शनिवार, 12 दिसंबर 2009

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता



विस्व का सबसे पवित्र और प्राचीन ग्रंथ है श्री मद्भगवद्गीता। नाम तो इस शास्त्र का संसार के बहुत से लोगों ने सुना होगा लेकिन इसका अध्ययन किया होगा 4-5 प्रतिशत ने ही। और अगर दर्शन करने की बात की जाय तो हजारों में किसी एक ने इसका यथार्थ रूप से दर्शन किया होगा। लोग इसे पढना नही चाहते पलायन करते हैं इससे। और अपने को सही साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी बताते हैं। कोई कहता है कि ये तो हिंदूओं का शास्त्र तो कोई कहता है कि ये तो साधु संतो के लिए है, तो कोई युद्ध की जङ बताते है, कहते हैं कि अर्जुन तो युद्ध करना ही नही चाहता था कृष्ण ने यह उपदेश देकर कितना बङा नरसंहार कराया। मंदबुद्धि लोग ऐसे बाते करके ही इसके अध्ययन करने से बचने लगे।
यह भी सत्य है कि यह युद्ध क्षेत्र में दिया गया उपदेश है। लेकिन भगवान का मकसद युद्ध कराने का नही था, नही तो भीम और अर्जुन को कहीं भी भङका कर युद्ध करा सकते थे। लेकिन भगवान ने यह कहा है हे अर्जुन यह योग तो मैंने कल्प के आदि में सुर्य को दिया था ऐसा नही है कि तुझे ही दिया है। लेकिन अब यह लुप्तप्राय हो गया है इसलिए मैं तुझे यानि कि तेरे माध्यम से फिर दे रहा हुं। जिससे सभी का कल्याण हो सके। इसकी आवस्यकता तो सभी मनुष्यों को थी और रहेगी। और जब जब लोग इससे विमुख होगें तो ऐसे ही भृष्टाचार अपराध हिंसा और व्याभीचार में वृद्धि होगी ही। ये बात नही है कि अर्जुन को यह लङाई करने के लिए दिया था। यह उपदेश तोङने के लिए नही जोङने के लिए है। नफरत के लिए नही प्रेम और सदभावना के लिए है। श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही ऐसे बातों से होता है कि जिससे ज्ञात हो कि कितनी अज्ञता भरी पङी थी लोगो में। धृतराष्ट्र कहता है हे संजय कुरूक्षेत्र में मैंरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया है क्या कर रहे हैं वो। जहां श्री कृष्ण स्वंय मोजुद हो भीष्म, गुरू द्रोण, कृपाचार्य, और राजा स ऐसी बात करें तो कितना गलतो हो सकता है। तेरे मेरे की ओर पाडुं पुत्र तो उन्हें सर्वस्व ही समझते थे लेकिन मोह और लोभ में अंधा धृतराष्ट्र के मन में तेरे मेरे की दीवार बन गयी थी। तो ही ऐसी बात कर रहा था। तो देश समाज इमानदारी और इन्सानियत का क्या होगा हर तरफ मारा मारी हर तरफ खुन खराबा ही होगा। एक राजा के अंदर ऐसे भाव तो क्या होगा समाज का ऐसी स्थिती में गीता का उपदेश दिया गया था। जिससे ऐसे भाव समाप्त होकर सदभावना जागे।
मैंने लिखा है जीवन का श्री मद्भगवद्गीता। मैं कोई ज्ञानी नही हुं बस उस महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का आभारी हुं जिन्होंने ऐसा विवेक दिया और मैंने गीता अध्ययन किया और इसमें पाया की यह तो जीवन का आईना ही है। यह हमें ऐसा दिखाती है जैसे हम होते हैं। मैंने कभी भी गीता को इस तरह से नही पढा की जैसे ये अर्जुन को सुनाई थी मैंने तो सदा इसी भाव से पढा जैसे ये मेरे लिए ही हो और मुझे ही सुनाई हो। गीता पढने का अपना लाभ है मैं ये नही कह रहा की लाभ नही है। यह तो दिव्य है अलौकिक है निर्मल है । इसके स्पर्स मात्र से ही कल्याण हो जाये। लेकिन जो भगवान ने आदेश दिया है उस पर चले बिना कैसे मंजील तक पहुंचेगे। जैसे सङक पर चलने के लिए कई दिशा निर्देश लिखे होते हैं जैसे लाल बत्ती हो गयी, कहीं पर बोर्ड पर लिखा होगा की प्रवेश वर्जित है, तो कही लिखा होगा की गाङी खङी ना करे ये सभी निर्देश हमारी सुरक्षा के लिए जिससे हम अपनी मंजील तर जल्दी और बिना किसी कष्ट के पहुंच सके इसिलिए बनाये हैं।
गीता को कहानी की तरह से नही पढना है बल्कि उसमें दी गयी शर्तों के अनुसार ही पढना है तभी हम अपनी मंजील कर पहुंचेंगे। भगवान ने कदम कदम पर संकेत दिया है ये नही करने या ऐसा करोगे तो लाभ होगा लेकिन हम वो संकेत तो देखते ही नही और अपनी गाङी को 100 की रफ्तार से भगाते रहते हैं और टक्कर मारते रहते हैं और कोसते रहते हैं कि हम तो भगवान का नाम लेते हैं उनका ध्यान करते हैं गीता भी पढते हैं लेकिन विपत्तियां तो हमारे ऊपर आती ही रहती हैं। अरे भाई जब हम संकेतो को देखकर चलेंगे ही नही तो परेशानी तो आयेगी ही। मेरा यह लिखने का उद्देश्य यह नही है कि किसी को ज्ञान दुं ज्ञान तो सभी के पास है। हो सके किसी की नजर में कोई संकेत आ जाये और हमारी जीवन की गाङी सही सलामत पहुंच जाये अपनी मंजील तक। यह मैं लिखने की कोशिश कर रह हुं अगर कोई त्रुटी हो या सुझाव हो तो जरूर बतायें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें