गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

काहे का अभिमान


अभिमान यह एक ऐसा भाव है जो हर मनुष्य के अंदर भरा होता है। इसके भाव से भावित रहता है। क्या है अभिमान। मैं किसी की कही या लिखी बात नही कर रहा जिस समय जो अनुभव होता है उसे शब्द्धों का रूप दे देता हुं। तो बात चल रही है अभिमान की यह होता है या कहा जाय कि इसका क्षेत्र मैं और मेरे में होता है। अर्थात मैं इतना बुद्धिमान इतना बलवान शक्तिशाली इतनी पहुंच वाला मेरा ऐसा मकान व्यापार अच्छी नोकरी मेरे इतने अच्छे बच्चे जो मैं कहुं या जो मैं करुं वह सब सही जो अन्य कोई करे वह गलत। यानि कि अपने को दुसरे की तुलना में श्रेष्ठ समझना तथा दुसरों को तुच्छ समझना।
ये बातें मैंने मोटी मोटी वो लिखी हैं जो सबकी समझ में आ जाये। हर रोज इतनी धर्म की बातें होती हैं सभाए होती हैं। करोङो लोग रोज किसी ना किसी संत या मौलवीयों से धर्म कर्म की बातें सुनते हैं। जो कहते हैं अभिमान नही होना चाहिए अहं नही होना चाहिए। यह हमारे उन्नति के मार्ग में बहुत बङी बाधा है। और वास्तव में यह सत्य भी है। लेकिन हम बार बार अभिमान के वेग में उङते हैं और ठोकर खाकर गिर पङते हैं। जिस पर भगवान की कृपा होती है उसको थोङा बहुत समझ आ जाता है अन्यथा उठने और गिरने का यह क्रम जीवन भर जारी रहता है।
मुझमें भी बहुत अहं अभिमान की गंदगी भरी पङी थी इसके कारण मुझे कई बार बहुत हानि और कष्ट उठाना पङा। लेकिन जब तक भगवान की कृपा का हाथ हमारे सिर पर नही आता तो हमारे आगे अभिमान रूपी पत्थर पङे दिखाई नही पङते। और फिर ठोकर खा जाते हैं। मेरे साथ एक घटना घटी जिसने मुझे प्रभु की कृपा प्राप्त करा दी। मैं 1999 में किसी कारण से जेल चला गया वहां जाकर देखा की लोग कैसे रह रहे हैं कैसे सोते हैं। क्या मैं यहां सोने के लायक हुं अहं भरा पङा था ना यह सब वो ही कह रहा है। एक बैरिग में करीब 100 से भी ज्यादा लोग सोते रहते थे। सारी बातें मुझे याद आ रही थी क्या कमी है हमारे घर में। मैं वहां के माहोल को बिलकुल भी अपने लायक नही समझ रहा था और यही कारण था कि किसी से भी बात नही करता। प्रमात्मा तो बङे शक्तिशाली हैं। उनको तो घमंड अंहकार बिलकुल भी पसंद नही है। क्योंकि अहं के चंगुल में फंसकर ही प्रमात्मा से दुर होता है उनसे विमुख होता है। जहां पर 40 आदमीयों के सोने की जगह वहां पर 100 से भी ज्यादा सो रहे फिर भी पता नही क्या वहां मुझे कहा कि यहां से जा बहार जाकर सो। मैंने उससे कहा कि कम से कम बात तो प्यार से कर ले। वह और ज्यादा भङक गया। मैं वहां से चुपचाप निकल गया। सारा दिन तनाव से भरा रहा। मैंने अकेले एक पेङ के निचे बैठकर सोचता रहा कि आखिर यह सब है क्या। ऐसा क्यों हो रहा है। मेरा दिमाग तेजी से चल रहा था। यह कैसी विडम्बना है कि दो दिन पहले ही में अपने घर में आराम से सौ रहा था तो आज ही मेरे पास बैठने के लिए भी जगह नही है। ऐसे हालात बन गया कि एक पेङ के निचे बिलकुल अकेला बेसाहरा अनाथ की तरह बैठा। कोई कुछ पुछने वाला नही। कहां गया घर बार मां बाप भाई बहन यार दोस्त धन दौलत कुछ भी काम नही आया। किस चिज का अभिमान।
फिर मुझे एक घटना याद आयी पांडवो ने इंद्रप्रस्थ बसाया ऐसा भव्य किला कि आज तक कोई दुसरा बना पाया। लेकिन प्रभु की मर्जी की सोने के सिंहासन पर बैठने वाले फुलों पर चलने वाली द्रोपदी जंगल के कांटो पर रहे धरती पर सोये तो हम काहे का अभिमान करते हैं।
दोस्तों ये सिर्फ मेरे ही जीवन की सच्चाई नही हर व्यक्ति के समक्ष प्रमात्मा संकेत देते हैं। लेकिन जिस पर कृपा नही होती वो नही समझ पाते की करोङो की गाङी में बंगले में रहने वाले इस शरीर को एक झटके में ही ऐसा कर देंगे कि जिनको अपना समझता है वो ही इसे आरामदेह विस्तर से उठाकर सफेद चद्दर पर ढांप कर धरती पर लिटा देंगे।

जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर- 09210650915

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

बापु को श्रद्धांजली



सुबह से ही हर अखबार में न्युज चैनल पर बापु को श्रद्धांजली दी जा रही है। सरकार 2 अक्तुबर को इतना खर्च देगी की हमारे सैंकङो गरीब परिवारो को खाना मिल सकता है। जगह जगह बहुत बङी बङी सभायें होगी। सारे नेता बयानबाजी करते देखे जायेंगे बापु प्रतिमा पर पुष्प चढायेंगे। उनके जीवन की चर्चा करके उनके कार्यों की सराहना करके एक दुसरे को हम सबको उस पर चलने के लिए कहेंगे। और कार्यक्रम खत्म हुआ कोन बापु कोन गांधी सब भुल जायेंगे।
क्या यही मकसद था बापु का कि मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर पैसा बहायें और सभाएं करके भाषणबाजी करें।
क्या सोच रहे होंगे बापु रो रहें होंगे कहीं कोने में खङे होकर।
कहीं उनके चष्में की बोली लग रही हैं कहीं किसी और सामान की। सबसे पहले तो ये देखो की बापु ने हमारे लोगो को क्यों नही दी सारी अपनी चीजें जो आज विदेश में बौली लग रही है। अगर इस लायक समझते तो अपने बच्चों को ही देते। कोन पिता चाहता है कि उसकी कोई भी वस्तु किसी दुसरे के घर जाये।
लेकिन दोस्तो बापु को किसी भी चीज से आसक्ति नही उन्होने तो अनासक्त जीवन जीया है। 1892 के करीब बापु 300 रूपये प्रतिमाह कमा लेते थे। क्या कमी थी उनके पास वो भी हम सबकी भांति मोज ले सकते थे। ऐसो आराम का सब सामान तो था ही अपने परिवार के साथ आन्नद से जीवन जी सकते थे।
आज के नेता जो देश को चला रहे हैं जो आज के दिन बापु को पुष्प अर्पित करके श्रद्धांजली देंगे। अगर उनको उनकी पसंद का बंगला नही मिलता तो रहते नहीं। जिस देश में गरीब किसान रोज आत्म हत्या कर रहे हैं। आये दिन ना जाने कितनी मासुमों की चीख से दिल दहल उठता है। पता नही कितनी अबोद्ध बच्चीयां भेङियों की हवस की शिकार हो रही हैं। ना जाने कितने हिंसा का शिकार हो रहे हैं।
वहीं इन सब हालातों से बेखबर हमारे देश के नेता फाईव स्टार होटलों में कई कई महिने मोज करते है।
उनको तो बस आज मौका प्रप्त हुआ है। उस आदमी की प्रतिमा पर फुल चढा रहे हैं जिन्होंने अपनी गरीब जनता की हालात देखी। एक बार बापु सुना है कि उङीसा में चले गये वहां देखा कि औरतों के पास बदन ढांपने के लिए कपङा तक नही है। तो बापु की आंखों में आंसु आ गये। और क्या किया जरा ध्यान देना देश के नेताओं वो कहीं फाईव स्टार में नही गये। जो बापु दो सुती धोती लपेटते थे उनमें से एक को किसी महिला को ओढने के लिए देकर स्वयं एक धोती के दो टुकङे करके एक को लुंगी की जगह बांध लिया तो दुसरे भाग से शरीर के ऊपर के हिस्से को ढांप लिया। ये थे बापु गांधी।
मेरी तो समझ ही नही आ रहा कि मैं उन्हें क्या अर्पित करूं। मेरे पास क्या है उस महान पुरूष को देने के लिए। जिन्होंने अपना ही नही परिवार को भी इस देश को समर्पित कर दिया था। मां कस्तुरबा गांधी कितने दिनों जेल में रही और सुना है कि अंतिम सांस भी जेल में ही ली है। क्या कसुर था उनका क्या पङी थी बिना बात इतना कष्ट उठाने की।
70-75 साल की वृद्धवस्था में आराम करने के दिन फिर भी अन्याय और अत्याचार का पुरजोर विरोध किया और नमक उठाकर नये कानुन की खिलाफत की।
आज बापु मात्र किताबों तक ही सिमित रह गये हैं या फिर भाषणो में। 2 अक्तुबर को विस्व अहिंसा दिवस मनाया जाने लगा। लेकिन क्या विस्व में अहिंसा है। सारी दुनिया उस महान पुरूष को मान रही है। फिर ऐसा क्या है जो बढती हिंसा पर काबु पाने में नाकाम हो रही है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि एक आम आदमी मोहनदास कर्मचंद गांधी को ऐसा कोनसा पारस प्राप्त हुआ था जिससे लोग उन्हें बापु, राष्टपिता कहने लगे और उनकी महानता के ऐसे दीवाने हुए की उस वृद्ध शरीर जिसमें ताकत सिर्फ चलने के लिए ही थी उनके पिछे पागलों की तरह जनता चलती थी। उनके मुख से निकला एक एक शब्द्ध को गुरूमंत्र की तरह मानते थे।
दे दी हमें आजादी बिना खङग बिना ढाल,, साबरमति के संत तुने कर दिया कमाल।
कोनसा सुत्र था वो जिससे उन्हें कभी किसी भी चीज से आसक्ति नही हुई। अनासक्त रहे।
कहां से प्राप्त हुआ सत्य और अहिंसा का मार्ग जिसकी वजह से बापु ने सत्याग्रह किये।
बापु के वाक्य हैं कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इस बात को भुलकर लोग उन पर फुल चढाने में लगे हैं उनके चस्में उनकी लाठी के पिछे पङे हैं। अरे पागलों नादान भाईयों बापु के जीवन में ही वो रास्ता है वो संदेश है जिसको हम उन्हें श्रद्धांजली दे सकते हैं।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

बुधवार, 16 सितंबर 2009

हम तुमसे जुदा होके मर जायेंगे रो रोके



कई वर्षों पहले किसी फिल्म में के गाने में सुनी थी ये पंक्ति कि मर जायेंगे रो रो के। कितना प्रेम दिखाया गया है। कि जुदा हुए तो मर जायेंगे। कैसा अनुठा नाता है। एक दुसरे के प्रति ऐसा भाव इतना प्रेम की आंखो में आंसु और दिल से आह निकल रही है। ये पंक्ति दिल की गहराई से लिखी गयी है। हर आदमी अपने विवेक के अनुसार ही इसका अर्थ निकाल रहा है। इससे संबंधित एक दृष्टांत आता है तुलसीदास जी के जीवन का। एक दफा उनकी पत्नि कई दिन के लिए अपने मायके चली गयी। तो वो उनसे मिलने के बैचेन हो गये तङप गये। जब उनकी जुदाई नही सही गयी एक एक पल काटना बङा ही भारी और दुखद लगने लगा और वही हालात हो गयी कि हम तुमसे जुदा होकर मर जायेंगे रो रो कर। तो वो रात को ही उठकर ही चल पङे। अंधेरी काली रात के सन्नाटे को चीरते हुए तुलसीदास जी कामांधाग्नि की ज्वाला में धधकते हुए पत्नि के मायके की तरफ चले जा रहे थे। रास्ते में एक बहुत गहरी नदी भी थी। जिसे पार करने बहुत ही मुशिकल था। तो अचानक उन्हें कोई चीज तैरती हुई नजर आयी तो वो उसी के ऊपर लपक कर चढ गये। उन्हे यह भी नही दिखाई दिया कि जिस पर बैठकर यात्रा कर रहे हैं वो तो लाश है। वह तो उस वेदना में जल रहे थे जिसने आंखे बंद कर दी थी। यानि की हम सब की आंखो पर अज्ञान का पर्दा डाल दिया। बस उन्हें तो पत्नि के पास पहुंचना था। नदी पार करके पत्नि के घर तक पहुंच गये। अब आगे कैसे जाये दरवाजा बंद सब सो रहे हैं इस बेवक्त जगा भी नही सकता। क्योंकि समाज की लाज शर्म भी तो होती है।
पत्नि के कमरे की खिङकी खुली दिख रही थी। लेकिन चढे कैसे वहां तक। उनकी किष्मत अच्छी थी रात को भी एक रस्सी लटकी नजर आयी तुलसीदास जी उसे ही पकङकर चढ गये। पत्नि ने देखा तो अचम्भीत हो गयी। उसे तो यकिन ही नही हो रहा था कि वो इतनी रात में आ सकते थे। उसने पुछा कि आप कैसे चढे तो तुलसीदास जी ने बङी सहजता से बता दिया कि आपके खिङकी के पास एक रस्सी लटक रही है। जैसे ही उसने आश्चर्य से देखा तो देखती ही रह गयी क्योकि वह रस्सी नही सांप था। उनकी पत्नि भी बहुत समझदार थी उन्होने एक बात कही जिसने तुलसीदास जी को ऐसा मार्ग दिखाया जिससे आज सारा देश ही उन्हे याद करता है। उन्होने कहा था कि
जितनी नियत हराम में उतनी हर में होय,
तो चला जा बैकुंठ को पल्ला पकङे ना कोई।
भाईयों ये वही मार्ग है जिसकी जुदाई में सारा जीवन रोते रहते हैं और मर जाते हैं। लेकिन हम सब अपनी तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता के कारण उन नेत्रों से इसका दर्शन नही करते। जिसका रास्ता तुलसीदास जी की बीबी ने दिखाया था। लेकिन हमने हम सबने अपनी सुविधा के अनुसार ही इसका वर्णन किया। कोई अपनी बीबी की जुदाई में रोता रहा तो कोई अपनी प्रेमिका के गम में कोई धन के वियोग में मर रहा है तो कोई किसी की जुदाई में।
हर व्यक्ति के अंदर से आवाज निकलती है कि तु अपने प्रियतम से बहुत लम्बे समय से बिछुङा हुआ है। और उसी की जुदाई में ही कभी इधर कभी उधर भागता रहता है रोता रहता है। यही तो इतने जन्मों से होता आया है लेकिन क्या करे जहां हमें अपने प्रेमी को खोजना चाहिए वहां तो खोजते नही और बस किसी और से ही अपना काम चलाने की सोचते हैं। कुछ समय तक तो हमें शांति सी मिलती है लेकिन वह शास्वत नही है ध्रुव नही है। वो तो अनित्य है क्षणिक है।
किसी किसी के अंदर थोङी सी चेतना आती है तो वह अपने दिल की तङप को कागज पर लिखकर ही शांत कर लेता है। हम तुमसे जुदा हो के मर जायेंगे रो रो के,,,,,,, और इसे ही गाते रहते हैं। इससे तृप्ति तो होती नही लेकिन जैसे किसी मरीज को नींद नही आती है और दवा देकर डाक्टर लोग थोङा आराम दे देते हैं बस यही हम सब कर रहे हैं।
हम थोङी थोङी सी शांति को वही समझ जाते हैं जिसकी जुदाई में रो रो के मरते रहते हैं। हमें उसे ही खोजने का प्रयत्न करना चाहिए।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

