रविवार, 17 मई 2009

त्याग से मिलती है शांति

त्याग से तत्काल मिलती है - शांति

मर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ हैl ज्ञान से भी मुझ प्रमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है l ध्यान से भी सब कर्मो के फल का त्याग श्रेष्ठ है l क्योंकि त्याग से तत्काल शांति मिलती हैl
ये पन्क्तिया भगवद्गगीता मे भगवान ने कही हैं l यहाँ पर स्पस्ट कह रहे हैं ज्ञान आवस्यक है तत्व के जाने बिना अर्थात कर्म के परिणाम कि जानकारी के बिना किये गये अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है l
जैसा की व्यवहारिक जीवन में देखा जा रहा है कि एक पंडित सारा दिन लगा रहता है मंदिर में भगवान की सेवा में
मोलवी मस्जिद में अध्यापक को ज्ञान बांटते हुए वर्षो बीत गये मगर सच्चाई क्या है l
इसी बात को सहजता से समझाने के लिए कहा है कि ज्ञान श्रेष्ठ है l कर्म करने का अभ्यास तो हर व्यक्ति करता है l लेकिन परिणाम भिन्न भिन्न हो जाता है जैसे एक डाक्टर अपने चाकू से किसी का पेट फाङ देता है, दुसरा एक डाकू अपने चाकू से किसी का पेट फाङ देता है l परिणाम..... एक को बंधन अपमान सजा तो दुसरे को सम्मान मिलता है l कर्म करने का अभ्यास तो दोनो ने किया लेकिन बिना ज्ञान के किया गया अभ्यास कितना व्यर्थ है l
यहां से आगे भगवान और थोङी गहराई में ले जाते हैं l ज्ञान से भी मुझ प्रमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है l गीता के एक श्लोक में कृष्ण ने पुरे संसार के व्यक्तियों का वर्णन कर दिया है न0 1 कर्म में लिप्त रहते हैं न0 2 ज्ञान न03 ध्यान न04 योग त्याग.l......
लेकिन भगवान ने जैसा कहा है ज्ञान से भी मुझ प्रमेश्वर के स्वरूप का ध्यान उत्तम है l क्या करें
इन शब्द्धो का अर्थ ही बदल दिया है l जिस स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ बताया गया है उसे तो भुला ही दिया गया और भगवान के स्वरूप को एक मंदिर तक मस्जिद एक मू्र्ती तक या किसी एक जगह तक सिमित करके उसमें ही लिप्त रहने लगे हैं l उसको भुला दिया जिसको भगवान ने कहा है- ईश्वरः सर्वभुतानां ह्रदेशे अर्जुन तिष्ठति अर्थात प्रमात्मा सबके ह्रदय में विधमान है तो स्पस्ट है कि किस स्वरूप का ध्यान करने के लिए कह रहे हैं l किसी भी सम्प्रदाय धर्म जाति का धार्मिक ग्रन्थ हो सभी में भाषा बदल गयी होगी लेकिन अर्थ यही है सर्वभुतानां ह्रदेशे तिष्ठति l
अब क्या हो रहा है लोगो ने स्वार्थ पुर्ति तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता के कारण एक दुसरे के खुन के प्यासे हो रहे हैं एक दुसरे का वजुद मिटा देना चाहते हैं भगवान का संकेत है कि मेरे स्वरूप का ध्यान कि जितने भी प्राणी हैं वो मेरे ही अंश हैं सबके ह्रदय में प्रत्यक्ष विधमान हुं उसका ध्यान करो कि किसी भी प्रकार से हमारे कारण अन्य प्राणींयो का अनिष्ट तो नही हो रहा है किसी को शारीरिक मानसिक कष्ट तो नही हो रहा है l इसके पश्चात भगवान ने हमें इतना सहज और सरल तरिका बताया है l कि ध्यान से भी सब क्रमों के फल का त्याग श्रेष्ठ है l यह बात कितनी आसान सी लग रही है ना परन्तु बहुत कठिन है l कैसे कर सकते हैं हम कर्म फल का त्याग,,, मन का स्वभाव तो ऐसा बना हुआ है कि कर्म करने से पहले उसके फल की इच्छा कर लेते हैं l और कर्म चाहे जैसा भी हो उसका परिणाम जिसकी हमने कल्पना की है वह बहुत सुन्दर है l और बिना कर्म किये ही परिणाम फल का महल खङा कर लेते हैं l
भगवान ने यही मना किया है कि ज्ञान और मेरे ध्यान से भी सब कर्मो के फल का त्याग उत्तम है l वो झुठ तो कह नही सकते l यह भी कहा है कि त्याग से तत्काल शांति मिलती है l यह मानव सुबह से सांय सांय से रात तक यह शांति प्राप्त करने के लिए ही तो भागता रहता है l लेकिन जीवन में शांति के बजाय अशांति असुरक्षा भय अपना शिकंजा कसता जाता है l
यह बात बिलकुल सत्य है जो भगवान समझा रहे हैं l उसको माने जाने बिना शांति सुख चैन हमारे जीवन में आ ही नही सकते l यह भी नही है कि लोगो को इस बात का ज्ञान नही है l बहुतों को पता है लोग आपस में कहते भी हैं l कि गीता में कहा है कि कर्म कर फल की इच्छा ना कर l जैसा कर्म करेगा इन्सान वैसा फल देगा भगवान यह है गीता का ज्ञान ये एक फिल्म कि पंक्ति हैं l इतने सबके बावजुद भी नही समझते इस तथ्य को लोग स्वीकार तो करते हैं, लेकिन कब जब किसी कार्य में हानि हो जाय तो अन्य दुसरे ही समझाते हैं कि जो ऊपर वाले कि मर्जी है वही होता है अगर किसी कार्य में सफलता मिल जाय तो मनुष्य अपनी पीठ थपथपाता है की मैं इतना समझदार हुं होशियार मैंने इतना मुनाफ इतना लाभ कमाया यह कार्य इतनी कुशलता ते किया यहां पर भगवान को श्रेय नही देते
भारत ही नही सारे संसार में भगवान के इस कथन की आवस्यकता है कि त्याग से तत्काल शांति मिलती है l
त्याग का अर्थ यह नही है की हम सब कुछ छोङ कर जंगल में चले जाये... हमें किसी व्यक्ति या वस्तु को नही छोङना बल्कि उनमें होने वाली आसक्ति का त्याग करना है,,, यहां पर कोई किसी प्रकार का सन्देह नही होना चाहिए भगवान ने कर्म को त्यागने की बात नही कही कर्म फल के प्रति तृष्णा का त्याग करना है l आज जो हालात हमारे समक्ष है लोग आये दिन आत्महत्या करके अपनी और अपने परिवार की जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं विधार्थी शिक्षक व्यापारी नोकर हर कोई पीङित है दुखी परेशान है l अगर एक विधार्थी अपना कर्तव्य भली प्रकार करे और फल की चिंता ना करे यानि कि कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र से सम्बधित हो वह इसी बात को स्वीकार करे जानते तो सब हैं लेकिन मानते नही स्वीकार नही करते l,,
बच्चा जब छोटा सा होता है तो मां बाप उसके दिमांग में यह बात भरनी शुरू कर देते हैं कि बेटा अच्छी तरह ध्यान से अच्छी नोकरी लगेगी पैसा कमायेगा l इतनी इच्छाएं इतनी महत्वाकांक्षाएं बढ जाती हैं l उस कोमल से बालक की अब वह इतने तनाव में रहता है कि अगर पढाई ठीक नही हुई तो मैं बेकार हो जाऊंगा l जब हमारी कल्पनाओं को झटका लगता है तो कांच के सिसे की भांति टुटकर बिखर जाता है यह मानव मन l और इसके पश्चात लोग नशे में डुबकर अपना जीवन तबाह कर लेते हैं l तो कितना लाभप्रद है कर्मो के फल का त्याग जीवन में सुख चैन और शांति स्थापना के लिए l
जय श्री कृष्णा
शिवा तोमर
email- jatshiva.tomar@gmail.com

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