी हमसे होगा करते रहेंगे।
अब वो समय आ गया है जब उस लहर की आवस्यकता है जो इस सारी भ्रष्टता अश्लीलता हिंसा और अनैतिकता की गंदगी को उङाकर ले जा सके।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

सोमवार, 7 सितंबर 2009

दिव्य अनुभुति



मैंने जीवन में इतना ध्यान किया, इतनी पुजा की बहुत अच्छा लगा। और बुरे से बुरा वक्त युं कट गया कि पता ही नही लगा। यह सब ध्यान और पुजा पाठ का ही परिणाम
था। और मेरा चिंतन मनन भी बहुत हो गया। ऐसी ऐसी परिस्थिती भी मेरे सामने आयी
लेकिन प्रभु की कृपा ऐसी रही की में कभी भी विचलित नही हुआ परेशान नही हुआ। और सुबह गीता पाठ करना ध्यान करना तो मेरे जीवन का मानो एक हिस्सा बन गया हो। लेकिन एक दिन घर पर भगवती कथा पढ रहा था तो उसमें भागवत का भी वर्णन है। उसी में मैने नारद जी के पुर्व जन्म का किस्सा पढा। की कैसे पांच वर्ष के बालक की संतो के सत्संग से लग्न लगी और जब संत उनके गांव से जाने लगे तो नारद जी से नही रहा गया तो पिछे पिछे भाग लिए। जब संतो के गुरू ने देखा नारद जी को अपने पास बुलाया। और उन्हें ध्यान बताया की किस तरह से करना है। और फिर कहा की श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा,,, इससे बढकर संसार में कोई मंत्र नही है। तो मैं उस पुस्तक को पढ रहा था। और मुझे लग रहा था कि जैसे वह संत मुझे ही ज्ञान ध्यान करवा रहा हो। मेरा रोम रोम ध्यान की तरंगो से खिल उठा। और महसुस हुआ कि नन्द लाल श्यामसुन्दर कन्हैया मेरे पास ही है। मैं पुस्तक को एक तरफ रखकर
अंदर कमरें में लेट गया और अपने आप पता नही क्या हुआ आंसु निकलने लगे। चेहरा लाल और शरीर में कम्पन हो रहा था। अंदर से एक आवाज निकली ओ नंदलाल मुझे भी माखन दो। बार बार यही आवाज निकल रही थी। कहां हो कन्हैया कहां हो मेरे श्याम मुझे भी माखन दो। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था। जैसे श्याम कहीं छिपे हैं। और मैं उन्हें ढुंढ रहा हुं खोज रहा हुं। उस पल मुझे कुछ भी नही पता कि मैं कहां हुं दिन है या रात है, कमरें में प्रकाश है या अंधकार। मैं बार बार कोशिश करता हुं कि कुछ याद आये
कि कैसे था उस समय जिससे मैं कुछ उस पल का वर्णन लिख सकुं। भाईयों कुछ पल तो ऐसे भी आये अंत में कि मुझे ये भी नही पता लगा कि मन कुछ बोल भी रहा हा है या नही। अब मैं सारा सार समझ कि वह तो कुछ समय की कुछ पलों की झलक थी। प्रमेश्वर की सत्य की जहां पर कुछ ना तो सुनाई दे ना दिखाई दे ना शरीर का मालुम हो। जहां पर हमें स्थुलता का यानि कि इस शरीर का ज्ञान होगा तब तक सत्य की जानकारी नही होगी। कुछ लोग तर्क बाजी के लिए बातें बना देते हैं कि शरीर बिना कुछ नही होता अगर नाव नही होगी तो इस संसार समुंद्र को कैसे पार करेंगे। लेकिन दोस्तों यह मेरा अनुभव कि मुझे नही पता क्या झलक थी जैसे मैंने लिखा है। कुछ पलों तक तो सारा शरीर तरंगीत रहा, फिर मन ने पुकार की लेकिन बाद में पता नही क्या हुआ। जहां पर शरीर, मन और बुद्धि काम करना बंद कर देतो वहीं से सत्य का रास्ता शुरू होता है। और मुझे नही लगता की कोई इससे आगे लिख पाता होगा। और हो सकता है कि मेरे अंदर इतनी सामर्थ्य ना हो जो मैं उस वेग को सहन कर पाता। उस दिन के बाद भी मैंने ध्यान किया पुजा की लेकिन वह झलक नही मिली। मैं वह झलक पाने की बहुत प्रयत्न कर रहा हुं। लेकिन मुझे इस बात का भी ज्ञान है कि जब तक किसी भी प्रकार का प्रयत्न या कोशिश होगी तो तब तक उस दिव्य आन्नद का अनुभव नही होगा। वह तो जब भी होगा स्वत: ही होगा। लेकिन मन तो पागल है जो एक बार अच्छी चीज देख लेता है उसे बार बार याद करता है। अब तो मैं और भी कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा,,, का जप करता हुं। इसमें भी एक असीम आन्नद है शांति है। मैं तो अब लिखते लिखते भी आन्नद में सराबोर हुं। लेकिन उस दिन के बाद वो झलक वो आन्नद ना तो मैं देख पाया हुं ना लिख सकता।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर

बुधवार, 2 सितंबर 2009

पितृगण की शांति के लिए करे गीता पाठ



हर वर्ष में 15 दिन हिंदु धर्म में पितृ पक्ष की शांति के लिए होता है । जिसे हम श्राद्ध भी कहते हैं। बताया जाता है कि, इन 15 दिनों में हम अपने पुर्वजों को खुश करने के लिए दान करते हैं। पंडितों को खाना खिलाते हैं। और जो कुछ भी हम से बन पङता है सब करते हैं । इसका उल्लेख भगवद्गीता में भी एक जगह आया है। जब अर्जुन महाभारत के युद्ध के दौरान अपने दादा, परदादा, ताऊ, चाचा, मामाओं, पुत्र, पोत्र, और सगे संबंधियों को अपने समक्ष युद्ध में खङे देखता है। तो भगवान से कहता है, कि हे मधुसुदन मुझे इन आततायीयों को मारना उचित नही जान पङता। क्योंकि अगर ये सब लोग युद्ध में मारे गये तो कूल की स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी। और वर्णशंकर पैदा होंगे। जो कूलघातियों को नरक में ले जाने वाले होते हैं। और हमारे पितृ लोग श्राद्ध और तर्पण से वंचित रह जायेंगें। अर्जुन को भी इस बात की फिक्र थी की कोन हमारे पिंड दान करेगा, कोन श्राद्ध करेगा। कहने का अर्थ यह है कि श्राद्ध का हिंदु धर्म में बहुत महत्व है।
जो हमारे पितृ हैं उनकी शांति के लिए उनको खुश करने के लिए आजकल हम सब ऐसा करते हैं। जिससे हमारी कोई मेहनत ना हो। हम सब पैसा खर्च कर सकते हैं। लेकिन किसी के पास भी समय नही है। जिससे कोई ऐसा कार्य हम करें जिससे उनकी मुक्ति हो जाये। जिससे वो परम शांति को प्राप्त हो जाये।
जब अर्जुन ने भगवान को यह अपना तर्क दिया था। तो भगवान ने जो उसे एक उपदेश दिया था। जिससे हमारे पितृ और हम सबका कल्याण हो जाये। उस पर हमने कभी ध्यान ही नही दिया।
भगवान ने कहा था कि, हे अर्जुन तु सब धर्मों को त्यागकर मेरी शरण आजा। तुझे सारे पापों से मुक्त कर दुंगा। तु मेरा अतिशय प्रिय है, इसिलिए मैं तुझे वह उपदेश दे रहा हुं। जिससे परमगति को प्राप्त होगा तेरा कल्याण होगा।
तो भगवान ने फिर गीता उपदेश दिया था। लेकिन गीता उपदेश का तो अर्थ ही लोगों के समक्ष कुछ अलग ही प्रस्तुत किया गया। हमारे पंडितों ने जो बताया। उससे सब लोग इस मानव कल्याण के महामंत्र के पढने और अध्ययन करने से पलायन करने लगे। गीता उपदेश को कहा गया कि यह तो युद्ध का शास्त्र है, या यह तो सिर्फ बुजुर्गों के लिए है या फिर साधु संतो के लिए है। अभी मैने जैसे कई बार किसी अपने युवा भाईयों को समझाने की कोशिश की, तो सवने मुझे ही कहा कि शिवा बाबा जब हम 50 वर्ष के ऊपर जायेंगें तो पढ लेंगे। यह हालात है क्या करें ??????
जरा आप विचार करें की क्या जिसने यह उपदेश दिया था या जिसे दिया था क्या उनमें से कोई भी साधु संत या बुढा था ??? रही बात की युद्ध कराने की तो दोस्तो अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो कितनी बार युद्ध को टाला है। और अर्जुन का रथ भीष्म और गुरू द्रोण के सामने क्यों खङा करते ?? वो उसके रथ को उस कर्ण के सामने खङा करते जिसने उनकी पत्नि को वैश्या कहा था। और भीम को खङा कर देते दुसासन के सामने तो ना तो गीता के 700 श्लोक ही नही सुनाने पङते और सबका खात्मा हो जाता।
भगवान ने जो गीता का उपदेश दिया था तो उसका मकसद युद्ध नही था। वो जानते थे कि अधर्म बहुत बढ गया है और कलयुग आने वाला है अब उस उपदेश की आवस्यकता पङेगी। तो उन्होने तब वह उपदेश दिया था।
श्राद्ध शुरू होने वाले हैं तो हर वर्ष की भांति नही इस बार ऐसा करो जिससे हमारे पितृगणों की मुक्ति हो जाये हम सब पितृ ऋण से मुक्त हो जाये। तो अब सवाल इस बात का है कि क्या करें ???
भगवान ने गीता में 11वें अध्याय में अपना विराट रूप दिखाया है। उसमें दिखाया है कि सबके अंदर में ही विधमान हुं। मुझसे पृथक कुछ भी नही है। जो भी चर अचर हैं। चाहे वे मनुष्य हो या फिर देवता, प्रेत हो या सर्प, वृक्ष हो या पहाङ, पितृ हो या यक्ष किन्नर सब उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित हैं। तो अगर हम रोज नही कर सकते तो जिस दिन श्राद्ध हो तो कम से कम 11वें एक अध्याय का पाठ तो करना ही चाहिए। तो फिर जो पत्र पुष्प जल जो भी हम श्रद्धा से प्रमात्मा को देंगे तो वो सगुण रूप से ग्रहण करेंगे। अर्थात हमारे पितृगणों तक बङी आसानी से पहुंच जायेगा। यह बात में नही अपनी तरफ से नही कह रहा महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने ही कही है।
बस तो आप और हम सब मिलकर करें वह काम
जो हमारे पितृ को ले जाये पुर्ण धाम।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915

सोमवार, 31 अगस्त 2009



पढकर सोच रहे होंगे की कैसा आदमी है सुबह सुबह ही आग की बात कर रहा है लेकिन दोस्तों क्या करें आज हमारे देश की ऐसे ही हालात हो गये हैं हर तरफ आग ही आग दिखाई पङती है कोई भी समाचार पत्र देखो या कोई भी चैनल देखो चारो तरफ खुन ही खुन हिंसा ही हिंसा कही किसी बच्ची की चीख तो कहीं किसी महिला की पीङा की कराह कहीं बीच बाजार में धमाकों से हुए शरीर के लोथङे और खुन ही खुन
है ना चारो तरफ आग ही आग
पता तो हम सबको है देखते पढते सुनते हम सब हैं लेकिन जीवन की व्यस्तता के कारण सबको अनदेखा करके अपने काम में ही लगे रहकर बस अपने परिवार की ही चिंता करते रहते हैं
मुझे एक बात याद आती है मैं उस समय 10-12 वर्ष का था हमारे गांव में एक महिला घर के झगङे में कुएं में डुबकर आत्महत्या कर ली थी उस दिन सारे गांव में सन्नाटा सा छाया रहा एक दहशत सी फैली रही सारा दिन
ऐसा लग रहा था जैसे की सारे ही गांव को ही यह सन्नाटा निंगल लेगा कोई किसी से बात नही कर रहा था हर आदमी चाहे पुरूष हो महिला सब सब डरे हुए थे सहमे हुए थे कोई किसी से बात बात तक नही कर रहा था थोङी थोङी देर में पुलिस चक्कर लगा रही थी
एक बुढा बाहर से आया और कहने लगा की क्या बात है आज तो सारा गांव ही सुनसान लग रहा है
आज भी मुझे उस बुढे की बात याद आती है एक औरत के मरने पर सारा गांव उदास हो गया था लेकिन आज हर रोज पता नही कितनी महिलाएं मरती है और कितनी बच्चीयां की चीख निकलती है तो कितने कत्ल होते हैं लेकिन किसी के ऊपर कोई प्रतिक्रिया नही कोई दुख नही कोई अफसोस नही कि किसी के साथ कुछ हुआ है
चारो तरफ आग ही आग और लोग मजे में रह रहे हैं कहां गई सारी मानवता किसी के अंदर कोई करूणा नही कोई सद्भावना नही बस अपना काम बनता ऐसी तैसी करे जनता
ये मानसिकता हो गयी है
समाज झुलस रहा है देश झुलस रहा है और हम बङे चैन से सो रहे हैं
मुझे तो बहुत बैचेनी होती है क्या करूं सहन नही होता तो बस थोङा भावुकता के आंसु बहाकर या लिखकर ही अपनी भङास निकाल लेता हुं
अभी मैंने एक दिन एक खबर पढी की एक महिला को किसी ने टक्कर मारी वह सङक पर गिर गयी जिसने टक्कर मारी उसने अपनी गाङी को रोका नही बल्कि तेज भगाकर ले गया चलो उसके अंदर तो इन्सानियत थी ही नही वह सङक पर पङी पङी चिल्लाती रही किसी ने उस खुन से लथपथ एक बेबश अबला की चीख नही सुनी किसी ने भी अपनी गाङी को रोका तक नही अरे बाबा रोकना तो दुर रहा किसी ने ऱफ्तार भी कम नही की बल्कि अखबार में तो लिखा था कि उसको कुचल भी दिया था
हे भगवान क्या होगा बस लिख रहा और आंखो से आंसु बहा रहा हुं
हे भगवान हर प्राणी में प्रेम सद्भावना करूणा दया और मानवता जगे जो यह आग फैल रही है इस संसार में इसमें कोई ना झुलसे बससससससससससससस
जय श्री कृष्णा
शिवा तोमर-09210650915