शनिवार, 12 सितंबर 2009

बङे शर्म की बात है- क्या होगा इन लङकियों का



सोनिया गांधी जी शीला दिक्षित जी जबाब दो
कल की एक खबर पढकर दिल भर आया की कैसे हालात हो गये हैं देश के। हमारा युवा वर्ग किस तरह से अपराध और सैक्स के चंगुल में फंसकर अपना भविष्य चौपट कर रहा है। खजुरी खास के एक स्कुल में परिक्षा के दौरान जो कुछ भी हुआ उस हादसे से आज सारा देश तो शर्मशार है ही लेकिन, एक बात और है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के देश की ही आज मर्यादा खतरे में है। हमारे बच्चे आज अश्लीलता के चंगुल में इस तरह फंस गये हैं कि खुले आम लङकियों के कपङे फाङकर अपनी हवश पुरी कर रहे हैं। अभी सरकार ने महिलाओं को 50 फिसदी आरक्षण दिया है। जो 5-7 लङकियां उस हादसे कि शिकार हुई हैं क्या कोई आरक्षण उस क्षति को पुरा कर सकता है। और जो दर्जनों मासुम बच्चीयां उस विभत्सय दृष्य की साक्षी हैं जो अभी सदमें से लङ रही है उनका क्या होगा। जिसने भी वह दृष्य अपनी आंखो से देखा अभी भी याद करके उनके शरीर के रोंगटे खङे हो जाते हैं। जो लङकियां ऊपर सिढियों से गिरती हुई निचे आयी क्या उनमें हिम्मत होगी कि वो पढने के लिए स्कुल जाने का नाम ले। सारे देश में महिला दिवस.महिला कल्याण और बहुत से नामों से पैसा और समय बरबाद किया जा रहा है।
स्कुल कालेजों में योन शिक्षा के माध्यम से भी जागरूक करने का काम किया जा रहा है। लेकिन परिणाम हम सबके समक्ष है। और ऐसा सिर्फ एक स्कुल में ही नही हो रहा सारे देश में ही देख लो जितना भी अपराध, हिंसा, अश्लीलता और व्याभीचार बढ रहा है उस सबमें 80 प्रतिशत कालेज और स्कुल के विधार्थी ही हैं।
समझ नही आ रहा कि किसके हाथ की कठपुतली बन गये हैं लोग... कहां से इतना दिमाग आ रहा है। अश्लीलता को और ज्यादा बढाने का काम समलैंगिकता को स्वीकृति देकर किया जा रहा है।
एक दिन मैं अपनी ड्युटी करके घर जा रहा था तो स्कुल की भी छुट्टी हो गयी। तो बच्चे आपस में बात कर रहे थे मैंने ध्यान से सुना तो उनमें से एक कह रहा था कि अब सरकार और कोर्ट ने थी इजाजत दे दी है होमोसैक्स को। मैंने उससे पुछा कि भाई क्या होता है यह। उसने बङे लापरवाह अंदाज में कहा कि अंकल ज्यादा तो पता नही लेकिन अब लङकियों कि जरूरत नही रहेंगी।
अब आप ही चिंतन करो कि कैसा परिणाम रहेगा योन शिक्षा और समलैगिकता जैसी बातों का हमारे बच्चों पर।
एक दिन मैंने एक अखबार में पढा था कि एक 12 वर्ष का लङका बाप बन गया और लङकी है 14 साल की। ये खबर किसी पश्चिमी देश की थी। देखो तो सही कि दुनिया कितनी तरक्की कर रही है।
सरकार कहती है कि दोषियों को खिलाफ कार्रवाही होगी। सुनते सुनते कान ही पकने लगे हैं। लेकिन क्या करें।
अब खजुरी खास के उस मनहुस स्कुल को खुनी स्कुल कहा जा रहा है। कह रहे हैं कि खुनी स्कुल में नही पढेगी लङकियां। लोगों का गुस्सा थमने का नाम नही ले रहा वहां पर भारी पुलिस लगा दी गयी। इससे ज्यादा कर सकती है सरकार।
