मंगलवार, 12 जनवरी 2010

जीवन का आईना है- श्री मद्भगवद्गीता अध्याय तृतीय


कर्म फलों ले मुक्ति
ये बात बिलकुल सही है कि मनुष्य को उसके कर्मों के द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है। हमारे कर्म ही बंधन और मोक्ष के कारण होते हैं। और अगर देखा जाय इतना आगे की भी ना सोचे तो साधारण सी बात ले लो हम अपने कर्मों से ही समाज में अपनी जगह बनाते हैं और कर्मों के कारण ही यही समाज हमारा बहिष्कार कर देता हमें ठुकरा देता है। तीसरा अध्याय का नाम दिया है कर्म योग, और भगवान ने बिलकुल स्पस्ट बताया भी है कि किस तरह हम अपने कर्म करते हुए मुक्ति को प्राप्त हों। दुसरे अध्याय में भगवान ने बङे ज्ञान की कर्म की बातें की और जैसे ही अपनी बात कहकर चुप हुए तो। यहां पर उन्होंने सोचा होगा की अब तो इतना सब सुनने के बाद अर्जुन का कोई प्रश्न नही होगा कोई शंका नही होगी और एक अच्छे बच्चे की तरह काम करेगा। लेकिन जैसे ही भगवान चुप हुए तो अर्जुन ने एक दम अपना नया सवाल दे मारा। इसमें कुछ शिकायत सी भी थी अर्जुन कहता है कि हे भगवान आप कभी तो कहते हो की ज्ञान मार्ग से कल्याण होगा तो कभी कर्मयोग को महत्वपुर्ण बताते हो। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हो। जो बात मेरे लिए कल्याण की हो आप वो ही कहिए जिससे मेरा भला हो और अकेले अर्जुन की ही नही हम सबकी बात है कि सब ये ही चाहते हैं कि कोई ज्यादा परिश्रम भी ना करना पङे और हमारा कल्याण हो जाये। एक बार फिर प्रश्नों की गैंद भगवान की तरफ उछाल दी। वह एक के बाद एक तरिका सोच रहा था जिससे इस युद्ध से बच सके इतना बङा नरसंहार ना करना पङे। अर्जुन यह भी चाहता है कि भगवान स्वंय ही कोई ऐसा मार्ग निकाल दें और कोई आगे ये भी ना कहे कि अर्जुन ने मोह या भय के कारण युद्ध से पलायन किया था। तभी तो भगवान से कह रहे हैं कि वो एक मार्ग मुझे निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊं। और यहां पर अर्जुन अपना कल्याण समझ रहा है राज्य का सुख, परिवार का सुख और प्रमात्मा की कृपा भी।
इस प्रकार भगवान अर्जुन के शिकायती लहजे में पुछने पर कहते हैं कि हे निष्पाप इस लोक में पहले ही मैंने दो प्रकार की निष्ठा कही है और व्यक्ति अपनी निष्ठा के अनुसार ही कार्य करता है। एक ज्ञान योग और दुसरी कर्म योग। ये दो रास्ते हैं लेकिन मंजील एक ही है कि प्रमात्मा की प्राप्ति। सांख्य की ज्ञान से और योगी की कर्म के मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाकर अपना कल्याण कर सकता है। चाहे दोनों में किसी रास्ते पर ही चल पङो मंजील मिल ही जायेगी।
और ज्ञान हो या कर्म योग युद्ध का विकल्प दोनो में ही है। यहां पर एक बात भगवान सबसे महत्वपुर्ण कहते हैं कोई भी मनुष्य किसी भी समय एक पल के लिए भी कर्म किये बिना रह सकते हैं। अर्थात कर्मों का त्याग नही कर सकते। जैसा हम अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सोचते हैं कि इस क्षण पढ रहे हैं या खेल रहे हैं ड्यूटी कर रहे हैं तो ही कार्य कर रहे होते हैं। जब विश्राम करते हैं तो कोई कर्म नही करते यानि की कई बार हम निश्चय कर लेते हैं कि जैसे कभी वर्त करते हैं तो कोई काम नही करेंगे कहीं हमसे कोई गलती ना हो जाये। लेकिन भगवान ने कितना स्पस्ट कहा है कि एक क्षण भी कर्म किये बिना नही रह सकते अर्थात कोई ना कोई कोई कार्य करते ही रहते हैं। और हर एक कर्म के साथ राग और द्वेष लगे रहते हैं। कोई भी कर्म ऐसा नही है कि जिसमें राग और द्वेष ना हों। और कारण भी यहीं पर बता दिया क्योंकि कहीं कोई आगे चलकर मेरी इस बात को पता नही किस तरह से तरोङ मरोङ कर पेश की जाये यहीं पर इसका स्पस्टीकरण किया कि हम सभी पृक्रति से उत्पन गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करने के लिए बाध्य हैं। हमें कर्म करना ही पङेगा। जैसे सरकारी पद पर कोई डाक्टर इंजिनयर न्यायाधिष या फिर कोई सैनिक अपना अपना कर्म करने के लिए सरकार के अधिन होकर मजबुर है उन्हे अपना काम पुरा करना पङेगा ही। यहां पर कहा है कि परवश हुआ अर्थात दुसरे के अधिन होकर मजबुर होकर जिस क्षण जो भी गुण हमारे ऊपर प्रभावी रहता है उसी के अनरूप कर्म करते हैं। यानि कि हम पृक्रति के गुणों के अधिन हैं। लेकिन जो मूढबुद्धि हैं जो मंदबुद्धि और हठी हैं वो कर्मेंद्रियों को बल पुर्वक ऊपर से रोककर भोगों को मन से चिंतन करते रहते हैं उन्हे मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा गया है। जिस तरह हम कई दफा हम सोचते हैं कि फलां जगह नही जाना तो हमने पैरो को वहां जाने से रोक लिया लेकिन मन से वहां के बारें में सोचते रहते हैं। हमने निश्चय किया की आज अन्न का वर्त रखेंगे लेकिन मन से अनेक प्रकार के स्वाधिष्ट व्यजनों का आनंद लेते रहते हैं। भगवान ने बिलकुल दो टुक भाषा में उनको मिथ्याचारी यानि की झुठे आचरण करने वाले पाखंडी कहा है। वो सिर्फ दिखाने के लिए सब कुछ करते हैं। जो पुरूष मन से सब इंद्रियों को रोककर अनासक्त होकर,,,, भगवान ने जो भी कोई बात कही है उसमें प्रत्येक के पिछे एक ना एक शर्त रख दी और जो हम लोग सारा जीवन गीता अध्ययन करते रहते हैं और फिर भी हमारे आचरण और व्यवहार में गीता नही आती । उसका सबसे बङा कारण है कि हम उन संकेतों को भुल जाते हैं। जैसा यहां पर कहा है कि अनासक्त होकर तो जो ये बात इतनी सहजता और सरलता से लिख दी और आपने पढ ली है उससे कहीं ज्यादा क्रिया में लाना कठिन है क्योंकि हमारी सबसे बङी गलती यही है कि आसक्त रहते हैं भगवान कहते हैं अनासक्त होकर कर्म कर लेकिन हम तो कर्म किये बगैर ही सिर्फ विचार कर करके कि फलां काम करेंगे उसका चिंतन करके ही इतने आसक्त हो जाते हैं कि काम किया नही और उसकी सफलता और असफलता को लेकर इतने बह जाते हैं कि...... .
भगवान ने कहा अनासक्त होकर कोई कर्म करता है वही श्रेष्ठ है। कर्म तो हर व्यक्ति ही करता है लेकिन भगवान ने उन्ही को श्रेष्ठता की उपाधी दी है जो अनासक्त होकर इंद्रियों को वश में करके कर्म करता है। एक बात का खुलासा यहां कर दिया की व्यक्ति अपनी आयु, पद, शिक्षा, धन दौलत से श्रेष्ठ नही होता बल्कि अपने कर्म से क्षेष्ठ और महान बनता है। आगे कहते हैं कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कई बार ऐसा होता है कि जब कोई आदमी ज्यादा अति में चला जाता है उसे हर कर्म में कोई ना कोई दोष नजर आने लगता है। मैं किसी को गलत नही कह रहा हुं। मैंने कई लोग देखे हैं कि सब्जी तक काटने में हिंसा समझते हैं। अरे भाई सब्जी काटने में हिंसा नही है अपने विचारों में हिंसा ना लाये। एक कोई किसान है फसल बुवाई के लिए अपना खेत जोतता है उसने देखा की धरती पर तो असंख्य जीव जंतु रेंग रहे हैं वह सारा काम छोङकर घर आ गया। उसके पिता ने पुछा की क्या हुआ बहुत जल्द सारा काम खत्म करके आ गया है। उसने कहा पिता जी मैं काम ही नही करके आया क्योंकि वहां पर सैंकङो जीव घुम रहे थे अगर मैं हल चलाता तो सब के सब मर जाते कितना पाप लगता। इस पर पिताजी ने उसे समझाया की अगर तु ये ही देखकर काम नही करेगा और सब लोग इसी तरह से ही काम छोङकर बैठ जायेंगे तो सारी दुनिया भुख से तङप तङप कर मरेगी। क्या वह पाप नही है। तो कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। एक सैनिक जो सीमा पर देश की सेवा कर रहा है और दुसरा देश लङाई के लिए हमारे सिर पर आकर खङा हो जाये और हमारा सैनिक उस काम को हिंसा और नरसंहार समझकर हथियार डाल दे तो क्या होगा। और कर्म ना करने से शरिर का निर्वाह भी सिद्ध नही होगा। कितनी सरलता से भगवान ने समझाने की कोशिश की है अगर कर्म से पलायन से करेंगे तो कैसे निर्वाह होगा। यहां यह तो बात है ही कि हम की खाना और जरूरत की वस्तुओं का संग्रह हम कर्म करके ही कर सकते हैं। दुसरा ये है कि आंख खोलना मुंदना सोना जागना खाना स्वांस लेना को भी कर्म की संज्ञा दी गयी है। अगर हम कर्म ही नही करेंगे तो शरीर कैसे चलेगा। आगे भगवान कहते है कि यज्ञ के अलावा जो भी कर्म करते हैं उन्हीं से बंधनों में फंसते और कई बंधुओं ने इसी उपदेश का गलत लाभ उठाया। कहा कि प्रमात्मा के नाम पर यज्ञ करो तो ही हम मुक्त हो सकते हैं। पहले भी इस बात का वर्णन किया गया है गीता रूपी महासागर के अंदर से हर किसी ने अपने अनुसार जैसी भी जरूरत थी वो ही निकाल लिया। और बाकि दिव्य उपदेश को गोण कर दिया। तो यहां पर ऐसा ही हुआ है कि यज्ञ कर्मों से ही हम कर्म बंधनों से मुक्त हो सकते हैं। लेकिन यज्ञ कर्म कोनसे है। प्रजापति ब्रह्मा ने जब यह सृष्टि रची तो सारी प्रजा को कहा कि तुम लोग यज्ञ करो और इन यज्ञों के द्वारा तुम्हें इच्छित भोग प्राप्त होंगे। और अगर उनको बिना दिये खाते हो तो पाप को ही खाते हो। कहने का अर्थ यह था कि जब तक स्वार्थी रहोगे तो बंधनों में बंधोगे ही। और यज्ञ विहित कर्म बताये हैं। यानि कि जो भी हम कर्म करते हैं इस प्रकार करों की एक एक कर्म हमारा यज्ञ बन जाये। और वो बनेगा जब हम स्वार्थ छोङकर परमार्थ के लिए काम करेंगे। यहां पर कई लोग कहेंगे की अगर हम काम परमार्थ के लिए करेंगे तो बच्चों को कैसे पालेंगे या अनाथाश्रम जायेंगे। इस बात का भी खंडन अगले