सोमवार, 21 दिसंबर 2009

गीता दुसरा अध्याय

ज्ञान की प्रप्ति
दुसरा अध्याय का नाम दिया गया है सांख्य योग यानि की ज्ञान की प्राप्ति। विषाद योग के बाद सांख्य योग। दुख के बाद ही ज्ञान प्राप्त होता है। आंसूओं से भरा चेहरा, व्याकुल नेत्र, शोकयुक्त बताया गया है अर्जुन को। उसके प्रति भगवान कहते हैं। यहां पर यह भी कह सकते थे। कि अर्जुन को भगवान ने कहा लेकिन इन सब बातों को दर्शाने का अर्थ है कि आगे जो भगवान कहने जा रहे हैं, वो थप्पङ हमारे गाल पर भी पङेगा। क्योंकि हम सब तो रोज आये दिन रोते रहते हैं, व्याकुल और बैचेन होते रहते हैं, और लोभ मोह तथा भय के कारण अपने कई जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं। ये नही समझते की ऐसा सब करने से कल्याण नही हो सकता। अर्जुन क्या सोच रहा था कि इस प्रकार रोकर और बैचेन होकर अपने पद की गरीमा बचा सकता है। हम अपने पद जो भी हमें मिला हुआ है अगर उसकी गरीमा को बचाना है तो सत्यभाव में कर्म करना पङेगा, नही तो हानि ही होगी इस बात का वर्णन भगवान ने यहां सही किया है।
जब अर्जुन बिलकुल स्पस्ट कहकर चुप हो गया कि मैं युद्ध नही करूंगा। तो भगवान ने उसे बङे कटु वचन कहे, जैसे हमारा किसी का बच्चा सही काम नही करता तो हम उसे कटु वचन कहते हैं कि अगर तु नही पढेगा तो धक्के खाता घुमेगा, कहीं भीख मांगेगा। भगवान भी ऐसा ही कहते हैं कि तुझे इस असमय में यह मोह कैसे हुआ। इससे ना तो तुझे यस ही मिलेगा और ना राज्य और स्वर्ग ही। और इससे आगे बङे ही सख्त लहजे में कहते हैं कि तु नपुंसकता को मत प्रप्त हो जो तेरे अंदर डर बैठा हुआ है जिससे तु भयभीत हो रहा है उसे निकाल बहार फैंक। और युद्ध कर। एक यौद्धा को डरपोक हिजङा कहना कितने लानत की बात है। लेकिन अर्जुन के उपर तो जुं तक नही रेंगती। यह सब सुनकर कहां गया आज उसका क्षत्रापण कहां गयी उसकी वीरता क्या हो गया गांडीव धनुष को जो बङे बङे यौद्धाओं के छक्के छुङा दिया करता था। क्यों आज इतना स्वार्थी हो गया कि इतना सुनने के बाद भी कह रह रहा है कि किस तरह मैं भीष्म और गुरू द्रोण के विरूद्ध लङुंगा दोनो ही अति पुजनीय हैं। कौरवो की सेना में वो दोनो ही सबसे बङे पराक्रमी योद्धा थे। और उन दोनो से युद्ध ना करने के लिए अर्जुन आज उन्हे पुजनीय बता रहा है। जब अज्ञातवास में थे और राजा विराट के यहां रहे तो अर्जुन को हस्तिनापुर की सेना के साथ युद्ध करना पङा था । और उस जंग में अकेले ने ही सबको हराया। और तो और उत्तरा कुंवर ने भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि सबके कपङे भी उतार लिए तब वो लोग पुजनीय नही लगे थे। आज कितना भयभीत और मोहग्रस्त है कि भगवान के समक्ष समर्पण कर देता है कि हे प्रभु में आपका शिष्य हुं आपकी शरण हुं मुझे वह ज्ञान दिजिये जिससे मेरा यह मोह भय सब दुर हो सके और में अपना कर्तव्य पुरा कर सकुं। यहां पर अर्जुन ने यह भी साफ कर दिया है की हम जिस राज्य के लिए यहां युद्ध करने के उद्देश्य से इकठ्ठा हुए हैं यह तो उसके सामने कुछ भी नही है। इससे आगे कितनी बङी बात कहता है कि अगर मुझे सारी धरती का राज्य भी मिल जाये और अगर मैं देवताओं का भी राजा बन जाऊं तो भी जो आज मेरे अंदर जो शोक है, दुख है और भय है यह सब भी उसको दुर नही कर सकते। अर्जुन इतना परेशान है दुखी है भयभीत हो रहा है और इतना बैचेन है कि पागलों जैसी हालात हो गयी क्योंकि मरने की बात कर रहा है, और ऐसे हालात में भगवान उसको देखकर हंस रहे हैं जैसे बच्चे ने कोई शरारत कर दी हो। और बङा आदमी हंस रहा हो। भगवान हंसते हुए कहते हैं कि तु न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है। जिनको आज अर्जुन इतना पुजनीय मान रहा था उसके एक झटके में ही तरोङ मरोङ कर रख दिया भगवान ने। वही क्या हम सब भी तो उन सभी मनुष्यों के लिए शोक करते रहते हैं जिसके लिए हमें करना ही नही चाहिए। और सारी जिंदगी भयभीत रहकर डर डरकर काम करते हैं। और अपनी ही बुद्धि से सोचते रहते हैं की यह गलत है। यह भगवान का वचन आज के हर आदमी की समस्या का समाधान इतनी सहजता और सरलता से बता दिया कि ना करने योग्य शोक हम करते रहते हैं और जो कार्य करने की हमारी जिम्मेदारी है चाहे वह एक पिता की हो पति की या फिर अधिकारी या हो सैनिक इससे पलायन करने के रास्ते खोजते रहते हैं। यही कारण है कि शोक और भय से ग्रसीत रहते हैं। भगवान यहां पर अर्जुन को बहुत सा ज्ञान देते हैं और वह बच्चे की भांति सुनता रहता है। और सुनता भी क्यों नही वह जानता है कि मेरे समस्या का समाधान बस कृष्ण के पास ही है। इतनी ज्ञान की बातें अर्जुन को भगवान बताते हैं कि जितने भी इस सृष्टि में जो भी चर अचर हैं सबका एक दिन नाश हो जाना है। प्रमात्मा अविनाशी है। इतना स्पस्ट समझाते हैं कि तु यह मत सोच कि तु मैं या ये राजा लोग अभी हैं आगे नही होगें अब भी हैं आगे भी रहेंगे बस ये नाशवान शरीर नही रहेगा। लेकिन ये सब बातें अर्जुन की तो क्या हमारी भी किसी की समझ में नही आती। एक दुसरे ओर सरल तरिके से भी समझाने का प्रयत्न करते हैं। कि अपने धर्म पर चलना चाहिए चाहे कितना भी कष्ट हो कितना भी कठिन कर्म क्यों नही हो डरना नही चाहिए। और एक क्षत्रिय के लिए एक सैनिक के लिए युद्ध से बढकर कोई कर्तव्य नही होता। अगर एक शिक्षक बच्चों को तो पढाये नही और राजनिती करने लगे कितनी भयावह परिस्थती