जब तक मरीज कि बिमारी का डाक्टर को पता नही चलेगा कि मेरे मरीज को क्या बिमारी तो कैसे ईलाज होगा। यह कितने लानत की बात है कि लोग कह रहे हैं कि हमारी बच्चीयां इस स्कुल में नही पढेंगी। सरकार की बेबशी इससे ज्यादा और क्या देखने को मिलेगी। जनता तो ऐसी है जो सामने है बस वही देखती है। आज एक स्कुल से अपनी बच्चीयों को हटा लेंगे कल ऐसी घटना किसी और स्कुल में हो जायेगी। तो आखिर कहां मां बाप अपनी बेटीयों को सुरक्षित समझे। कितनी भी पुलिस बढा दी जायें थाने बना दिये जाये। यह तो बस ऐसी ही हमारी कोशिश है जैसे कोई महामारी फैल जाये और हर अस्पताल में दुनिया भर के डाक्टर बैठा दे और बिमारी की कोई दवा उनको ना दे तो कैसे होगी बिमारी से मुक्ति ?????????????????
बापु गांधी के सिद्धांतो को सारी दुनिया स्वीकार कर रही है। उनके जन्म दिवस को विस्व अहिंसा दिवस के रूप में भी मनाया जाने लगा। लेकिन हमारे ही देश में कोई भी उनके बताये सिद्धांतो को ना तो ग्रहण ही कर रहे हैं और ना ही कोई उन पर चल रहा है। आज के विधार्थीयों की तरह से गांधी जी भी ईंगलैंड पढकर आये थे। लेकिन उनके जीवन में ऐसा क्या कुछ था जिससे आज सारी दुनिया उनके कर्म, आचरण और व्यवहार को महान मानने पर मजबुर हैं।
जिस आयु के बच्चे आज लङकियों के कपङे फाङ रहे हैं उसी उम्र में उधमसिंह ने कितना महान संकल्प किया था।
विचार करने वाली बात यह है कि दिल्ली ही नही पुरे देश में ही देख लो हर व्यक्ति भय में जी रहा है। डरा हुआ है सहमा हुआ है। कि पता नही किस समय कोनसी घटना का शिकार बन जाये। बङे नेता बङे अधिकारी सब लोग बयान बाजी में पिछे नही रहते एक दुसरे पर वार करते रहते हैं। किसी को किसी से कोई मतलब नही कहीं कोई भावना नही। बस स्वार्थ ही समाया है चहुं और।
इस घटना को देखकर मुझे एक और घटना की याद आयी है जिसे आप हम सबने सुना है। जैसे इस स्कुल में लङकियों को वस्त्रहीन किया गया 5600 वर्ष पहले भी भरी सभा में एक महिला को वस्त्रहीन करने का प्रयास किया था तो परिणाम भी हम सबने सुना होगा।
ऐसी ऐसी घटनाओं से हर कोई चिंतित है परेशान है लेकिन क्या करे किससे कहे अपने दुखङे। क्योंकि कोई इस लायक नही है जो आज हमारे बच्चों के गिरते चरित्र को संवार सके। जो आयु खेलने और पढाई की है उसमें ही वो सैक्स और नशे के आदि होकर समाज की सुख शांति भंग कर रहे हैं।
शिक्षा के साथ साथ जरूरी है बच्चों को संस्कारी और चरित्रवान बनाना। लेकिन जो बात मैंने इतनी आसानी और सहजता से लिख दी है इस पर अम्ल करना और आचरण में लाना लोहे के चने चबाना है।
क्योंकि कोन देगा चरित्र निर्माण की शिक्षा।
जिसका स्वयं का ही चरित्र अच्छा नही है जो खुद ही भ्रष्टता में लिप्त हो वो दुसरो को कैसे पवित्र कर सकता है।
भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि श्रेष्ठ पुरूष जैसा जैसा आचरण करते हैं अन्य पुरूष भी वैसा ही करते है। तो इस बात का भी विचार करो जो हमारे समाज को चलाने वाले वो कैसे हैं उनका चरित्र कैसा है। जैसे शिक्षक हैं, नेता हैं पुलिस अधिकारी हैं, न्यायाधिश आदि हैं।
आज जो भी हालात हो रहे हैं उसमें किसी एक का हाथ नही हम सब उसमें साहयक हैं।
और उससे मुक्त भी हम ही कर सकतें हैं। अन्यथा आज एक स्कुल में घटना हुई है कल देखना आपके सामने होगा। भाईयों मैं तो इस हालात को देखकर दुखी होता रहुंगा और जितना भी हमसे होगा करते रहेंगे।
अब वो समय आ गया है जब उस लहर की आवस्यकता है जो इस सारी भ्रष्टता अश्लीलता हिंसा और अनैतिकता की गंदगी को उङाकर ले जा सके।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-9210650915