ही श्लोक में कर दिया भगवान कहते हैं कि यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो पहले यज्ञ के निमित्त देते हैं बाद में बचे हुए को खाने वालो को ही श्रेष्ठ कहा गया है कि सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। गीता के एक एक श्लोक को अपनी वर्तमान जिंदगी से मिलाकर चलें। मैं पहले ही लिख चुका हुं कि गीता सिर्फ परमगति या परलोक के लिए ही नही है। तो हम अपने व्यवहारिक जीवन में यज्ञ से बचाकर कैसे खायें।
आगे भगवान ने हमारी नजरों पर चढे एक और पर्दे को हटाया है। कि किस तरह से ये सृष्टि चक्र घुम रहा है। सभी प्राणी अन्न से पैदा होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से और यज्ञ विहित कर्मों से जो कर्म समुदाय है वो वेद में कहे गये हैं, वेद प्रमात्मा से उत्पन हुए जान। गीता एक ऐसा दिव्य शास्त्र है जिसमें मनुष्य ने अपनी इच्छा अनुसार कोई ना कोई एक बात को पकङकर उसका साहरा लेकर अपना उल्लु सिधा किया है। लेकिन यह बात किसी ने किसी को कभी नही बताई। यहां पर भगवान ने ये नही कहा कि सभी हिंदू या सभी मुश्लीम या सभी भारतीय ही अन्न से उत्पन होते हैं। सभी प्राणी पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, मनुष्य और मनुश्यत्र को ही बताया है। अगर यह बात हमारे साम्प्रदायिक ठेकेदार यही एक भगवान का उपदेश ही सभी को बता और समझा देते तो दुनिया में इतनी मारा मारी नही होती। यज्ञ में प्रमात्मा प्रतिष्ठित हैं यानि की जितने भी यज्ञ होते हैं वहां प्रमात्मा हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात ये रही है कि सिर्फ आग में आहुति देने सामग्री और घी डालने की क्रिया को ही यज्ञ समझते हैं। यहां भगवान का संकेत है कि हम अपने हर कर्म को यज्ञ बना सकते हैं। क्योंकि आज तक तो हम जितने भी कर्म करते आये हैं अपने लिए ही कियें स्वार्थ के लिए ही किये है कभी कोई यज्ञ के निमित्त नही किये और इसिलिये बंधनों में फंसते हैं। हमारे सभी कर्म स्वार्थमय, अपने और परिवार तक ही सिमित हैं। अपनी इच्छाओं की प्राप्ति उनको हासिल करना ही सबसे बङा धर्म समझते हैं। भगवान कहते हैं यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले पाप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन हम लोग बचा हुआ तो क्या खायेंगे दुसरो के अधिकारों को भी खा जाते हैं। दुसरों का शोषण करते रहते हैं। जो यह सृष्टिचक्र है कोई मनुष्य इसके अनुसार नही चलता तो उसके विरूद्ध चलता है वह बंधनों में फंसता जाता है। यहां पर उन बंधनो की बात नही करनी हमें जो अगले जन्मों में बांधने वाले हैं। इतने आगे हमें नही जाना। गीता तो जीवन का आईना है जो सिर्फ वर्तमान ही दिखा सकता है तो हम यहां उन्हीं बन्धनो पर विचार करें जिनमें हम बंध रहे हैं। जब हम सृष्टि चक्र के विपरित चलते हैं अर्थात हर प्राणी में प्रमात्मा नही समझकर सिर्फ अपने तक ही सिमित रहकर छोटे छोटे सुखों के पिछे भागते हुए अन्याय पुर्वक दुसरों को हानि पहुंचाकर धनादि का संग्रह करते हैं। ये सभी के साथ है ऐसा नही है कि किसी एक के साथ ही घटता हो। और इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जिनके लिए कोई कर्तव्य नही है सब कर्मों से मुक्त हैं। ये बाच पढकर सभी भाईयों के अंदर उत्सुकता सी हो रही होगी की हमें भी वह मार्ग पता चले की कि जिसके लिए कोई कर्तव्य नही है। पहले जान ले कि कर्म तो है क्योंकि कर्म तो हर जीव प्रकृति के गुणों द्वारा परवश हुआ करता है। कर्म तो होगें लेकिन कोई भोग नही कोई फल नही होगा, बस कर्म किया और समाप्त हो गया। जिस तरह पानी में बुलबुला बना दुखाई भी दिया लेकिन कुछ ही पलों बाद हवा लगते ही फुट गया अब उसका कोई अस्तित्व नही रहा बस पानी था और पानी ही रह गया। बिलकुल इसी तरह ही हमारे कर्म भी विलिन हो जायेंगे दिखाई तो देंगे की कर्म तो कर रहे हैं परन्तु यहीं तक ही रह जायेंगे। जो आत्मा मे ही रमण करने वाला है अब सवाल ये उठता है कि आत्मा में रमण कैसे करेंगे वो कोई जगह तो है नही कि घुम आयेगे। बहुत से संतो ने महात्माओं ने अपनी वाणियों में भी इस बात का वर्णन बहुत प्रकार से किया है। रमण करना अर्थात जहां तक जिसमें यह आत्मा रमी हुई है उसकी गहराई तक जाना जिस प्रकार हम देखते हैं बहुत से बर्तन में पानी भरा है और चांद की परछायी सभी में है लेकिन चांद तो एक है उसी प्रकार आत्मा में रमण करना तथा आत्मा में ही तृप्त रहना यानि की आत्मा में जो जिस रूप में हमें दिखाई पङ रही है स्वरूप चाहे जो भी हो लेकिन जो उस स्वरूप को प्रकाशित कर रहा है उसमें रमण करके किसी भी प्रकार की उत्कंठा नही रही पुरी तरह से तृप्त है वह आत्मा में ही संतुष्ट है। बस हमारी सबकी सबसे बङी कमी ही ये है कि जीवन में संतुष्ट नही हैं। और संतुष्ट होंगे भी कैसे। जब तक हमारें अंदर उत्कंठाएं तो संतुष्ट नही हो सकते जहां हम सब आज बीबी बच्चों धन दौलत घर परिवार में संतुष्टि खोजते हैं वहां नही बताई संतुष्टि तो आत्मा में ही बताई है। ैसे महापुरूष कोई कर्म करे या ना करें किसी बंधन में नही पङता, किसी भी प्राणी में अंश मात्र भी स्वार्थ नही रहता। कितनी महत्वपुर्ण बात है कि जीवन में इतनी बङी क्रांति घट सकती है कि जिसकी कभी कल्पना भी नही की होगी।किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थ नही रहता। अगर हम अपना ही विशलेष्ण करते हैं तो और गहराई में डुबकी लगाकर खोजते हैं कि स्वार्थ है या नही। 90 प्रतिशत जगह स्वार्थ से ही भरी मिलती है। हम किसी से भी बात करतें हैं तो स्वार्थपुर्ण ही करते हैं। और भगवान कहते हैं कि उस महापुरूष का किसी में भी स्वार्थ का संबंध नही रहता। यहां पर महापुरूषों का वर्णन किया है। आगे जो बात कह रहे हैं वह हम सबके लिए ही है कि तुम आसक्ति से रहित होकर कर्म करो ये ही उपाय है जिससे सभी बंधनो को तोङ सकते हो। और प्रमात्मा को प्राप्त करके उसकी कृपा का रसास्वादन कर सकते हो। एक भगवान ने उदाहरण भी दिया है कि जनक आदि भी इसी प्रकार कर्म करके ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। कृष्ण जानते थे कि अगर यहां पर किसी साधु संत का नाम लिया गया तो तो आगं चलकर लोग बङे चतुर होंगे और अनेकानेक बहाने बना लेंगे कि वो तो संत थे उनको किसी की कोई चिंता नही थी। लेकिन हमारा तो पुरा घर परिवार है अगर आसक्ति नही करेंगे तो इच्छा नही करेंगे तो कैसे घर चलेगा। तो जनक बहुत बङे राजा हुए थे और अपने परिवार पत्नि बच्चे राज्य और प्रजा के लिए पर कर्तव्य पुरा किया लेकिन आसक्ति रहित होकर। इससे यह बात सिद्ध होती है कि कर्मों का अमीरी गरीबी शिक्षित या अशिक्षितता से कोई दुर तक का लेना देना नही है। आसक्ति कोठी की भी ना हो और सब कुछ छोङने के बाद लगोंटी में बनी रहे।
श्रेष्ठ पुरूष जैसा जैसा आचरण करते हैं अन्य भी वैसा ही करते हैं। अगर ध्यान से देखा जाय आज जो पुरे विश्व की इतनी बदतर हालात हो रही है जिस पर अंकुश लगाना किसी के हाथ में नही है सब बेबश हैं। और दुनिया का हर बुद्धिजीवी इसी बात से चिंतित है। इस दिव्य उपदेश का एक छोटा सा अंश ही सारी समस्या का समाधान कर सकता है। थोङा सा चिंतन करो तो सब समझ में आ जाता है कि हम देश और दुनिया की बात नही करते इस बिमारी को समझने के लिए विश्व की सबसे छोटी कङी पर ही प्रयोग करना होगा। एक फिल्म के गाने की एक पंक्ति है जिसका बङा भाई हो शाराबी छोटा पीये तो क्या है खराबी है ना बिलकुल यही अर्थ यानि की श्रेष्ठ पुरूष यानि की बङा जैसा काम करेगा तो उसे देखकर दुसरे भी ऐसा ही करेगा। अगर घर के मुखिया या देश के शाशक गलतीयां करे या उनका आचरण अच्छा ना हो तो दुसरो को कैसे प्रेरित करेंगे। जो नशा है या चौरी करता हो वो दुसरों को नशा मुक्ति का क्या संदेश दे सकता है। आगे भगवान ने कितनी बङी बात कही है कि हे अर्जुन मुझे इस संसार में कुछ भी कार्य करने की जरूरत नही है और कोई वस्तु ऐसी नही है जो मैं प्राप्त ना कर सकुं। क्योंकि सारी सृष्टि का मालिक भगवान है। तो भी बङी सावधानी से कर्म करता हुं नही तो बङी हानि हो जायेगी स्थिती बहुत खराब हो जायेगी।यहां पर भगवान ने किसी और का नाम नही लिया भीष्म धृतराष्ट्र जो इतने वरिष्ठ और हर प्रकार से सम्पन्न थे जिन्हे बिना कुछ किये ही सब कुछ प्राप्त हो सकता था लेकिन भगवान ने अपना उदाहरण दिया है की तु या ये संसार में कोई आम आदमी की बात ही अलग है मैं स्वंय भी बहुत ही सावधान होकर कर्म करता हुं। क्योंकि सभी मनुष्य जैसा में करूंगा वैसे ही करेंगे और यही कहेगें की जब भगवान ही ऐसा करते हैं तो हमने कर दिया तो क्या गलत किया है। और सबकी बरबादी का कारण मैं ही बनुंगा।
भगवान सारी दुनिया मैं सर्वोत्तम हैं लेकिन हम भी अपने को अपने घर में गांव में मौहल्ले में श्रेष्ठ मानते होंगे हमें भी इस दिव्य उपदेश को अपने जीवन में लाना चाहिए और कोई कार्य ऐसा ना हो जिससे कारण हम बनें।
हे भारत कहकर संबोधन किया है और गीता में करीब 20यों बार अर्जुन को भारत के नाम से संबोधित किया है। इसका मतलब यह हुआ कि धरती पर चाहे कितने भी सम्प्रदाय खङे कर लो लेकिन यह दिव्य उपदेश जब भी लुप्त होगा या मानव जाति अज्ञान मोह और भय से ग्रसित होकर अर्जुन की भांति अपने कर्म से पलायन करेगा और अपराध तथा हिंसा का समाज में साम्राज्य होगा तो इस उपदेश के द्वारा भारत ही पुरी दुनिया को लाभान्वित करेगा। भगवान ने कहा है कि जिस प्रकार अज्ञानीजन कर्मों में आसक्त होकर कर्म करते हैं अब समझने की बात यह है जो कार्य ज्ञानी करते हैं क्या वह कुछ अलग है। कहा है कि जो विद्वान है वो आसक्तिरहित होकर लोक संग्रह चाहता हुआ कार्य करता है। एक ही काम को ज्ञानी अज्ञानी करे लेकिन जो विवेकशिल हैं वो लोक संग्रह चाहता हुआ करता है और अज्ञानी उसी कार्य को आसक्त होकर और ज्यादा परिश्रम से स्वकल्याण की भावना से करता है। इसका परिणाम हम सबके समक्ष है कि आज 60 प्रतिशत लोग तनाव, चिङचिङेपन के मरीज होते जा रहे हैं। यह बात कितनी सहजता से कह दी की लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। इससे क्या होगा व्यवहारिकता में समझे हम