होगी। भगवान भी यही समझाते हैं कि तु एक सैनिक है ओर पंडितो का काम करेगा जो ज्ञान ध्यान की बात करेगा तो युद्ध कोन करेगा। अपने धर्म पर ही चलकर सब लोग कल्याण को प्रप्त हो सकते हैं। और अगर अपने कर्म से भागेगा तो लोग जो अब तक तुझे चाहते हैं तेरी इज्जत करते हैं वो तेरी निंदा करेंगे और जीवन में कोई नही चाहता की कभी निंदा या कोई गलत ना कहने योग्य बात कभी कहे। अगर कभी कोई निंदा या अपमान करता है तो एक अच्छे सम्मानीय व्यक्ति के लिए तो मरण से भी ज्यादा हो जाता है। ये सब ज्ञान की बातें भगवान कहते रहते हैं लेकिन अर्जुन कुछ जबाब नही देता उसकी खामोशी साफ बता रही थी की वह संतुष्ट नही है। कोई भी बात का जबाब नही दे रहा था बस चुप्पी साधे रहा। तो कृष्ण ने सोचा की इसके ऊपर तो कोई असर ही नही हो रहा है। आगे भगवान कहते हैं कि अब में तुझे वह बात बता रहा हुं जिससे तु कर्म करता हुआ भी सभी कर्म बंधनों से मुक्त रहेगा। यह जो मन है ना बङा ही चतुर है अपने ही अनुसार चलने के हजारों तरिके खोज निकालता है। लेकिन कृष्ण तो महायोगेश्वर हैं। वो तो ये बात भलीभांति जानते थे कि अगर आज अर्जुन अपने कर्म से पलायन करने में कामयाब हो गया तो आगे इसी प्रकार अपनी जिम्मेदारी अपने दायित्व से मुंह मोङने लगेंगे, और बङी हानि हो जायेगी दुनिया की। भगवान ने बहुत छोटे स्तर पर आकर अर्जुन के सामने दुसरा विकल्प रखा कि अर्थात एक तरह का प्रलोभन सा दिया कि देख अगर ये वो रास्ता है जिससे तु अपने कर्म यानि की युद्ध भी करेगा और जो कर्मफल होते हैं अच्छे बुरे उनसे मुक्त होकर प्रमात्मा की प्राप्ति कर लोगे लेकिन करना पङेगा। और जो भी इस प्रकार कर्म करेगा उसमें कोई दोष भी नही लगेगा। इस कर्मयोग धर्म का थोङा सा साधन भी जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। उसे यहां पर थोङा भयभीत सा भी कर दिया कि इस जीवन में दो दुख सबसे बङे होते हैं जन्म और मृत्यु अब तो उनका भय भी कुछ नही बिगाङ सकता। व्याक्ति सबसे ज्यादा अपनी मृत्यु से ही डरता है। जैसे अगर हमें ही कोई कह दे कि तुझे मरने के कष्ट से मुक्ति दिलाऊंगा तो हम उसके बदले में कुछ भी कर गुजरेंगे। भगवान कहते हैं कि कर्मयोग में बुद्धि एक ही होती है लेकिन जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है अज्ञानी हैं अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है। बुद्धिहीन तो अधर्म को धर्म मानकर अपने को संतुष्ट कर लेते हैं। अर्जुन को बता दिया की जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है मंद बुद्धि हैं उसमें तो स्थिर यानि कि निश्चायत्मिका बुद्धि नही होती और अर्जुन तो क्या हममें से कोई भी स्वंय को पागल और मंद बुद्धि कभी नही समझते हैं। भगवान ने सोचा था कि इतनी साफ बात सुनकर तो अर्जुन के अंदर तो कुछ कर्म के प्रति श्रद्धा जग जायेगी लेकिन परिणाम जस का तस। जब द्रोपदी का स्वयंवर हो रहा था और जो शर्त थी मछली की जो भी आंख बेध देगा उसी के साथ द्रोपदी की शादी कर दी जायेगी। जब बङे बङे शक्तिशाली राजा महाराजा आये और मछली तो क्या बेधेंगे धनुष को तक नही उठा पाये। तो बङा दुखी होकर द्रुपद ने कहा था की क्या कोई ऐसा नही है जो इस धनुष को उठा सके जो मैंने शर्त रखी क्या कोई भी पुरी नही कर सकता मेरी बेटी कि वरमाला के लायक कोई नही है। जब कङुवी कङुवी बात कही तो अर्जुन जो पंडित के वेश में बैठा था खुन खोल गया और शंकर भगवान के धनुष को उठाया भी और मछली की आंख भी बेधी थी। लेकिन आज इतनी कटु बातें सुनकर भी उसके रक्त में कोई उबाल नही आया कितना ठंडा पङ गया भय और मोह में। नपुंसक भी कह दिया और अप्रत्यक्ष रुप ये यह भी कह दिया की जो पागल हैं जो मंदबुद्धि हैं वो कोई भी पक्का निर्णय नही कर पाते। ये सब बातें सुनकर भी खामोश रहा अर्जुन। यह भी कहते हैं कि जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त हैं उन पुरूषों की प्रमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नही होती। कितना सुंदर कितने सरल तरिके से बता दिया कि जो आदमी अपना किसी भी कर्म का निर्णय नही ले पाते इसका मतलब ये हुआ कि कहीं ना कहीं भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हैं। गीता पाठ प्रतिदिन लाखो लोग करते होंगे लेकिन सिर्फ उसके पुजा तक ही सिमित रखा हुआ है। कृष्ण के उपदेश को बस ये ही समझकर पढते हैं कि अर्जुन को बता या था उसी के लिए था। और समस्या हम सब की है कितनी बार ऐसा होता है कि हम कोई निर्णय नही ले पाते। लोभ और भय में इस तरह से लिपटे रहते हैं कि अपनी जिम्मेदारी से पलायन करने के तरिके खोजते रहते हैं। आगे भगवान कहते हैं कि तु आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्म कर। जब भगवान ने देखा की अर्जुन के अंदर तो आज अपनों के प्रति आसक्ति और मोह बढता ही जा रहा है। जिसके कारण वह अपने दायित्व से भाग रहा है। अपने कर्म से डर रहा है। तो फिर अपना कथन जारी रखते हुए कहते हैं कि सकाम कर्म तो बहुत ही निम्न श्रेणी का है और ये तक कह दिया कि फलहेतव: कृपणा: यानि की फल के लिए काम करने वाले अत्यंत दीन होते है गरीब होते हैं। मांगने वाले के पास चाहे कितना भी धन दौलत हो लेकिन जब किसी से कोई मांग की तो दीन हो जाता है भीखारी हो जाता है।