सोमवार, 7 सितंबर 2009

दिव्य अनुभुति



मैंने जीवन में इतना ध्यान किया, इतनी पुजा की बहुत अच्छा लगा। और बुरे से बुरा वक्त युं कट गया कि पता ही नही लगा। यह सब ध्यान और पुजा पाठ का ही परिणाम
था। और मेरा चिंतन मनन भी बहुत हो गया। ऐसी ऐसी परिस्थिती भी मेरे सामने आयी
लेकिन प्रभु की कृपा ऐसी रही की में कभी भी विचलित नही हुआ परेशान नही हुआ। और सुबह गीता पाठ करना ध्यान करना तो मेरे जीवन का मानो एक हिस्सा बन गया हो। लेकिन एक दिन घर पर भगवती कथा पढ रहा था तो उसमें भागवत का भी वर्णन है। उसी में मैने नारद जी के पुर्व जन्म का किस्सा पढा। की कैसे पांच वर्ष के बालक की संतो के सत्संग से लग्न लगी और जब संत उनके गांव से जाने लगे तो नारद जी से नही रहा गया तो पिछे पिछे भाग लिए। जब संतो के गुरू ने देखा नारद जी को अपने पास बुलाया। और उन्हें ध्यान बताया की किस तरह से करना है। और फिर कहा की श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा,,, इससे बढकर संसार में कोई मंत्र नही है। तो मैं उस पुस्तक को पढ रहा था। और मुझे लग रहा था कि जैसे वह संत मुझे ही ज्ञान ध्यान करवा रहा हो। मेरा रोम रोम ध्यान की तरंगो से खिल उठा। और महसुस हुआ कि नन्द लाल श्यामसुन्दर कन्हैया मेरे पास ही है। मैं पुस्तक को एक तरफ रखकर
अंदर कमरें में लेट गया और अपने आप पता नही क्या हुआ आंसु निकलने लगे। चेहरा लाल और शरीर में कम्पन हो रहा था। अंदर से एक आवाज निकली ओ नंदलाल मुझे भी माखन दो। बार बार यही आवाज निकल रही थी। कहां हो कन्हैया कहां हो मेरे श्याम मुझे भी माखन दो। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था। जैसे श्याम कहीं छिपे हैं। और मैं उन्हें ढुंढ रहा हुं खोज रहा हुं। उस पल मुझे कुछ भी नही पता कि मैं कहां हुं दिन है या रात है, कमरें में प्रकाश है या अंधकार। मैं बार बार कोशिश करता हुं कि कुछ याद आये
कि कैसे था उस समय जिससे मैं कुछ उस पल का वर्णन लिख सकुं। भाईयों कुछ पल तो ऐसे भी आये अंत में कि मुझे ये भी नही पता लगा कि मन कुछ बोल भी रहा हा है या नही। अब मैं सारा सार समझ कि वह तो कुछ समय की कुछ पलों की झलक थी। प्रमेश्वर की सत्य की जहां पर कुछ ना तो सुनाई दे ना दिखाई दे ना शरीर का मालुम हो। जहां पर हमें स्थुलता का यानि कि इस शरीर का ज्ञान होगा तब तक सत्य की जानकारी नही होगी। कुछ लोग तर्क बाजी के लिए बातें बना देते हैं कि शरीर बिना कुछ नही होता अगर नाव नही होगी तो इस संसार समुंद्र को कैसे पार करेंगे। लेकिन दोस्तों यह मेरा अनुभव कि मुझे नही पता क्या झलक थी जैसे मैंने लिखा है। कुछ पलों तक तो सारा शरीर तरंगीत रहा, फिर मन ने पुकार की लेकिन बाद में पता नही क्या हुआ। जहां पर शरीर, मन और बुद्धि काम करना बंद कर देतो वहीं से सत्य का रास्ता शुरू होता है। और मुझे नही लगता की कोई इससे आगे लिख पाता होगा। और हो सकता है कि मेरे अंदर इतनी सामर्थ्य ना हो जो मैं उस वेग को सहन कर पाता। उस दिन के बाद भी मैंने ध्यान किया पुजा की लेकिन वह झलक नही मिली। मैं वह झलक पाने की बहुत प्रयत्न कर रहा हुं। लेकिन मुझे इस बात का भी ज्ञान है कि जब तक किसी भी प्रकार का प्रयत्न या कोशिश होगी तो तब तक उस दिव्य आन्नद का अनुभव नही होगा। वह तो जब भी होगा स्वत: ही होगा। लेकिन मन तो पागल है जो एक बार अच्छी चीज देख लेता है उसे बार बार याद करता है। अब तो मैं और भी कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा,,, का जप करता हुं। इसमें भी एक असीम आन्नद है शांति है। मैं तो अब लिखते लिखते भी आन्नद में सराबोर हुं। लेकिन उस दिन के बाद वो झलक वो आन्नद ना तो मैं देख पाया हुं ना लिख सकता।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर

बुधवार, 2 सितंबर 2009

पितृगण की शांति के लिए करे गीता पाठ



हर वर्ष में 15 दिन हिंदु धर्म में पितृ पक्ष की शांति के लिए होता है । जिसे हम श्राद्ध भी कहते हैं। बताया जाता है कि, इन 15 दिनों में हम अपने पुर्वजों को खुश करने के लिए दान करते हैं। पंडितों को खाना खिलाते हैं। और जो कुछ भी हम से बन पङता है सब करते हैं । इसका उल्लेख भगवद्गीता में भी एक जगह आया है। जब अर्जुन महाभारत के युद्ध के दौरान अपने दादा, परदादा, ताऊ, चाचा, मामाओं, पुत्र, पोत्र, और सगे संबंधियों को अपने समक्ष युद्ध में खङे देखता है। तो भगवान से कहता है, कि हे मधुसुदन मुझे इन आततायीयों को मारना उचित नही जान पङता। क्योंकि अगर ये सब लोग युद्ध में मारे गये तो कूल की स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी। और वर्णशंकर पैदा होंगे। जो कूलघातियों को नरक में ले जाने वाले होते हैं। और हमारे पितृ लोग श्राद्ध और तर्पण से वंचित रह जायेंगें। अर्जुन को भी इस बात की फिक्र थी की कोन हमारे पिंड दान करेगा, कोन श्राद्ध करेगा। कहने का अर्थ यह है कि श्राद्ध का हिंदु धर्म में बहुत महत्व है।
जो हमारे पितृ हैं उनकी शांति के लिए उनको खुश करने के लिए आजकल हम सब ऐसा करते हैं। जिससे हमारी कोई मेहनत ना हो। हम सब पैसा खर्च कर सकते हैं। लेकिन किसी के पास भी समय नही है। जिससे कोई ऐसा कार्य हम करें जिससे उनकी मुक्ति हो जाये। जिससे वो परम शांति को प्राप्त हो जाये।
जब अर्जुन ने भगवान को यह अपना तर्क दिया था। तो भगवान ने जो उसे एक उपदेश दिया था। जिससे हमारे पितृ और हम सबका कल्याण हो जाये। उस पर हमने कभी ध्यान ही नही दिया।
भगवान ने कहा था कि, हे अर्जुन तु सब धर्मों को त्यागकर मेरी शरण आजा। तुझे सारे पापों से मुक्त कर दुंगा। तु मेरा अतिशय प्रिय है, इसिलिए मैं तुझे वह उपदेश दे रहा हुं। जिससे परमगति को प्राप्त होगा तेरा कल्याण होगा।
तो भगवान ने फिर गीता उपदेश दिया था। लेकिन गीता उपदेश का तो अर्थ ही लोगों के समक्ष कुछ अलग ही प्रस्तुत किया गया। हमारे पंडितों ने जो बताया। उससे सब लोग इस मानव कल्याण के महामंत्र के पढने और अध्ययन करने से पलायन करने लगे। गीता उपदेश को कहा गया कि यह तो युद्ध का शास्त्र है, या यह तो सिर्फ बुजुर्गों के लिए है या फिर साधु संतो के लिए है। अभी मैने जैसे कई बार किसी अपने युवा भाईयों को समझाने की कोशिश की, तो सवने मुझे ही कहा कि शिवा बाबा जब हम 50 वर्ष के ऊपर जायेंगें तो पढ लेंगे। यह हालात है क्या करें ??????
जरा आप विचार करें की क्या जिसने यह उपदेश दिया था या जिसे दिया था क्या उनमें से कोई भी साधु संत या बुढा था ??? रही बात की युद्ध कराने की तो दोस्तो अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो कितनी बार युद्ध को टाला है। और अर्जुन का रथ भीष्म और गुरू द्रोण के सामने क्यों खङा करते ?? वो उसके रथ को उस कर्ण के सामने खङा करते जिसने उनकी पत्नि को वैश्या कहा था। और भीम को खङा कर देते दुसासन के सामने तो ना तो गीता के 700 श्लोक ही नही सुनाने पङते और सबका खात्मा हो जाता।
भगवान ने जो गीता का उपदेश दिया था तो उसका मकसद युद्ध नही था। वो जानते थे कि अधर्म बहुत बढ गया है और कलयुग आने वाला है अब उस उपदेश की आवस्यकता पङेगी। तो उन्होने तब वह उपदेश दिया था।
श्राद्ध शुरू होने वाले हैं तो हर वर्ष की भांति नही इस बार ऐसा करो जिससे हमारे पितृगणों की मुक्ति हो जाये हम सब पितृ ऋण से मुक्त हो जाये। तो अब सवाल इस बात का है कि क्या करें ???
भगवान ने गीता में 11वें अध्याय में अपना विराट रूप दिखाया है। उसमें दिखाया है कि सबके अंदर में ही विधमान हुं। मुझसे पृथक कुछ भी नही है। जो भी चर अचर हैं। चाहे वे मनुष्य हो या फिर देवता, प्रेत हो या सर्प, वृक्ष हो या पहाङ, पितृ हो या यक्ष किन्नर सब उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित हैं। तो अगर हम रोज नही कर सकते तो जिस दिन श्राद्ध हो तो कम से कम 11वें एक अध्याय का पाठ तो करना ही चाहिए। तो फिर जो पत्र पुष्प जल जो भी हम श्रद्धा से प्रमात्मा को देंगे तो वो सगुण रूप से ग्रहण करेंगे। अर्थात हमारे पितृगणों तक बङी आसानी से पहुंच जायेगा। यह बात में नही अपनी तरफ से नही कह रहा महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने ही कही है।
बस तो आप और हम सब मिलकर करें वह काम
जो हमारे पितृ को ले जाये पुर्ण धाम।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915