बुधवार, 19 अगस्त 2009

धरती मां के बहते आंसु


आप सब सोच रहे होगे की धरती मां कैसे आंसु बहा रही होंगी और क्यों बह रहे हैं आंसु....
शास्त्रों में वर्णन आता है की एक बार धरती पर अपराध बढ गया ! हर तरफ हिंसा ही हिंसा, अत्याचार, अन्याय, क्रुरता इतनी बढ गयी की आम आदमी का जीवन दुभर हो गया ! आतंकी और अपराधियों का अधिपत्य हो गया ! साधु सन्यासी, सीधे, साधे, गरीब लोग और महिलाओं को अपनी इज्जत आबरू बचाना मुश्किल हो गया ! चारो ओर धरती खुन से लाल हो रही थी !
तो धरती मां हाथ जोङकर भगवान के सामने रोती हुई गयी !
उनको देखते ही भगवान ने पुछा की क्या हुआ धरती मां ?? आपके अंदर तो ममता, प्रेम, करूणा, और क्षमा ही रहती है आज ये आंसु कैसे ??
तो धरती मां ने कहा की प्रभु अब और नही सहा जाता मुझसे यह भार ! मैं जल रही हुं ! मुझे इनके चंगुल से मुक्त करो !
तो प्रभु ने समय समय पर हर युग में धरती मां के आंसु देखकर अत्याचार, अन्याय, और अपराध से मुक्त करके धरती के भार को हल्का किया था !
तो आज भी वही समय है ! जब धरती मां आंसु बहा रही है, रो रही है, गिङगिङा रही है ! नही सह पा रही इतना अत्याचार का भार !
किसी भी तरफ नजर घुमाकर देख लो ! धरती का कोई भी कोना ऐसा बचा हुआ नही है ! जहां पर किसी कन्या की चीख सुनाई नही पङती हो ! कोई दुखी कराह ना रहा हो !
धरती मां एक नारी स्वरूपा है ! करूणा, दया, और ममता की देवी इतनी भोली है की कुछ किसी का विरोध नही कर सकती बस सह सकती है !
आप किसी भी दिन कोई भी अखबार उठाकर पढ लो ! कहीं होगा की एक नव विवाहित ने जुल्म के आगे घुटने टेके और नही कर पायी सहन तो मोत को गले लगा लिया ! तो कहीं किसी ने अपनी एक दिन की बच्ची को कुङे के ढेर में फैंककर मां की ममता को कलंकित कर दिया तो ! कहीं कई हवस के भेङियों ने एक नाबालीग की मासुमियत को रोंद डाला अपनी दरिंदगी से !
ऐसे में क्या करें धरती मां ?? नही सहन कर पा रही है ! और आंसु बहा रही है !
एक दिन अभी दिल्ली की घटना है ! एक औरत को एक कार ने टक्कर मार दी तो ड्राईवर ने गाङी रोकी नही बल्कि और तेज चला दी ! वह महिला करीब 50 मीटर तक घिसटती रही ! इन्सानियत की धज्जियां यहीं पर ही खत्म नही हुई ! जख्मी हालात में वह सङक पर पङी पङी चिल्लाती रही ! लोग अपनी तेज रफ्तार को रोकने के बजाय उसको कुचलते चले गये ! तो क्या बीत रही होगी धरती मां के सिने पर !
एक पिता भी अपनी बच्ची को हवस में रोंद रहा है ! हर तरफ अधर्म इतना बढ गया है कि लोग धनोपार्जन के लिए कितना भी गिरा हुआ काम कर देते हैं ! यहां तक की अपनो के साथ भी विस्वासघात करने से बाज नही आते ! एक गरीब जो एक एक रूपया जोङकर इकठठा करता है उसको भी विस्वास में लेकर छुरा भोंक देता हैं !
आज से 5600 वर्ष पहले भी ऐसा ही हुआ था ! इससे भी खतरनाक समय आ गया था ! धरती मां चीत्कार रही थी !
एक नारी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयास, उस बेबस नारी ने इतने आंसु बहाये लेकिन किसी के ऊपर जुं तक ना रेंगी !
धन के लोभ में अपने ही भाईयों को मारने का भरकस प्रयास ! शाराब और जुआ
हर तरफ अपराध, हिंसा, और क्रुरता तो महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के सामने आंसु बहाये धरती मां ने गिङगिङायी तो ! सबको ही पता है किस तरह से धरती को अपराधमुक्त किया था भगवान ने !
और एक संदेश भी दिया था ! कि जब जब धरती मां पर ऐसा संकट आयेगा ! जब भी धरती मां अपराध और अन्याय के चगुल में फंस जायेगी ! तो उससे मुक्त करने का एक सुत्र बताया था !
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम
अर्थात जब किसी भी युग में धरती मां के आंसु बहेंगे ! तो धर्म की स्थापना यानि की बढते अपराध और अन्याय के वर्चस्व को समाप्त करने लिए तदात्मानं सर्जाम्यहम अर्थात किसी भी आत्मा को ऐसी प्रकाशित कर दुंगा की उसके प्रकाश से सारा संसार प्रकाशित हो उठेगा !
आपने सुना होगा सतयुग में एक राक्षस हुआ करता था हिरणाकष्यपु प्रह्लाद का पिता ! उसने पहले तप किया और बाद में स्वयं को ही भगवान कहलवाना शुरू कर दिया ! और जिसने नही स्वीकार किया उसको दंड देता या मरवा देता था !
उस राक्षस का आतंक समाप्त करने के लिए प्रह्लाद की आत्मा को ऐसा प्रकाशित किया की सब लोग नारायण नारायण जपने लगे ! हां सब लोग छिपकर ही जपते थे ! सब डरते थे कहीं राजा साहब को मालुम हो गया तो कोल्हु में पिलवा देगा !
और सब दिल ही दिल में भगवान से प्रार्थना करते की हे प्रभु हमें इसके चंगुल से मुक्त कराओ इसके कहर से आजाद करो !
और आज चारो तरफ नजर ले जाओ ! कितने लोग ऐसे हैं जो खुद की पुजा करा रहे हैं आरती करा रहे है ! अपने सिंहासन इतने ऊंचा लगवा देते हैं कि इंद्र के सिंहासन से भी भव्य लगे ! और भगवान को बिलकुल गौण कर देते हैं ! और उनके भक्त भी यही कहते हैं सबसे की गुरू ने सब कुछ दे दिया तो ! देखो आज कितने हिरणाकष्यपु हो गये हैं ! जो खुद को भगवान साबित करने में लगें हैं ! तो क्या करेंगी धरती मां आंसु नही बहायेगी तो क्या करेगी !
लेकिन हमने किसी ने भी उस उपदेश पर ध्यान नही दिया ! और बस यही सोच रहे है कि इस आतंक, हिंसा, अलगाव, असुरक्षा, भय, अराजकता, और अनैतिकता से मुक्ति दिलाने के लिए कोई अवतार लेकर प्रभु आयेगें !
अरे भाईयों प्रभु ने जो संदेश दिया था, तदात्मानं सर्जाम्यहम ! उसको स्मरण करो ! और स्वयं को इस अभियान में लगा दो ! जो प्रभु के अवतार लेने का मकसद होता है ! अपराधमुक्त समाज निर्माण और मानवाधिकार रक्षा !
आज हर तरफ अज्ञान के कारण हमारी तामसी बुद्धि अधर्म को भी धर्म मानकर मानवाधिकार के बजाय दानवाधिकारों की रक्षा कर रहे हैं !
अगर हमें प्रभु के उपदेशों पर चलना है ! और धरती मां के आसुंओं को रोकना है ! तो धरती पर होते जुल्म को रोकने का प्रयत्न करो ! बढते अन्याय, अत्याचार, हिंसा अनैतिकता और अश्लीलता को रोकने में साहयक हो जाओ !
जब भी कभी इतिहास में इस बात का वर्णन हो तो धरती मां के आंसु बहाने में हमारा नाम नही आना चाहिए ! उन्हें रोकने में हमारी गणना होनी चाहिए !
जय श्री कृष्णा
शिवा तोमर- 09210650915

रविवार, 16 अगस्त 2009

प्रेम बङा दुर्लभ है


जय श्री कृष्णा
कल मैं औशो की एक पुस्तक पढ रहा था ! उसमें प्रेम और आसक्ति के बारें में बहुत अच्छा वर्णन किया गया है ! उसको पढकर मुझे लगा की ये बात सच ही है की आज के वर्तमान युग में आसक्ति का क्षेत्र बढता जा रहा है, और प्रेम कम होता जा रहा है !
मैं बहुत वर्षों से ओशो की पुस्तकें पढता आ रहा हुं ! और यही कारण है की हर बात का गहराई से चिंतन करता हुं ! जब मैंने इस बात का भी चिंतन किया कि प्रेम तो बङा दुर्लभ है ! हर व्यक्ति अपने ही बारें में सोचता है ! जो हर कोई कहता है की मुझे अपने बच्चों बीबी से यार दोस्त से प्रेम है ! तो ओशो ने कही है की जब तक हम (जिसे प्यार करते हैं) वो हमारी बात मानते हैं ! हमारे मन के मुताबीक चलते हैं ! तो प्रेम रहता है ! जिस दिन (वो ही व्यक्ति जिसे हम इतना प्यार करते) हमारी बात मानने से इंकार दे ! हमारे विरूद्ध चल पङे तो कहां गया सारा प्रेम ! उस दिन हमें बङा कष्ट होता है जिस दिन पहली बार वह ( जिसे हम प्रेम करते थे) हमारी आकाक्षाओं की हमारी इच्छाओं की चिता जलाता है ! उस पर इतना गुस्सा आता है ! की अगर पुलिस का डर ना हो तो सिधी गोली मार दें ! अरे बाबा जब प्रेम था तो इतनी जल्दी नफरत और गुस्से में कैसे बदल गया !
जिस किसी के ह्रदय में एक बार प्रेम का बीज अंकुरित हो जाता है ! वह तो गुलाब के फुल की तरह से बन जाता है ! कि जो भी उसके निकट आयेगा तो खुशबु से सुगंधित हो उठता है !
तो इसका अर्थ हुआ की जो हम सबके अंदर प्रेम दिख रहा है यह कुछ और ही है !
दुसरी एक बात और कही है की हम जितना किसी से इच्छा रखते है और (फलां आदमी जिसे हम प्रेम करते) हैं ! वह हमारी आकांक्षाए पुर्ण करता है तो वह हमें इतना ही प्यारा होता है अर्थात हम उससे उतना ज्यादा प्रेम करता है !
मैंने भी इस पर अपने विचार लिखे और लिखकर आ गया ! तो मेरी बीबी (राधा) ने बाद में पढ लिया ! और उसने भी इस पर अपने विचार लिखे ! वह भी पिछले चार पांच सालों से गीता अध्ययन और ध्यान में रत रहती है !
उसने कुछ तथ्य लिखे ! जिसका में संक्षेप में वर्णन करता हुं ! उन्होनें लिखा है कि, संसार में प्रेम ही प्रेम ही है ! अगर प्रेम नही होता तो ! क्या एक मां रात को 10 बार उठकर अपने बच्चे को दुध पिलाती ! उसके मल मुत्र साफ करती ! माना की सारा संसार स्वार्थी हो गया है ! लेकिन अभी तो उस बच्चे से कोई स्वार्थ पुर्ण ही नही हो सकता ! स्वयं रात को गीले बिस्तर पर सो जायेगी लेकिन अपने बच्चे को सुखे में सुलाती है !
उन्होने दुसरी बात लिखी है की, एक मां अपनी नन्हीं सी बेटी को ऊंगली पकङकर चलना सिखाती है ! सारा काम सिखाती है 18 20 वर्ष तक पाल पोसकर बङा करके फिर विदा करके किसी अनजान के हाथ में हाथ देकर भेज देती है ! लेकिन मां का दिल तो अपनी लाडली के पास ही रहता है और कभी कभी सुबह आवाज लगाती है ! बेटी उठ जा सुबह हो गयी है ! जव उसे होस आता कि बेटी तो चली गयी तो दिल भर आता है ! और इसके प्रेम का जबाब उस बेबस मां की आंखे देती है ! क्या यह भी आसक्ति है !
बातें तो उसने और भी बहुत लिखी है ! अंत में लिखा है की भगवान कहते है की ये सारी सृष्टि मैंने ही बनायी है ! संसार का हर जीव मेरा ही अंश है ! जो इससे प्रेम नही कर सकता जो इसको भी स्वार्थ रूप में देखता है ! तो वह मुझसे क्या प्रेम करेगा !
मैंने रात को जाकर डायरी में लिखने का विचार किया ! जैसे ही मैंने यह पढा तो असमंजस में पङ गया ! जो राधा ने लिखा है उसको भी हम नकार नही सकते ! प्रेम के बिना तो संसार रेगिस्तान बन जायेगा ! मरूस्थल हो जायेगा ! और सारी व्यवस्था ही बिगङ जायेगी !
मैं तो अपनी बात और ओशो के उपदेश को अभी भी 100 प्रतिशत सत्य मान रहा हुं ! क्योंकि अगर हम भावनाओं में बहकर नही बल्कि व्यवहारिकता से देखें ! तो हर तरफ आसक्ति और स्वार्थ ने अपना शिकंजा कस रखा है ! किसी को भी इससे मुक्त नही होने देता !
आप अपनी राय जरूर दे की मैं ठीक हुं या राधा ????????
जय श्री कृष्णा

शिवा तोमर-- 09210650915

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

आजादी पर संकल्प


15 अगस्त
आज आजादी का दिन ! सुबह से ही देश भक्ति के गाने और शहीदों की शहीदी बहुत सुंदर तरिके से दिखाकर लोगों के अंदर देश भक्ति की भावना पैदा करने का काम टी वी चैनल कर रहे थे !
मैं सुबह से ही अपने आफिस में बैठा हुआ अपने ही चैनल का आजादी पर खाश प्रोग्राम देख रहा था !
पता नही बचपन से ही ऐसी क्या बात रही, की आजादी की कोई भी बात सुनकर पढकर ही मेरी आंखों में आंसु निकलने लगते हैं !मुझे नही पता की क्या संबंध है मेरी आजादी से !
आजादी और शहीदों की कहानी देश भक्ति और भारत माता का नाम ही सुनकर अंदर से ही भाव विभोर हो जाता हुं !
मेरे पिताजी भारत मां के सच्चे सिपाही हैं उन्होने 1962 चीन के साथ 1965 पाक के साथ और 1972 बंगला देश वाली लङाई भारतीय सेना की तरफ से लङे थे ! उन्हीं का लहू मेरी रगों में दोङ रहा है ! या कोई और कारण है ! मुझे कुछ समझ नही आता ! बस इतना ही पता है की देश भक्ति की बात सुनकर ऐसा मन करता है की मैं कैसे अपनी भारत मां के काम आ सकता हुं ! और देश में बढती गुलामी से कैसे अपने युवा भाईयों को आजादी दिलाऊं ! आज के युवाओं को देखकर स्वयं से और पर उस युवा पर गुस्सा आता है जो हमारी भारत मां और संस्कृति के विरूद्ध चलते हैं !
भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, मंगलपांडे, सुभाषचंद्र बोश इन भारत मां के सच्चे सपुतों को क्या पङी थी ! वो भी हमारी तरह मोज ले सकते थे.... समझ नही आता की ऐसा क्या हो गया है ऐसी कोनसी चक्की का आटा खाने लगे हमारे युवा किशोर भाई की जो लगातार नशा सैक्स हिंसा अनैतिकता अश्लीलता व्याभीचार के शिकंजे में फंसकर इतने स्वार्थी और मतलबी हो हो गये हैं की कुछ भी कहना गलत ही होगा !
सुबह से ही मेरे दिल में आ रहा है कि ऐसा क्या करूं जो देश के युवाओं के लिए प्रेरणा का सबक हो ! मेरे पास कोई साधन संगठन भी नही है बस भावना है !
आपसे मेरा अनुरोध है, कि हमारी जागरूक युवा सेना को मनोबल बढायें और सबको प्रेरित करो की कुछ ऐसा करो जो सबके लिए एक सबक हो
आज आजादी पर्व के मोके पर उन शहीदों से हमें ये ही वायदा करना है की जिस भारत माता की आन शान की खातिर फांसी का फंदा चुम लिया था हम भी इसकी आन शान बचाने के लिए तन मन धन से समर्पित होंगे !
जय भारत जय हिंद
शिवा तोमर - 09210650915