अगर व्यक्ति अपने कर्म को सही यथार्थ रूप से जिससे की किसी का अनिष्ट ना हो यानि की समता से करेगा तो इसी जन्म में पाप पुन्य को त्याग देता है। सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है। कहने का आशय ये है कि जो हम सब जीनव में अपने अपने कर्म करते हैं जो अन्याय पुर्वक धनादि का संग्रह करते हैं या जो भी हम अनुचित तरिके से आगे बढते हैं। अगर हम समत्व योग में स्थित होकर वही कर्म करें तो कोई बंधन नही होगा। अर्जुन को यहां युद्ध करना था और वह अपनो को देखकर मोहीत हो गया अपने अंदर की समता को नष्ट कर दिया। और भगवान ने तो समता को ही सबसे बङा योग बताया है और उसी से विमुख हो गया अर्जुन। कि ये ही एक रास्ता है जिससे चाहे तु यहां लाखों आदमीयों को मार भी डाले तो लेकिन तेरे ऊपर कोई हत्या का पाप नही लगेगा। कोई दोष नही लगेगा। कई लोग इस उपदेश को गलत समझ जाते हैं। जैसे अगर किसी के हाथ से कोई अपराध हो जाता है तो बस गीता को माध्यम बनाकर कहते हैं लोगो को गुमराह करते हैं कि ये तो स्वंय भगवान ने ही कहा है जो भी होता है वो सब मुझसे ही होता है तु तो सिर्फ निमित्त मात्र है। तो इसमें हमारा क्या दोष है। लेकिन जरा एकाग्र होकर सुनो की भगवान ने ये कहा है कि जिसका जो भी कर्म है जैसे कोई डाक्टर हो या इंजिनयर या वकिल हो कोई किसी की हत्या कर देता है चाहे वह कितना गलत या कितना भी बङा अपराधी क्यों ना हो उस पर हत्या का आरोप लगेगा और पाप भी लगेगा, सजा मिलेगी ही। क्योंकि वह उसका कार्य नही है। जो नियम है जो व्यवस्था है तो पुलिस या फिर सैनिक या न्यायधीष ही किसी अपराधी को सजा सुनाने दंड देने के अधिकारी है। यहां सबसे महत्वपुर्ण यह है कि कोई विकार के शिकार होकर ना किसी को मारे अपना फर्ज समझकर एक सैनिक किसी अपराधी को पकङकर सजा देता है तो ही कर्मयोग है। अगर कोई सैनिक किसी का आप्रेसन करने लगे तो कितना भयानक परिणाम होगा। और इससे आगे तो भगवान ने बिलकुल स्पस्ट ही कह दिया की, जब तेरी बुद्धि इस मोह रूप दल दल को भली भांति पार कर जायेगी तो सभी भोगो से वैराग्य प्राप्त हो जायेगा। इन भोगो के कारण ही तो लोभ, मोह, क्रोध, और भय के शिकंजे में फंसे रहते हैं। और अगर इन भोगो से ही वैराग्य प्राप्त हो जाये तो कोई व्यवस्था कभी बिगङेगी ही नही। चाहे वह राजनिती हो शिक्षा नीति सब अपनी अपनी जगह ठीक होंगी। जो इन भोगों के प्रति राग हो रहा है इनकी जितनी आसक्ति बढ रही है तो व्यक्ति अपनी इच्छा पुर्ण करने के लिए किसी काम के करने से चाहे कितना भी अनुचित हो नही चुकता है। भगवान की इतनी सारी ज्ञान की और कर्म की बातें सुनने के बाद भी उसकी समस्या कम नही हुई जस की तस बनी रही। मानो कहीं ना कहीं कोई भारी असमंजस की स्थिती बनी हुई है कोई ठोस निर्णय नही ले पा रहा है अर्जुन। भगवान से पुछता है प्रभु जिसे आप कई बार कह चुके हैं कर्म योग में स्थित रहुं स्थिर बुद्धि रहुं तो लेकिन प्रभु स्थिर बुद्धि के पूरूष के क्या लक्षण हैं। वह कैसे चलता है कैसे बोलता और कैसे बैठता है। इस सवाल के पुछने के तरिके से क्या आपको लग रहा है कि पुछने वाला इतना बङा शूरवीर और इंद्र देवता के आशिष से कुंती जैसी श्रेष्ठ नारी के गर्भ से पैदा हुआ हो बिलकुल आम आदमी की तरह स्थिर बुद्धि की पहचान शारीरिक रूप से कर रहा है। कितनी अबोधता से कह रहा है कि स्थिर बुद्धि कैसे चलता है। इस तरिके से सवाल करने से ये तो साफ हो गया कि वह भगवान की बात पुरी तन्मयता से सुन रहा था। और जब इतना सब कुछ उसे बता दिया कि तेरी बुद्धि इस मोह रूप दलदल को पार कर जायेगी तो स्थिर बुद्धि ही समझो यहां ये सवाल पुछकर हो सकता है कि ये देखना चाह रहे हो अर्जुन की मेरे अंदर भी कोई स्थिर बुद्धि के लक्षण हैं या नही।
भगवान बिना रूके कहते हैं जिस पल यह मनुष्य मन में स्थित सम्पुर्ण कामनाओं को त्याग देता है तो स्थिर प्रज्ञ ही समझो। कितना सटीक हमला है ये हम सबकी अंर्तात्मा को झकझोर कर रख दिया। अर्जुन तो क्या हम सब भी उन्ही कामनओ की फांसियों में फंसे पङे हैं। तो अर्जुन अपनी कामनाओं के शिकंजे में है उनसे मुक्त ही नही हो पा रहा। वह कह तो रहा है कि राज्य की इच्छा नही है राज्य से कोई लोभ नही है। लेकिन दुसरी कामनाओं की झङी लगा रखी है। कि जो मेरे सामने हैं ये सब दादा परदादा मामा साले भाई बंधु खङे हैं उनके बिना क्या करूंगा में राज्य का कहने का मतलब ये है कि अर्जुन चाहता था कि ये सब लोग भी ना मारने पङे और राज्य भी मिल जाये। तो कामनाओं का पहाङ तो उसके अंदर ज्यों का त्यों खङा है। एक छोटी सी कहानी मेरे याद आ रही है एक आदमी अपनी बहुत सारी जमीन जायदाद धन दौलत छोङकर साधु बन गया और सन्यासियों का जीवन जीने लगा। अब वह सिर्फ एक लकङी से बना टाट जैसा कुछ पेट पर लपेटता था। एक दिन उसके किसी शिष्य ने उसके पास भोजन के लिए आमंत्रण भेजा। तो उसे रेल से सफर करना था। जहां जिस स्टेशन पर उसे उतरना था वहां करीब 6 बजे रेल पहुंचेगी। लेकिन बाबा तो तीन बजे ही उठ गये नींद नही आ रही थी। किसी से पुछा कि फलां स्टेशन कितनी दुर है उसने कहा बाबा आप आराम से सो जाओ अभी बहुत समय बाद आयेगा और हमें भी सोने दो। तो बेचारा बाबा चुप बैठ गया अपनी सीट पर। तकरीबन एक घंटे बाद फिर पुछा कि कितनी दुर है देखा इतना सब त्यागने के बाद भी कितनी बैचेनी और व्याकुलता हो रही है बाबा को। अब तो उनसे बिलकुल भी सोया नही गया। और उठकर हाथमुंह धोये अपनी दाढी पर तेल लगाकर चमकाया। अब वह