सोमवार, 31 अगस्त 2009



पढकर सोच रहे होंगे की कैसा आदमी है सुबह सुबह ही आग की बात कर रहा है लेकिन दोस्तों क्या करें आज हमारे देश की ऐसे ही हालात हो गये हैं हर तरफ आग ही आग दिखाई पङती है कोई भी समाचार पत्र देखो या कोई भी चैनल देखो चारो तरफ खुन ही खुन हिंसा ही हिंसा कही किसी बच्ची की चीख तो कहीं किसी महिला की पीङा की कराह कहीं बीच बाजार में धमाकों से हुए शरीर के लोथङे और खुन ही खुन
है ना चारो तरफ आग ही आग
पता तो हम सबको है देखते पढते सुनते हम सब हैं लेकिन जीवन की व्यस्तता के कारण सबको अनदेखा करके अपने काम में ही लगे रहकर बस अपने परिवार की ही चिंता करते रहते हैं
मुझे एक बात याद आती है मैं उस समय 10-12 वर्ष का था हमारे गांव में एक महिला घर के झगङे में कुएं में डुबकर आत्महत्या कर ली थी उस दिन सारे गांव में सन्नाटा सा छाया रहा एक दहशत सी फैली रही सारा दिन
ऐसा लग रहा था जैसे की सारे ही गांव को ही यह सन्नाटा निंगल लेगा कोई किसी से बात नही कर रहा था हर आदमी चाहे पुरूष हो महिला सब सब डरे हुए थे सहमे हुए थे कोई किसी से बात बात तक नही कर रहा था थोङी थोङी देर में पुलिस चक्कर लगा रही थी
एक बुढा बाहर से आया और कहने लगा की क्या बात है आज तो सारा गांव ही सुनसान लग रहा है
आज भी मुझे उस बुढे की बात याद आती है एक औरत के मरने पर सारा गांव उदास हो गया था लेकिन आज हर रोज पता नही कितनी महिलाएं मरती है और कितनी बच्चीयां की चीख निकलती है तो कितने कत्ल होते हैं लेकिन किसी के ऊपर कोई प्रतिक्रिया नही कोई दुख नही कोई अफसोस नही कि किसी के साथ कुछ हुआ है
चारो तरफ आग ही आग और लोग मजे में रह रहे हैं कहां गई सारी मानवता किसी के अंदर कोई करूणा नही कोई सद्भावना नही बस अपना काम बनता ऐसी तैसी करे जनता
ये मानसिकता हो गयी है
समाज झुलस रहा है देश झुलस रहा है और हम बङे चैन से सो रहे हैं
मुझे तो बहुत बैचेनी होती है क्या करूं सहन नही होता तो बस थोङा भावुकता के आंसु बहाकर या लिखकर ही अपनी भङास निकाल लेता हुं
अभी मैंने एक दिन एक खबर पढी की एक महिला को किसी ने टक्कर मारी वह सङक पर गिर गयी जिसने टक्कर मारी उसने अपनी गाङी को रोका नही बल्कि तेज भगाकर ले गया चलो उसके अंदर तो इन्सानियत थी ही नही वह सङक पर पङी पङी चिल्लाती रही किसी ने उस खुन से लथपथ एक बेबश अबला की चीख नही सुनी किसी ने भी अपनी गाङी को रोका तक नही अरे बाबा रोकना तो दुर रहा किसी ने ऱफ्तार भी कम नही की बल्कि अखबार में तो लिखा था कि उसको कुचल भी दिया था
हे भगवान क्या होगा बस लिख रहा और आंखो से आंसु बहा रहा हुं
हे भगवान हर प्राणी में प्रेम सद्भावना करूणा दया और मानवता जगे जो यह आग फैल रही है इस संसार में इसमें कोई ना झुलसे बससससससससससससस
जय श्री कृष्णा
शिवा तोमर-09210650915