सोमवार, 10 अगस्त 2009

आंसु एक नारी के


जुन का महिना चिलचिलाती धुंप ऐसी की सब कुछ उबल रहा है सुरज तो मानों आग ही उगल रहा हो !
एक महिला ऐसी गरमी में बाहर सुरज की तपती धुंप में मिटटी के चुल्हे पर रोटी पका रही है ! माथे से पसिना टपक टपक कर गालों को भीगोता हुआ सारी गरदन पुरा बदन पसिना पसिना कर रहा है !
एक छोटी सी लङकी भागती हुई आती है !
मम्मी मम्मी मुझे दो रूपये दे दो आईसक्रिम लेनी है !
वह महिला बेचारी कुछ तो धुंप की गरमी से बेहाल थी ! कुछ चुल्हे में जलती आग की तपन से तंग थी ! टालने के लिए कहती है की तेरा बाप आंदर बैठा है ! जा उससे मांग ले ! बस ये कहना था कि वह आदमी उन दोनों मां बेटी पर चीते की तरह टुट पङा ! गाली गलोच करता हुआ बक रहा था, की एक तो साली तुने ये लङकी का पाप मेरे सिर पर गिरा रखा है !
ऊपर से तेरी और तेरी इस कम्बख्त बेटी ने तो हमारा जीना हराम कर दिया है ! आज में तुम्हे दोनो को ही खत्म कर देता हुं ! कम से कम घर में सुख शांति तो रहेगी !
और निर्दयी ने अपनी दरिंदगी की हद ही कर दी उस जल्लाद ने उस मासुम सी बच्ची को हाथ पकङ कर दीवार पर फैंक मारा ! बेचारी वह अबोद्ध बच्ची रोती रही बिलबिलाती रही तङपती रही ! उसके गुस्से की आग यहीं पर ही ठंडी नही हुई ! चुल्हे से तवा उठाकर सरोज (पत्नि) की पीठ पर मारने लगा !
हा हुल्ला और हाहाकार सुनकर बाहर से कई लोगों ने आकर उस राक्षस के चंगुल से उन दो मासुमों की जान बचाई !
दोनों मां बेटी बेचारी अंदर खाट पर पङी हैं ! एक तो गरमी ऊपर से मार का दर्द कराह रही है ! एक लाचार और बेबस मां पसिने से लथपथ अपनी बेटी को कुछ इस तरह अपने सीने में छुपा रही है जैसे किसी किले में लेकर बैठ गयी हो !
रोती रोती कहती है, मेरी अभागी बच्ची तु क्यों आयी यहां इस घर में ??? तेरी इस घर में जरूरत नही है ! इस पापी को तो बस बेटा चाहिए ! और आंसु बहाती हुई बच्ची का मुंह चुमने गलती है !
रोती रोती उसकी बेटी कहती है, मम्मी मम्मी मैंने ऐसा क्या किया है ?? या कोई गलती हो गयी ?? जो पापा हर समय मुझे मारते रहते हैं ! आज तक कभी भी प्यार नही किया......
बेटी तेरी और मेरी दोनों की किष्मत ही खराब है जो इस घर में आये हैं !
उसके बालों को ठीक करती हुई कहती है ! चल बेटी तु पहले खाना खा ले, नही तो फिर तेरा जल्लाद बाप आ जायेगा ! वो चैन से खाना भी नही खाने देगा !
नही मम्मी मेरा मन नही कर रहा कुछ खाने का !
मुझे खाना नही प्यार चाहिए प्यार मम्मी !
क्या करूं ?? बेटी जो कुछ मेरे हाथ में हो वह मांग ले ! में दुंगी चाहे मेरी जान ले ले वो भी दे दुंगी मेरी बच्ची !
उस छोटी सी बच्ची का नाम है राखी !
राखी अपने छोटे छोटे मुलायम हाथों से अपनी मां के आंसु पोछ कर कहती है ! मम्मी आपको इतना दुख मेरे ही कारण मिल रहा है ना ! जो पापा रोज रोज आपको मारते रहते है ! आपको मेरी वजह से ही इतनी मार खनी पङ रही है ना !
मम्मी मैं आपसे आज प्रोमिस करती हुं, की अब कभी भी मैं कुछ नही मांगुगी ! कुछ भी ऐसा नही करूंगी जिससे पापा आपको मारें !
अपनी मासुम सी बच्ची के मुंह से इतनी भावुक बातें सुनकर सरोज का दिल भर आया ! आंखो से आंसु और मुंह से बस आह ही निकल सकी ! रा........खी.......... मेरी बच्ची मैं तुझे कहां छुपाऊं ??? कहां ले जाऊं ??? जो उस राक्षस की नजर तुझ पर ना पङ सके !
और दोनो मां बेटी इसी तरह भुखी प्यासी पता नही कब नींद आ गयी ! दुख में कष्ट में जिल्लत में ना गरमी अपना प्रभाव दिखाती है ना शरदी......
उन दोनों मां बेटी को तो पता ही नही गरमी है या शरदी ! कोन क्या कह रहा है ?? बस निश्चिंत होकर ऐसे सो रही है ! जैसे उन दोनो के अलावा उनका कोई नही है इतने बङे संसार में !
भुखा पेट आंखों में आंसु, क्या उनके लिए इस जहां में एक रोटी भी नही है ! जिसे वो मां बेटी चैन से खाकर पानी पीकर सो जायें !
अचानक राजेश (पति) आ जाता है, और इस तरह चैन से सोता देखकर आग बबुला हो जाता है ! और चिल्लाने लगता है.... सरोज….. सरोज के घोङे बेच कर सोई है क्या ! जो उठने का नाम ही नही ले रही ! साली हरामजादी अपना तो पेट भरकर सो गयी ! दुसरा कोई अपनी ऐसी तैसी कराता रहे ! भुखा मरता रहे ! तुझे तो बस अपनी और अपनी छोरी की ही चिंता है !
और बाल खिंचकर घसिटता है !
सरोज बेचारी चिल्लाती रही रोती रही !
लेकिन राजेश को तो शायद कुछ सुनाई ही नही देता ! और थप्पङ मारने लगा !
बेचारी राखी सहमी सी घर के एक कोने में घुस गयी !
राजेश गुस्से में कहता है, की आज तु अपने दिल की बता ही दे आखिर तु चाहती क्या है ????
मैं अब तुझे एक मिनट भी अपने घर में नही रहने दुंगा !
बेचारी अबला बेसाहरा जो अपने मां बाप को छोङकर पति के साथ आयी ! जब पति ही घर से निकालने की कहे तो कहां जायेगी !
सरोज बेचारी रोती हुई हाथों के बीच में साङी का पल्लु और आंसु टपक रहे हैं ! आंखों में दया की भीख ! हाथ जोङकर कहती है, की अगर आप मुझे निकाल देंगे तो मैं कहां जाऊंगी ???
राजेश और गुस्से में आग बबुला हो जाता है ! साली हरामजादी कुतिया मुझे क्या मतलब ??? है कि तु कहां जायेगी ??? मैंने तेरा ठेका ले रखा है क्या ???
राखी रोती हुई सुबकती हुई हाथ जोङकर आती है-पापा पापा आप मम्मी को नही मारो !
राजेश तो यह सुनते ही मानों उसके अंदर बम फट गया हो !
और कहता है... अच्छा तो तेरी इस चंडाली मां को ना मारूं ! इसकी पुजा करूं साथ में तेरे ऊपर भी फुल चढाऊं ! और उसके छोटे से मासुम कोमल से मुंह को इतनी जोर से दबाता है की राखी की चीख निकल जाती है ! पापा छोङ दो...... बहुत दर्द हो रहा है ! बेचारी मासुम कन्या तङपती रही चिल्लाती रही ! लेकिन राजेश के ऊपर कोई असर नही और जोर से धक्का दिया ! तो बेचारी राखी दुध के पतिले के ऊपर जाकर पङी !
सारे घर में दुध ही दुध !
सरोज भी कितना सहती कितना झेलती आखिर सबर का बांध टुट गया !
और दुध को देखकर गुस्से में बोली की आप मुझ पर अपना गुस्सा उतार लो !
राखी को भी मारते रहते हो ! लेकिन अब तो घर का नुकसान भी करने लगे हो !
उसकी बात ने राजेश के गुस्से में आप में घी का काम किया ! और उसे घुरकर खा जाने वाले अंदाज में बोला ! मेरा घर मेरा सारा सामान मैं इसको रखुं खिडाऊं या आग लगाऊं तु कोन होती है ! मुझे कुछ कहने वाली !
बहार से राजेश के मां बाप आते है...
पिता... राजेश तुमने इस घर को जंग का मैदान बना दिया है ! जब भी देखे यहां लङाई ही होती रहती है क्या मामला है ??
दुध को देखकर राजेश की मां की आंख फटी रह जाती है .. ये क्या सारे घर में दुध ही दुध गिरा रखा है ! लोगों को पीने के लिए नही मिलता यहां गिरा पङा है !
नाश खेतों तरस जाओगे लेकिन कभी दर्शन भी नही होंगे ऐसे तो ! पता नही किसकी किष्मत से भगवान दे रहा है !
राजेश राखी की तरफ चीते की तरह झपटता है... मां ये दुध इसने खिंडाया है ! पता नही कोनसा मैंने पाप किया था ! जब से पैदा हुई है घर का नाश ही हो रहा है ! चल पोचा उठा और साफ कर !
सरोज कहती है.. इतनी छोटी सी बच्ची क्या साफ कर सकती है दया करो थोङी !
बीच में ही मां बोल पङती है.. लङकी है अभी से काम करना सिखेगी तो ही अच्छा रहेगा ! नही तो तेरी तरह सिर पर बैठ जायेगी !
सब चुप देख रहे हैं ! बेचारी राखी नन्हे नन्हे से हाथो में पोचा लेकर सफाई कर रही है और रो रही है !
कितने निर्दयी हैं ये लोग ! जो हाथ ठीक से रोटी का टुकङा भी नही ऊठ सकते ! उसे इतनी यातनाएं दे रहे हैं ! कहां भला होगा इनका !
राजेश का पिता ही चुप्पी को तोङता है ! राजेश और सरोज हम तुम दोनों को आखिरी बार समझा रहे हैं ! अगर तुम लोग आपस में झगङा करने से बाज नही आते तो हमें ही यहां से भागना पङेगा !
और कहकर चले जाते हैं !
बेचारी सरोज और राखी को इसी तरह यातनाएं मिलती रही ! दुख देते रहे
अवहेलना प्रताङना जिल्लत सहते हुए कई वर्ष बीत गये ! इसी बीच राजेश को एक और बुरी आदत लग गयी शाराब पीने लगा ! पहले से ही वह इतना दरिंदा था राक्षस भी उसकी दरिंदगी सामने तौबा कर ले ! और अब तो शाराब पीकर बस उन दोनों के खुन का प्यासा बना रहता था ! रात को शाराब पीकर घर पर आना और फिर दोनों मां बेटी पर जुल्म करना उसकी आदत बन चुकी थी !
एक दिन रात के करीब 11 बजे शाराब में धुत लङखङाता चिल्लाता हुआ आता है !
साली कुतिया हर समय दरवाजे को बंद रखती है मेरा ही घर और मेरे लिए ही घर के दरवाजे बंद ! खोल साली दरवाजा खोल आज तेरी अच्छी खबर लेता हुं !
राखी दरवाजा खोलती है !
दरवाजा खुलते ही वह धङाम से पङता है !
पापा पापा आप ठीक तो हो राखी बैचेनी से पुछती है !
अच्छा हरामजादी बङा प्यार सा दिखा रही है ! पता नही कहां से लायी इस पाप को जो मेरी छाती पर पङा है ! और कहकर दो थप्पङ मारता है !
सरोज अंदर से भागती हुई आती है ! क्या हुआ राखी बेटी ?? ठीक तो है !
हां आजा तेरी कमी रह गयी थी तु भी आ गयी ठीक हुआ ! और उसके बाल पकङकर घसीटता है !
मुंह से शाराब की बदबु इतनी आ रही है की सारा घर ......
और कपङों में से भी बदबु आ रही है ! वह लङखङाता हुआ सरोज की तरफ लपकता है !
लेकिन वह आगे से हट जाती है ! और कहती है आप नहा कर खाना खाओ और सो जाओ ! शाराब बहुत चढ गयी है !
अच्छा हरामजादी कुतिया मुझे शाराब चढ गयी है ! मैं तो शाराबी हुं ! मुझमें तो 100 ऐब है ! बस तु और तेरी यह बेटी ही ठीक हो !
सरोज बङी दीनता से लङाई को दबाने के लिए हाथ जोङकर कहती है ! नही आप ही ठीक हो अच्छे हो ! हम दोनो तो गलत हैं ! चलो आपका पानी रख दिया ! आप पहले नहा लो
नहा धोकर खाना खाता है !
राखी पापा बता देना कितनी रोटी लोगे !उतनी ही बनायेगी मम्मी ! नही तो फिर बच जायेगी सुबह खानी पङेगी !
इतना सुनते ही राजेश तो आग बबुला हो गया ! और दाल की कटोरी उठाकर राखी के मुंह पर फैंक मारी ! हरामजादी रांड की औलाद तु और तेरी मां ही खाओ !
मुझे नही खानी लङखङाता हुआ राखी को लपकने के लिए पीछे भागा ! लेकिन वह अपने को उसकी पकङ से बचाती हुई बहार भाग गयी है !
रोज आये दिन इसी तरह घर में झगङा होता गया ! हालात ऐसे हो गये की एक पल के लिए भी उनके घर में चैन शांति नाम की चिज नही रही ! बस आपस में झगङा कलह क्लेश रोना पिटना आंसु दो बेबस महिलाओं के ! और शाराब की बदबु बससससससस
उनके यहां कोई आना भी पसंद नही करता !
राजेश बहुत गिर चुका था ! उसकी मां भी उसी का पक्ष लेती सरोज और राखी पर सारे इल्जाम लगाती थी !
सरोज इसी तरह रोती रही सहती रही झेलती रही ! और पता नही किस तरह से अपनी और राखी की आबरू बचाती ! एक दिन दोनों मां बेटी बात करती है !
राखी... मम्मी ऐसा कब तक चलेगा ??
क्या सारी जिंदगी हम दोनों इसी तरह मार खाती रहेंगी !
और कितना सहेंगे अब नही सहा जाता ! बस इससे अच्छा तो भगवान हमें उठा ही ले तो बढीया रहे !
सरोज.. राखी का हाथ अपने हाथों में लेकर प्यार से कहती है ! बेटी बस भगवान एक बार सही सलामत तेरे हाथ पीले करवा दे ! तु अपने पति के साथ आराम से रहना और कभी इधर आना भी नही ! और आंखे डबडबा आई !
राखी अपनी मां के आंसु पोछकर कहती है ! मां मैं कभी आपको अकेला छोङकर नही जाऊंगी ! आपने मेरी वजह से बहुत कष्ट उठाये हैं !
सरोज राखी को बाहों में भर लेती है ! बेटी तु ही तो मेरी जिंदगी है ! तेरे लिए ही तो मेरी सांसे चल रही हैं !अगर तु नही होती तो मैं कभी की मोत को गले लगा लेती !
और इस राक्षस इसके नरक जैसे घर को कभी की अलविदा कहकर भगवान के पास चली जाती !
राखी बङे भोलेपन और सादगी से पुछती है ! की मम्मी क्या लङकी इस धरती पर सिर्फ इसलिए आती है की !
सारी जिंदगी यातनाए सहे !
जिलल्त उठाये !
कष्ट भोगे !
इतनी अवहेलना, यातना, प्रताङना !
इतने ताने क्या ये सब हमारी ही किष्मत में ही लिखा है !
बेटी राखी........ सरोज की आवाज में सारे जहां का दुख सा समाया हुआ था ! और आवाज ऐसे निकल रही थी जैसे जबरदस्ती निकल रही हो !
कुछ वर्षों पहले तक लङकी को देवी की तरह पुजते थे लोग ! अभी पता नही क्या आग लग गयी है ! जो लङकीयों को पाप समझने लगे !
इसी बीच कोई बाहर से दरवाजा खटखटाता है !
मम्मी इस समय कोन होगा ??? पापा तो अभी आ नही सकते !
सरोज दरवाजा खोलती है ! तो राजेश ही गिरता पङता अंदर आता है !
आप आज इतनी जल्दी कैसे आ गये ?? सरोज ने अचम्भीत सी होकर पुछा !
क्यों... मु..,,झे ज...ल्दी न.. ही... आ...ना चा..हि...ए क्या... लङखङाती आवाज में कहने लगा मुझे... अ..ब.. तु..झ..से पु..छ..क..र आ..ना प..ङे..गा.. क्या...
ला मुझे 50 रूपये दो कुछ काम है !
मेरे पास तो एक भी पैसा नही है कहां से दुं !
यह सुनते ही उसका तो पारा हाई हो गया आग बबुला हो गया !
तु साली जोङकर कहां ले जायेगी ! जब तु अपने पति को नही दे सकती तो काहे की मेरी पत्नि है !
गाली गलोच करता हुआ इधर उधर सिर मारने लगा !
साली पता नही इतने पैसे जोङकर क्या करेगी ?? जब वो मेरे काम नही आयेंगे तो क्या तुने अपने कफन के लिए इकठठा करके रखे हैं !
मैं आखिरी बार कह रहा हुं, की पैसे दे दे वरना आज तुझे मार डालुंगा !
वह गालीयां बकता रहा ! आज चाहे कोई भी आ जाये मैं किसी को नही छोङुंगा !
सबको मार दुंगा ! और सरोज को मारने के लिए भागा !
राखी बीच में ही बोल पङी पापा झगङा मत करो ! मैं आपके हाथ जोङती हुं !
हरामजादी तु भी अपनी मां रांड का ही फेवर करती है ! आज तुम दोनो को ही खत्म कर दुंगा ! वह लङखङाता हुआ उन्हे पकङने के लिए भागता रहा !
सरोज चीखी राखी जा तु इसके मां को ही बुलाकर ला ! आज हम फैंसला कर ही देते है की आखिर ये लोग चाहते क्या हैं ????
यह सुनकर उसके गुस्सा और भी ज्यादा चढ गया ! वह बङबङाया जाओ तुम आज किसी को भी बुला लाओ मैं तुम्हे नही छोङुंगा !
और सरोज को मारने के लिए एक शाराब की खाली बोतल फोङकर उसके पिछे लपका !
इतनी ही देर में राजेश के मां बाप भी आ गये ! उन्होने उसे ऐसी हालात में देखा तो होश उङ गये ! किसी को कुछ समझ ही नही आ रहा था की क्या करें ?? क्या ना करें ??
राजेश का बाप बोला... राजेश बेटा बोतल फैंक दे ! जो तु कहेगा वैसे ही होगा !
नही पिताजी में आज इसको छोङने वाला नही हुं ! सारे घर को इसने नरक बना
दिया है ! सरोज भागती भागती चिल्लाई... नरक हमने नही तेरे करतुत ने और शाराब ने बनाया है ! मैं कहां से इसे पैसे दुं ! भीख मांगकर लाऊं क्या ?? देने का तो नाम नही !
राजेश ने सरोज को पकङने लिए जैसे ही घर में पङी खाट के ऊपर से छलांग लगाई तो
फिसलकर गिर गया ! और हाथ में पकङी बोतल उसी की छाती में धंस गयी !
किसी को कुछ नही पता लगा की क्या हुआ ?? इस बात का तो यकिन था ही नही राजेश ऐसा पङा है जो अब कभी भी उठने वाला नही है !
सरोज हांफती हुई दीवार से सटकर आंखे बंद करके लम्बे लम्बे सांस लेने लगी !
राखी भागती आयी मम्मी मम्मी ठीक तो हो ना !
हां बेटी बस मौत के मुंह से ही निकलकर आयी हुं !
राखी ने सरोज का सिर अपने कंधे पर रख लिया मम्मी पानी लाऊं !
राजेश की मां चिल्लाई .... अरी निर्भाग्य राखी अपनी मां की ही गोद में बैठी रहेगी ! अपने बाप को भी देख ले जब से गिरा है उठा ही नही है ! क्या हो गया ???
राजेश का बाप गुस्से में झल्लाकर बोला उसे कुत्ते कमिने को कुछ नही होगा ! जब शाराब उतर जायेगी तो उठ जायेगा !
सरोज के मुंह से कराह निकली राखी अपने पापा को देख बेटी वो बहुत जोर से गिरे हैं !
राखी उसके पास गयी पापा पापा पापा कई आवाज लगाई ! लेकिन कोई जबाब नही !
जब कई बार आवाज लगाने से भी नही बोला तो राखी ने हाथ पकङकर उठाने की कोशिश की खिंचते ही राजेश का शरीर एक तरफ लुङक गया !
छाती में बोतल धंसी उसके निचे खुन ही खुन !
राखी के मुंह से तेज चीख निकली .... मम्मी ...........................
सारे लोग राखी के पास गये ! तो देखते ही सबके होश उङ गये ! राजेश तो कभी का मर चुका था ! उसकी मां जोर जोर से राने लगी !
मेरे लाल को दोनों मां बेटी खा गयी हैं ! और विलाप करने लगी !
सरोज को पता नही क्या हुआ ?? ना रोई ना कुछ बोल रही ना कुछ कह रही है ! बस दुर कहीं शुन्य में खोई रही !
शाम का समय गांव के बाहर राजेश का अंतिम संस्कार हो रहा है ! चीता में आग लगा दी गयी ! और वहीं थोङी दुरी पर सरोज एक टक राजेश की चिता को देख रही है ! और ना किसी की तरफ देख रही है ना कुछ कह रही है ! बस रोये जा रही है ! और आंसु तो मानों थमने का नाम ही नही दे रहे !
राखी मम्मी आप अपने आप को सम्भालो ! अगर आप ही ऐसी रहोगी तो मेरा तो अब कोई है ही नही ! और गले लगकर जोर जोर से रोने लगी !
सरोज बेहद गम्भीरता से बोली राखी बेटी हम औरतो के पास आंसु बहाने के अलावा और कुछ नही है ! और फिर कहीं आकाश में शुन्य में खोकर आंसु बहाती रही !
जैसे जैसे चिता की आग ठंडी हो रही थी ! आंसु और ज्यादा बह रहे थे !
शिवा तोमर- 09210650915