लकङी का टाट अपने पेट पर बांधने लगा और बार बार रेल के डिब्बे में लगे आईने में देख रहा है कि कैसा लग रहा है। यह ठीक नही है तो दुसरा पहनुंगा, दाङी में कंघी की। अरे भाई कामना तो कामना है घर त्याग दिया तो टाट की कामना बनी है छुटी तो नही ना। जब तक कामनाएं है तब तक स्थिर बुद्धि कहां है। अर्जुन बात कर रहा है कि मुझे राज्य नही चहिए। मुझे किसी भी चीज से लोभ नही है बस कूल का नाश नही करना। लेकिन दुसरी तरफ सबको अधर्म पर चलते देखकर भी अपना कर्तव्य भुल रहा है। भगवान ने सिधी चोट उसकी कामनाओं पर ही की। आगे कहा की जो आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट हो वह स्थिर बुद्धि है. कहने का अर्थ यह हुआ कि अर्जुन तु स्थिर बुद्धि नही है, क्योंकि शरीरों को देखकर मोहित हो रहा है कि ये तो मेरे दादा हैं ये मेरे गुरू हैं। ये ज्ञान नही रहा कि जो तेरे अंदर आत्मा है इनके अंदर वो ही प्रकाश है। जैसे एक ही बिजली बल्ब, फ्रिज, हिटर फैक्टरी सबको प्रकाशित कर रही है उसी आत्मा से आत्मा में संतुष्ट हैं।
भगवान तो मानो एक के बाद एक उसकी हर कमजोर कङी पर हमला कर रहे हैं दुखों की प्रप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नही होता सुखों की प्रप्ति में सर्वथा निस्पृह है। जिसके राग भय क्रोध नष्ट हो गये ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि हैं। दुखो के मिल जाने पर जो उदास ना हो दुखी ना हो। हम तो रोने लगते हैं। और खुशियों में उझलने लगते हैं। तो कहां हम कर्म बंधनो से मुक्त हो सकते हैं। हम तो रोज नये बंधनो में फंसे रहेंगे।
भगवान स्थिर पूरूष के सारे लक्षण जब बताते हैं तो एक बात का ओर खुलासा कर देते हैं उसे स्पस्ट कर देते हैं। अगर कोई व्यक्ति हठ पुर्वक विषयों का सेवन नही करता तो उसके विषय तो निवर्त हो जाते । लेकिन उनकी आसक्ति बनी रहती हैं। जो स्थित प्रज्ञ है उसकी तो प्रमात्मा का दर्शन करके आत्मा से आत्मा में रमण करके आसक्ति भी निवर्त हो जाती है। जो मनुष्य बार बार गलत कार्यों की तरफ भागता है उनकी तरफ मोहित होता है। इनका सबसे बङा कारण ये ही कहा है कि जब तक आसक्ति का नाश नही होता प्रमंथन स्वभाव वाली इंद्रियां मन को बलात खिंच लेती है। यहां पर इंद्रियों को प्रमंथन स्वभाव वाली कहा है अर्थात ये सदा हर क्षण दुसरे का ही मंथन करती रहती हैं। बाहर ही इनका दरवाजा खुलता है। कभी स्वमंथन की कोशिश करती ही नही है। जब तक आदमी की बुद्धि स्थिर नही होती तो अपना मन स्वभाव के अनुसार कुछ ना कुछ चिंतन करता ही है। इसको तो कोई ना कोई काम चाहिए ही जैसे रेल को चलने के पटरी की आवस्यकता होती है तो मन को भी हर पल काम चाहिए और स्थिर बुद्धि के अभाव में ही गलत विषयों का अपने अनुसार ही चिंतन करता है। जो इसे अच्छा लगता है जो इसे भाता है। इसके आगे जो भगवान जो कहने जा रहे हैं वह सिर्फ अर्जुन या भारत के लिए 5100 वर्ष पहले कहा एक मामुली उपदेश नही था। वह विस्व में बढती हा हा कार, अपराध, हिंसा, व्याभीचार, अलगाव अशांति की जो मुख्य कारण है वो ही बता दिया की क्यों आदमी बलात्कार हत्या, डकैती और बम धमाके करता है। जरा ध्यान से पढे एक एक बात पर पुरा ध्यान रखे बिलकुल अर्जुन की भांति ही नही तो पता नही क्या हमारे काम का हाथों से निकल जाये। जो लोग विषयों में रमण करते हैं हर पल विषय भोगो में तत्पर रहते हैं विषयों का चिंतन करने से उनमें आसक्ति होती है। विषय धन का, वासना का, लोभ का, भय का कुछ भी हो सकता है। और किसी के भी अंदर हो सकता है। ऐसा नही है की अशिक्षित या गरीब पर होगा यह तो चाहे अनपढ हो या शिक्षित गरीब हो या अमीर, भारत का हो अमेरीका का, जो भी विषय भोगो का चिंतन करेगा तो उसके अंदर आसक्ति बढेगी ही अर्थात उस विषय को हासिल करने की लालसा बढेगी कामना पैदा होगी। और कामना पुर्ण होना हमारे किसी के हाथ में नही है कि जिस विषय की कामना हमारें अंदर जगी और पुर्ण हो गयी। ज्यादातर कामनाएं हमारी यानि की मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर ही होती हैं। और जब कामना पुर्ण नही होती उसमें किसी प्रकार का विघ्न पङता है उसके मार्ग में कोई रूकावट आती है और यह बेबश मजबुर मानव उस रूकावट को दुर करने में नाकाम होता है तो क्रोध आता है। हर समय चिङचिङा रहता है किसी से बात करने का मन नही करता बैचेन रहता है किसी से भी बात करेगा तो पता नही क्या कह दे क्या कर दे उसे स्वंय को भी ज्ञान नही होता की कि तु क्या कर रहा है। इस क्रोध के कारण अत्यंत मुढभाव यानि की आम भाषा में मूढ खराब रहता है। किसी अनजाने तनाव में रहता है। पता नही मन पर ऐसा कोनसा भार रहता है कि ऐसे भाव में भगवान कहते हैं कि उसे कुछ ज्ञान ही नही रहता की तु क्या कर रहा है। क्या बोल रहा है। कहते हैं ना कि पागल सा हो जाता है। यानि की बुद्धि खराब हो जाती है। और ऐसे व्यक्ति को सभी जानते हैं की कोई कुछ नही कहता। जब किसी घर में भी कोई सदस्य ऐसा हो जाता है तो कहते हैं कि ये पागल हो गया उससे कोई बात तक नही करता। क्योंकि उसकी बुद्धि खराब हो जाती है। वह अपनी वास्तविक स्थिती से गिर जाता है। और अंत में क्या होता है कि वह विषयी मनुष्य कोई भी अपराध कर देता है। वह कुछ परिणाम नही देखता कि इसके बाद क्या होगा। छोटे छोटे सुख और भोगों की खातिर अपना जीवन ही बरबाद कर देता है। लेकिन जिसने अपने मन इंद्रियां और अंतकरण को अपने अधीन कर रखा है यानि कि जैसा बुद्धि कहती है वैसे ही मन चलता है जो इंद्रियां अनुभव करती हैं उस सबका ज्ञान हो कि ये अच्छा है तो विषय को भोगते हुए भी अंतकरण प्रशन्न रहता है। कितनी बङी बात कही है कि जिस शांति के लिए सारा जीवन इधर उधर भागते रहते हैं कभी इसे मां बाप की गोद में खोजते हैं तो कभी बीबी के प्यार में तो कभी धन दौलत और सोहरत में खोजते हैं। और कभी प्राप्त ही नही हो पाती। पल दो पल की शांति को प्रमानंद समझ लेते हैं। अंतकरण की प्रशन्नता के बाद सब दुखों का अभाव हो जाता है। और जब दुख ही नही होंगे तो शांति मिलेगी ही। यहां पर ये बात भी चिंतन करने की है कि भगवान ने ये नही कहा की दुख समाप्त हो जाते हैं। कहा कि दुखों का अभाव हो जाता है। अर्थात दुख तो हर मनुष्य के जीवन में आते जाते हैं ही लेकिन अगर हमारा अंतकरण हमारा चित्त प्रशन्न रहता है तो उनको दुखों का ताप सताता नही है। क्योंकि सम्पुर्ण प्राणीयों के लिए जो रात्री के समान है उसमें स्थित प्रज्ञ योगी जागता है इसका अर्थ यह नही है कि योगी रात को सोते नही। अरे भाई रात्री मतलब अंधकार, अज्ञान यानि की अगर किसी भी प्राणी के सामने वह पशु पक्षी या मनुष्य कोई भी हो उसके मन के अनुसार कोई काम नही होता तो दुखों में रोता है बिलबिलाता है। और सुखो की प्रप्ति में हंसता है कुदता और नाचता है। सब सुखों में संसारी जागता है तो योगी सोता है। लेकिन जो योगी है उस पर जब भी कोई दुख या कोई कष्ट आता है तो बङा सावधान रहता है जागता है और सुख में संसारी जागते हैं तो योगी सोता है यानि की उसे भी सावधानी से भोगता है। जो पूरूष सम्पुर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित अहंकार रहित और स्पृहा रहित रहता है वही शांति को प्रप्त है। यहां यह बात भी साफ कर दी कि शांति कहीं बाहर नही है जो कोई हमें दे देगा कोई प्रदान कर देगा। ऐसा सम्भव नही है। जो अशांति की जङ हैं वो हमारे अंदर ही हैं। हमारे अंदर पैर फैला चुकि ममता अंहकार और कामनाएं हैं। और ऐसा योगी अंतकाल में भी ब्रह्मानंद यानि की सात्विक आनंद को प्रप्त होता है। ये बात इसलिए लिख रहा हुं कि आनंद तो हम विषयों को भोगते हुए भी अनुभव करते हैं। यहां उस आन्नद की बात हो रही है जो सास्वत है ध्रुव है जिसे प्राप्त होकर सारे दुखों का अभाव हो जाता है। चाहे कुछ भी कर्म करो तो आन्नद ही मिलता है कोई तनाव नही हो सकता। क्योंकि हम लोग सारा दिन सुबह से रात तक कोई ना कोई कर्म करते ही रहते हैं और कोल्हु के बैल की तरह पिलकर भी अशांति और पीङा का ही अनुभव करते हैं। तब भी भयभीत रहते हैं। लगता है जैसे कोई गलती हो गयी है कोई भुल हो गयी हो लेकिन स्थिर बुद्धि पुरूष जो भी कर्म करता है उसमें सुख शांति ही का ही अनुभव करता है।
बोलो कृष्ण भगवान की जय गीता माता की जय

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

प्रेम बङा दुर्लभ है----



दिखता तो ऐसा नही है हमें तो हर तरफ प्रेम ही प्रेम ही दिखता हम तो दिन में कई बार सुनते होंगे की जैसे कोई कहता है कि मैं तो फलां आदमी से बङा प्रेम करता हुं। और वह भी मुझसे बहुत प्रेम करता है। जब चारो तरफ प्रेम ही प्रेम है तो आप सोच रहे होंगे की शिवा पागल हो गया है क्या जो कह रहा है कि प्रेम बङा दुर्लभ है। ऐसा हो सकता है कि शिवा के जीवन में ही प्रेम ना हो सिर्फ और सिर्फ जीवन नीरस हो।
चाहे कोई जैसा भी समझे लेकिन मैं जीवन के तथ्यों को गहराई से जांचकर परखकर उनका विशलेषण करके ही कुछ लिखने का साहस करता हुं।
सच्चाई बङी कङुवी होती है कई बार सच को निंगल पाना नामुनकिन हो जाता है। और हम ऐसी असमंजस की हालात में फंस जाते हैं की अगर स्वीकार करें तो मरे ना करें तो मरे। हमारे यहां एक कहावत है पागल गिदङ के किसी ने कान पकङ लिए अब छोङे तो खाने का डर और नही तो कब तक पकङे रखेगा। तो यह सच्चाई है कि प्रेम बङा दुर्लभ है अर्थात प्रेम होना बङा कठिन है।
यहां संसार में तो कोई मानने को ही तैयार नही होता क्योंकि आप हो या मैं हममे से कोई भी नही चाहता की हमारी किसी भी बात की पोल सबके सामने खुल जाये सबके सामने उजागर हो जाये।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में एक जगह कहा है कि हजारों में कोई एक मुझे खोजने के लिए चलता है यानि की हजारों में से किसी एक के अंदर प्रेम का बीज अंकुरित हुआ। और उनमें से भी कोई एक है बिरला जो मुझे तत्व से जानता है। कितना स्पस्ट कहा है लेकिन हमारी तो समझ में ही नही आता। अरे बाबा जब किसी के अंदर प्रेंम उपजेगा तो ही तो प्रमात्मा की तरफ चलेगा अर्थात मानवता, अहिंसा, सदभावना, सहयोग, मैत्री और करूणा ह्रदय में प्रवेश करेगी।
सर्वप्रथम यह समझना चाहिए की प्रेम है क्या कैसे होता। कई बार हम किसी और चीज को ही प्रेम समझते रहते हैं। और भागते रहते हैं जीवन भर उसी के पीछे पागलों की तरह, और पता भी नही रहता की क्या कर रहे हैं और जाना कहां है। और अंदर ही अंदर खुश होते रहते हैं कि प्रेम प्रमात्मा का गुण है जो हमारे भीतर सबसे ज्यादा है।
एक छोटा सा उदाहरण है एक कोई गरीब आदमी था बेचारा उसने जीवन में कभी खीर नही देखी थी। उसका एक साथी खीर की बङी तारिफ कर रहा था। आज तो भाई मजा आ गया किसी ने मुझे खीर खिलाई। उस बेचारें ने बङी सहजता और भोलेपन से पुछा कि भाई कैसी होती है खीर.............
दोस्त ने कहा मीठी स्वाद्धिष्ट बङी लजीज होती है।
उसको क्या पता बेचारे को पुछता है की भाई देखने में कैसी होती।
अब वो कैसी बताये सामने एक बगुला खङा था कहने लगा देख इस बगुले जैसी सफेद होती है।
तो आप और हम सब समझ गये कि क्या हर सफेद चीज खीर हो सकती है। वैसी ही उपमा प्रेम की हो रही है। हम चाहे किसी से भी बात करके देखे बस यही कहेगा की मुझसे ज्यादा प्रेम तो कोई करता ही नही। कि इतना प्रेम करता हुं की फलां आदमी के बिना जी नही सकता। अरे भोले भाई प्रेम तो जीना सिखाता है जीवन को कैसे जीये ये हमें सिखाता है। जहां यह बात है कि हम जी नही सकते, तो प्रेम के बजाय कुछ ओर ही है जिसका हमने दर्शन किया है। राधा ने तो कभी नही कहा था की मैं कृष्ण के बिना नही जी पाऊंगी। और मीरा तो कृष्ण के प्रेम के आन्नद में झुम उठी थी, और कोई भी व्यक्ति दुखों में तो झुमेगा नही। भगवान श्री कृष्ण प्रेम के महासागर हैं। इसलिए बार बार कहते हैं कि हे अर्जुन तु मेरा सखा है भक्त है इसलिए जो गोपनीय से भी गोपनीय ज्ञान है वह मैं तुझे दे रहा हुं। अर्थात वह रहष्य तुझे बता रहा हुं। और हमारा कैसा प्रेम है। कि मैं फलां से प्रेम करता हुं वह भी मेरी सारी बात मानता है लेकिन जिस दिन उसी आदमी ने हमारी कोई बात मानने इंकार कर दिया तो सारा प्रेम टुटकर बिखर जाता है अब उससे खराब कोई नही है वह ही हमारा सबसे बङा दुष्मन बन जाता है। अरे भाई प्रेम तो दिव्य है अलौकिक है असीम है किसी का बंधन नही होता इसके ऊपर। और अगर किसी के अंदर एक बार अंकुरित हो जाये तो फिर जो भी उसके निकट आयेगा सभी को प्रेम मिलेगा ऐसा नही है जैसे एक मां अपने बच्चे को तो सीने से गलाकर रखती है और दुसरे का बच्चा चाहे रास्ते पर पङा रोता रहे कोई दया नही आती कोई प्रेम नही उमङता इतना स्वार्थी नही होता प्रेम इतना संकुचित नही होता।
जैसा आजकल देखा जा रहा है हम सबके समक्ष है एक लङका और एक लङकी आपस में बहुत प्यार करते हैं और एक दुसरे के लिए सभी दीवारें सभी मर्यादाएँ तोङकर मां बाप के प्रेम को ठोकर मारकर एक बंधन में बंध जाते हैं। कितना अटुट प्रेम है जिसने मां की ममता को भी दरकिनार कर दिया और पिता की परवरिश को भी अनदेखा कर दिया। एक दुसरे की हर बात को हर क्षण मानने को तैयार रहते हैं। एक दुसरे की दिल की धङकन हैं। कुछ समय बाद उन्ही के घर के प्रेम के मंदिर में हिंसा के कुत्ते भौंकते हैं नफरत और घृणा हर पल नाचती है। तो कहां छु मंत्र हो जाता है वह प्रेम। समझना बहुत कठिन है कोई सच्चाई को स्वीकार नही करना चाहता। सब भ्रम में जी रहे हैं। लोगो ने अपनी इच्छाओं को आसक्ति को प्रेम का चोला पहनाकर सबको को धोखे में रखते ही हैं स्वंय को भी धोखा दे रहे हैं।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-- 9210650915

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता-प्रथम



प्रथम अध्याय---
दुख और मोह से पीङीत है दुनिया
गीता का प्रारम्भ होता है युद्ध के मैदान कूरूक्षेत्र से, जहां कोरव और पांडव अपनी अपनी सेना के पुरी तैयारी में हैं। इसमें ऐसा दिखाया गया आदमी पहले भी कितना चतुर और चालाक था। यहां आपको कुटनीति, राजनीति, रणनिती सभी का दर्शन होगा बस ध्यान से एक एक बात को गहराई से चिंतन करते चले कुछ छुट ना जाये। कहीं ऐसा ना हो की जो काम का हो वो ही हमारे हाथों से निकल जाये और बाकि सब कुछ पकङे रहे। इस बात के प्रति सावधान रहे। और ये बात तो स्वंय भगवान ने भी कही है की यदि में कर्मों में सावधानी ना बरतु तो बङी हानि हो जाये। अगर हम भी सावधान नही रहेंगे तो कोई हानि तो होगी ही। इसलिए सचेत रहे सजग रहे। गीता शास्त्र ऐसा सागर है जिसमें से हर व्यक्ति को अपने अनुसार वो सबकुछ मिल सकता है जिसकी उसे जरूरत है। और यह भी देखना है कि आज ही नही पहले से ही यह मानव किस तरह अपना काम निकलवाने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता था। लालच और स्वार्थ ऐसा है कि राजा धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो रही है कि युद्ध के मैदान क्या हो रहा है। इतनी उत्सुक्ता हो रही है लङाई देखने की और यह भी पता है कि यह कोई आम युद्ध नही है इसमें लाखों लोग मारे जाने वाले हैं। रक्त की नदियां बहने वाली हैं। और जो भी होगा उसमें उन्ही के बच्चे मारे जायेंगे क्योंकि पाडव और कौरव दोनो ही अपने हैं। प्रथम अध्याय में ही हमारे सामने दोनो बात आ जाती हैं कि एक तरफ युद्ध को देखने के लिए और करने के लिए लालायित हैं तो दुसरी तरफ अर्जुन इतने बङे नरसंहार के परिणाम की कल्पना करके कहते हैं कि हे भगवान में अपने गुरूजनों ताऊ चाचा दादा प्रदादाओं को मारकर भीख लेकर खाना भी कल्याण ही समझता हुं। क्योंकि उनके रूधिर से सने हुए भोगों को नही भोग सकते हैं हम लोग। युद्ध की तैयारी होते हुए ही दुर्योध्न गूरू द्रोण के पास जाता है। यहां यह बात स्पस्ट होती है की कितना चालाक था दुर्योध्न की सेना का सेना पति भीष्म है। और वह सबसे पहले द्रोण के पास गया। और जाकर अपने सेनापतियों की गिनती कराता है और सबसे पहले द्रोण के सामने उनका ही नाम लेता है जिससे की वह खुश हो जाये। वह जानता था कि ये सब लोग लङ तो तेरी तरफ से रहे हैं लेकिन भावना पांडवो की तरफ है। उनका अहित नही करना चाहेंगे। तो वह अपनी साम,दाम,दंडभेद वाली सारी प्रकिया अपनाता है। हर व्यक्ति के जीवन में शंखनाद होता है। महाभारत में भी शंखनाद हुआ। बताया जाता है कि युद्ध का शंखनाद किया भीष्म ने। हर बात के दो पक्ष होते हैं एक अच्छाई दुसरा बुराई, एक धर्म दुसरा अधर्म। लङाई और हिंसा धर्म नही करना चाहता जब भी लङाई हिंसा तकरार कुछ भी कहो वो अधर्म ही करता है। उस समय भीष्म अधर्म के साथ हैं तो शंखनाद भी उन्ही की तरफ से हुआ। उसके पश्चात स्वेत घोङो के रथ पर बैठे श्री कृष्ण महाराज ने पाचजन्य शंख बजाया। स्वेत घोङो पर सवार अर्थात शांत है जब अधर्म बढ रहा है तो धर्म के रक्षा के लिए पंचजन्य बजाकर युद्ध का शंखनाद किया। गीता तो हर कोई पढ सकता है मैं तो सुक्ष्म बातें आपके समक्ष रखने चाहता हुं। अधर्म के साथ कोई भी चलना नही चाहता हर कोई बचता है। संजय बताता है कि महाराज वह शंखनाद ऐसा हुआ कि आपके पक्ष वाले योद्धाओं के ह्रदय विदीर्ण कर दिये भयभीत कर दिये। यह बात समझने की अब तो संजय भी कौरव पक्ष को अपना नही मान रहा। अगर कोई नोकर मालिक के पास बैठा होता है तो वह यही कहता कि हमारा पक्ष। लेकिन संजय को भी ज्ञात था कि ये सब गलती पर है पाप के साथ हैं अधर्म के साथ है और कोई नही चाहता की मैं पाप का साथ दुं वही किया संजय ने।
इसके पश्चात कितना गहरा रहष्य है कपिध्वज से संबोधित किया है यहां अर्जुन को। अर्जुन कहता है की हे कृष्ण में इस सेना को देखना चाहता हुं। कपिध्वज यानि की जिसकी झंडे पर पताका पर हनुमान जी है यह प्रतिक है। हम सब भी किसी ना किसी प्रतिक के साहरे चलते हैं। गीता में यह दर्शाने की क्या जरूरत थी लेकिन उन्होंने समझी थी क्योंकि जिस प्रतिक के साहरे हम चल रहे हैं उसके गुण भी तो हमारे अंदर होने चाहिए ना। हनुमान जी जिन्होंने अधर्म के विरूद्ध पाप के खिलाफ 100 योजन का समुंद्र लांघ कर रावण की गुफा जहां पर यमराज भी आने से कतराते थे वहीं पहुंच गये थे। और अर्जुन ध्वजा पर हनुमान जी का प्रतिक लगाया है लेकिन अब असमंजस में पङ गया और ऐसी घङी में जब युद्ध का शंखनाद हो गया तब देखने की इच्छा कर रहा है। सब बातें भुल गया की ये वही लेग हैं जिन्होंने द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयत्न किया था और धोखे से लाक्षाग्रह में जलाकर मारने की कोशिश की। और भगवान भी कम नही थे उसके रथ को ले जाकर भीष्म और गुरू द्रोण के सामने खङा कर दिया और उनकी तरफ उंगली करके कहते है कि देख ये सब हैं जिनसे तुम्हें युद्ध करना है। अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो रथ को दुर्योध्न कर्ण और दुशासन के सामने खङा करते और जिसे देखते ही अर्जुन का खुन खोल उठता। चाहे कितना भी कायर हो डरपोक हो लेकिन दुष्मन को सामने देखते ही मारने की सोचता है। लेकिन भगवान ने रथ खङा किया भीष्म के सामने जिसके हाथों से अर्जुन ने खाना सिखा, कपङे पहनने सिखे। गुरू द्रोण जिसने धनुष पकङना सिखाया तरकस टांगना सिखाया और आज उन्हीं के सामने धनुष लेकर खङा होना पङ रहा है।
उन सब को देखकर कहते हैं कि अर्जुन को मोह सा हो गया लेकिन स्वंय अर्जुन ने कहा है कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता। अर्थात कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला में धर्म के विषय में मोहीत हुआ आपसे पुछता हुं। और यहां पर जब उसने सारी सेना देखी की सब अपने ही हैं और इतने शक्तिशाली की सभी के पराक्रम से परिचित भी था। तो उसे कुछ मोह भी हो गया और भय भी हो गया। यहां पर कई लोग कहते हैं कि वह मनोरोगी हो गया था। यह भी संभव है क्योंकि मनोरोगी वही होता है जिसका कहीं ना कहीं शोषण हुआ हो या कुछ छिन गया है। और ये दोनो बात ही अर्जुन के साथ घटित हुई इसलिए मनोरोगी हो गया। और कि इन सब लोगो को मारकर राज्य भोगने से बेहतर तो ये ही होगा की धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्र रहित को मार डालें वह भी कल्याण कारक होगा। कितना भयभीत हो गया की हाथ से हथियार छुट रहा है शरीर काप रहा है मुख सुख रहा है त्वचा जल रही है। ये सब भय के ही लक्षण है मोह के नही। और इसी भय को छिपाने के लिए कितनी दुर तक की बातें बताने लग जाता है भगवान को ये मत समझना की ये सिर्फ अर्जुन के जीवन की घटना है हम सबके जीवन में भी यही सब हो रहा है। कहता है की अगर सब लोग मर जायेंगे तो कोन पुर्वजो के पिंड दान करेगा और सारी स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी और वर्णशंकर पैदा होगा। वह इस भयानक युद्ध से बचना भी चाह रहा था लेकिन यह भी सोच रहा था कि कोई यह ना कहे की डरकर भाग गया है। और कहता है कि हम बुद्धिमान होकर भी इस महान पाप करने को तैयार हो गये और एक आह सी निकलती है उसके मुंह से जिसका स्पस्ट वर्णन किया है कि हा शोक.......। जैसे पता नही कितना बङा जुलम करने जा रहा हो। आज यह युद्ध अर्जुन को पाप लग रहा है ना जाने कितने युद्ध किये और कितने लोगो को मारा तब पाप नही था। सब राज्य और सुखों को छोङकर वन जंगल में रहना ही पसंद करता है। साफ कह देता है की मुझसे युद्ध नही होगा। अब जरा चिंतन करो की क्या हम अपने जीवन में आये दिन किसी ना किसी जिम्म्दारी से पलायन करने की नही सोचते और उसका ठिकरा किसी और के सिर फोङते हैं। ऐसा युद्ध हमारे अंदर चलता ही रहता है और हमारा मन है कि कोई ना कोई बहाना बनाकर युद्ध से बचता रहता है और बातें घङने की आदत सा बन गयी है लेकिन जैसे हमारे पास कोई ऐसा नही है इससे हमें निकाल सके क्योंकि जो निकाले वह पहले ही ऐसा होना चाहिए जो इस समस्या से मुक्त हो। वहां तो भगवान थे कोई आम आदमी नही स्वंय भी उलझा रहे। भगवान ने पहले अध्याय में कुछ नही बोला क्योंकि जो व्यक्ति अपनी गलती छुपाने की कोशिश करता है वह सामने वाले को बोलने का मौका कम ही देता है। और सोचता है कि बस मेरी सुने और मान जाये। यहां तक पहला अध्याय है कि धनुष बाण सब छोङकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। इतना तनाव में पहुंच गया कि कुछ समझ ही नही आ रहा कि क्या करूं और क्या ना करूं। यह देखो ना कि जब आदमी किसी काम से बचने के लिए आत्महत्या करने तक की बात करने लगे तो कैसी स्थिती होगी कल्पना मात्र से ही सारे बदन में सिहरन सी दोङती है। भगवान सारथी भी है और अर्जुन के सखा भी है। पहले अध्याय को विषाद योग कहा गया है यानि की दुख का मिलना । और जब हम अपनी जिम्मेदीरियों से पलायन करेंगे तो दुख और विषाद तो प्राप्त होगा ही। अर्जुन को इतना भारी तनाव गलत नही हुआ था क्योंकि एक सैनिक होने के बाद भी वह युद्ध से बचने के रास्ते खोज रहा है तो क्या होगा अगर कोई शिक्षक, डाक्टर, इंजिनयर कोई भी अपने काम से अपने फर्ज से पलायन करेगा तो उसका परिणाम भारी तनाव और विषाद का योग तो भोगना ही पङेगा । शिवा तोमर-9210650915

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता



विस्व का सबसे पवित्र और प्राचीन ग्रंथ है श्री मद्भगवद्गीता। नाम तो इस शास्त्र का संसार के बहुत से लोगों ने सुना होगा लेकिन इसका अध्ययन किया होगा 4-5 प्रतिशत ने ही। और अगर दर्शन करने की बात की जाय तो हजारों में किसी एक ने इसका यथार्थ रूप से दर्शन किया होगा। लोग इसे पढना नही चाहते पलायन करते हैं इससे। और अपने को सही साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी बताते हैं। कोई कहता है कि ये तो हिंदूओं का शास्त्र तो कोई कहता है कि ये तो साधु संतो के लिए है, तो कोई युद्ध की जङ बताते है, कहते हैं कि अर्जुन तो युद्ध करना ही नही चाहता था कृष्ण ने यह उपदेश देकर कितना बङा नरसंहार कराया। मंदबुद्धि लोग ऐसे बाते करके ही इसके अध्ययन करने से बचने लगे।
यह भी सत्य है कि यह युद्ध क्षेत्र में दिया गया उपदेश है। लेकिन भगवान का मकसद युद्ध कराने का नही था, नही तो भीम और अर्जुन को कहीं भी भङका कर युद्ध करा सकते थे। लेकिन भगवान ने यह कहा है हे अर्जुन यह योग तो मैंने कल्प के आदि में सुर्य को दिया था ऐसा नही है कि तुझे ही दिया है। लेकिन अब यह लुप्तप्राय हो गया है इसलिए मैं तुझे यानि कि तेरे माध्यम से फिर दे रहा हुं। जिससे सभी का कल्याण हो सके। इसकी आवस्यकता तो सभी मनुष्यों को थी और रहेगी। और जब जब लोग इससे विमुख होगें तो ऐसे ही भृष्टाचार अपराध हिंसा और व्याभीचार में वृद्धि होगी ही। ये बात नही है कि अर्जुन को यह लङाई करने के लिए दिया था। यह उपदेश तोङने के लिए नही जोङने के लिए है। नफरत के लिए नही प्रेम और सदभावना के लिए है। श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही ऐसे बातों से होता है कि जिससे ज्ञात हो कि कितनी अज्ञता भरी पङी थी लोगो में। धृतराष्ट्र कहता है हे संजय कुरूक्षेत्र में मैंरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया है क्या कर रहे हैं वो। जहां श्री कृष्ण स्वंय मोजुद हो भीष्म, गुरू द्रोण, कृपाचार्य, और राजा स ऐसी बात करें तो कितना गलतो हो सकता है। तेरे मेरे की ओर पाडुं पुत्र तो उन्हें सर्वस्व ही समझते थे लेकिन मोह और लोभ में अंधा धृतराष्ट्र के मन में तेरे मेरे की दीवार बन गयी थी। तो ही ऐसी बात कर रहा था। तो देश समाज इमानदारी और इन्सानियत का क्या होगा हर तरफ मारा मारी हर तरफ खुन खराबा ही होगा। एक राजा के अंदर ऐसे भाव तो क्या होगा समाज का ऐसी स्थिती में गीता का उपदेश दिया गया था। जिससे ऐसे भाव समाप्त होकर सदभावना जागे।
मैंने लिखा है जीवन का श्री मद्भगवद्गीता। मैं कोई ज्ञानी नही हुं बस उस महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का आभारी हुं जिन्होंने ऐसा विवेक दिया और मैंने गीता अध्ययन किया और इसमें पाया की यह तो जीवन का आईना ही है। यह हमें ऐसा दिखाती है जैसे हम होते हैं। मैंने कभी भी गीता को इस तरह से नही पढा की जैसे ये अर्जुन को सुनाई थी मैंने तो सदा इसी भाव से पढा जैसे ये मेरे लिए ही हो और मुझे ही सुनाई हो। गीता पढने का अपना लाभ है मैं ये नही कह रहा की लाभ नही है। यह तो दिव्य है अलौकिक है निर्मल है । इसके स्पर्स मात्र से ही कल्याण हो जाये। लेकिन जो भगवान ने आदेश दिया है उस पर चले बिना कैसे मंजील तक पहुंचेगे। जैसे सङक पर चलने के लिए कई दिशा निर्देश लिखे होते हैं जैसे लाल बत्ती हो गयी, कहीं पर बोर्ड पर लिखा होगा की प्रवेश वर्जित है, तो कही लिखा होगा की गाङी खङी ना करे ये सभी निर्देश हमारी सुरक्षा के लिए जिससे हम अपनी मंजील तर जल्दी और बिना किसी कष्ट के पहुंच सके इसिलिए बनाये हैं।
गीता को कहानी की तरह से नही पढना है बल्कि उसमें दी गयी शर्तों के अनुसार ही पढना है तभी हम अपनी मंजील कर पहुंचेंगे। भगवान ने कदम कदम पर संकेत दिया है ये नही करने या ऐसा करोगे तो लाभ होगा लेकिन हम वो संकेत तो देखते ही नही और अपनी गाङी को 100 की रफ्तार से भगाते रहते हैं और टक्कर मारते रहते हैं और कोसते रहते हैं कि हम तो भगवान का नाम लेते हैं उनका ध्यान करते हैं गीता भी पढते हैं लेकिन विपत्तियां तो हमारे ऊपर आती ही रहती हैं। अरे भाई जब हम संकेतो को देखकर चलेंगे ही नही तो परेशानी तो आयेगी ही। मेरा यह लिखने का उद्देश्य यह नही है कि किसी को ज्ञान दुं ज्ञान तो सभी के पास है। हो सके किसी की नजर में कोई संकेत आ जाये और हमारी जीवन की गाङी सही सलामत पहुंच जाये अपनी मंजील तक। यह मैं लिखने की कोशिश कर रह हुं अगर कोई त्रुटी हो या सुझाव हो तो जरूर बतायें।