लोग कोई भी एक काम करते बङी शारिरिक परिश्रम से और उसके फल के प्रति इतने आसक्त हो जाते हैं कि जैसे किसी नोकरी के लिए हमने आवेदन किया ओर उसकी तैयारी के लिए खुब अध्ययन भी किया सारी तैयारी की यहां तक तो ठीक है लेकिन एक बात और सबसे गलत जो हम करते हैं कि काम हुआ नही कि उसके फल के प्रति इतने आसक्त हो गये और विचार करने लगे की मैं पुलिस में हो जाऊंगा बहुत सारा पैसा कमाऊंगा, अच्छी सी शादी हो जायेगी, गाङी ले लुंगा पता नही कितनी लम्बी लिस्ट बनाकर बैठ जाता है। कहा है कि लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे मैं पुलिस में चुन लिया गया तो जनता की सेवा करूंगा जो वह इतनी कल्पनाए करके बैठा है वो सब तो स्वत ही प्राप्त हो जायेंगी लेकिन हम तो इतनी बुरी तरह आसक्त हो जाते हैं कि अगर किन्हीं कारणों से भर्ती नही हो सका और सारी इच्छाओं का पहाङ भरभराकर गिर गया तो इतने ऊपर से गिरकर सम्भलना आसान नही होता। परिणाम यह होता है कि अपना मानसिक शारीरिक संतुलन खोकर अपने अंदर बहुत सा बीमारियों का घर बना लेते हैं। इसिलिए कहा है कि जो भी काम करे विवेक से आसक्ति रहित होकर दुसरों के कल्याण की भावना से करें तो हमारी कभी कोई हानि या अनिष्ट नही हो सकता।
एक बात और स्पस्ट है कि जितने भी हम कर्म करते हैं वो सब प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं। हम कभी कोई पुजा, ध्यान, तपादि करते हैं तो हम सात्विक गुण के प्रभाव में हैं और उसके प्रभाव से हम जो भी काम कर सकते हैं वो सब करते हैं, लेकिन अंहकार के कारण यह मन ये सोच लेता है कि ये फलां काम मैंने किया है अर्थात अज्ञानी लोग मैं कर्ता हुं ऐसा समझ लेते हैं। लेकिन जो गुणों के प्रभाव को जानता है ऐसा ज्ञानी तो बस ये विचार कर कार्य करता है कि जो भी जिस समय होता है उनमें प्रकृति के गुणों के अलावा कुछ है ही नही। जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से ज्यादा मोहित रहता है वो कर्मों में भी बहुत ही आसक्त रहते हैं। ऐसा नही है कि ज्ञानी कर्म नही करते या फिर जो गुणों की महत्ता को जान लेते हैं वो कर्म नही करते कर्म तो करते हैं लेकिन सावधान और सचेत होकर। जो गुणों में और कर्मों में आसक्त है उसे ज्ञानी कभी विचलित ना करे नही तो वह अपना स्वभाविक कर्म नही कर पायेगा।
प्रामात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके,, भगवान जितनी सरलता से कहते हैं उनकी बात को मानकर अगर चला जाये तो यह दुनिया उतनी ही सरल हो जायेगी उतनी ही सहज बन जायेगी। लेकिन हम तो अपने जीवन में कोई भी कार्य उनको अर्पण नही करते और सारा अच्छे बुरे कर्मों का भार स्वंय के ऊपर ही लेकर रखते हैं। उस भार के निचे दुखी होते रहते हैं परेशान होते रहते हैं। आशा रहित, ममता रहित और संताप रहित होकर अपना कार्य करें। कितना सुंदर कहा है कि कोई भी काम हम करते हैं तो उसमें किसी भी प्रकार की कोई आशा ना हो इच्छा ना हो। कर्म तो कर्म हैं जो हम करते हैं उसे बस अपना कर्तव्य समझकर ही करते रहे। ममता रहित,,,,, ममता मतलब मेरा.... कोई भी कर्म हमारा नही है जैसे अगर जल कहे की शितलता मेरी है, सुर्य कहे की प्रकाश मेरा है तो बात सही नही है ना। इनके पिछे जो इन्हे प्रकाशित करता है वह शक्ति तो भिन्न ही है। जो भी कर्म हम करते है उस पर हमारा अधिकार नही है और किसी भी तरह का संताप नही होना चाहिए।
भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित होकर मेरे इस मत का अनुशरण करते हैं वो सम्पुर्ण कर्मों से छुट जाते हैं। और अगर मुझमें दोष निकालते हुए मेरी बात नही मानते तो उनको नष्ट हुए ही समझ।
उनको कोई नही साहरा दे सकता। जब तक पतंग डोर में होती है तभी तक एक दिशा में चलती है। जब डोर कट जाती है दिशाहीन होकर इधर उधर भटकती है। ये ही बात ऐसे मनुष्य की कही है जो भगवान के इस मत के अनुसार नही चलते और दोषारोपण करते हैं, वो तो सारी जिंदगी ही दिशाहीन भटकते रहते हैं उन्हे ही नष्ट हुए ही समझो। यहां पर ऐसा नष्ट नही है जैसे कोई मिट्टी का बर्तन टुटकर नष्ट हो जाता है। मनुष्य की सबसे पहली आवस्यकता है शांति सुरक्षा और निर्भयता। जो भी मनुष्य उस मत पर नही चलता वो अपनी शांति को नष्ट करके अशांत और भयभीत होकर स्वंय को नष्ट करता रहता है।
सब मनुष्य अपना कल्याण चाहते हैं। अगर हम शास्त्र विहित कर्म भी कर रहे हैं लेकिन फिर भी कल्याण नही होता और सारा जीवन भागते रहते हैं कभी किसी बाबा के पास तो कभी किसी की शरण में लेकिन कहीं से भी शांति सुरक्षा और निर्भयता नही प्राप्त होती। भगवान ने स्पस्ट कहा है कि मनुष्य के कल्याण के मार्ग में राग और द्वेष दो शत्रु हैं जो कि सबसे बङी बाधा हैं। और प्रकृति के गुणों के परवश हुए जितने भी कार्य किये जाते हैं उन सबमें कहीं ना कहीं राग और द्वेष लगे ही रहते हैं। तो भगवान ने हमारी समस्या का कितनी सहजता से समाधान बता दिया है। जैसे किसी को कोई घातक बीमारी हो जाती है डाक्टर दवाई देता है और निर्देश भी देता है कि फलां फलां चीज नही खानी है। वह मरीज जीभ का चटोरा महीनों दवाई काता है जब डाक्टर ने चैक किया तो बीमारी जस की तस। डाक्टर बङा परेशान हुआ कि इतनी अच्छी दवाई दे रहे हैं और फिरभी आराम नही लग रहा, तो उसने मरीज से पुधा कि जो मैंने आपको खाने के लिए मना किया था वो तो नही खाया। मरीज ने बङे ही भोलेपन से कहा कि डाक्टर साहब मैंने सोचा की एक दो बार खाने से क्या होगा और खाता रहा। यही गलती हम सब भी कर रहे हैं। हर बाबा गुरूसंत अपनी वाणियों में कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो किसी के प्रति भी राग द्वेष नही जगाओ। और अंत में ये ही बात भगवान को कहनी पङी। इतना सब सुनने के बाद भी सोचते हैं कि चल थोङा सा कर लो। और सारा जीवन ऐसे ही बीत जाता है। लेकिन कल्याण तो क्या उल्टा अपने को भय, असुरक्षा और अशांति के चंगुल में फंसाते जाते हैं।
अपने अपने धर्म के अनुसार किस प्रकार परमगति को प्राप्त कर सकते हैं। कहते हैं कि दुसरो के धर्म से अपना धर्म उत्तम है। चौकिये मत भगवान उस धर्म की बात नही कर रहे हैं जिसके बारें में हम लोग सोच रहे हैं। हम स्थुल धर्म को एक बेङे को ही धर्म समझते हैं। इस बात को बहुत ही सावधान होकर सचेत होकर समझे नही तो कहीं कोई गलती हो जायेगी। कहते हैं अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए अपना गुण रहित धर्म भी दुसरे के धर्म से उत्तम है। कई बार हम अपनी तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता के आधार पर ही निर्णय ले लेते हैं। जो हमारा कर्म है वही धर्म बताया गया है। हमारा जो भी काम है अगर हम उसे पुरी निष्ठा और लग्न ईमानदारी से करें तो चाहें हमारा कार्य कितनी भी निम्न श्रेणी का है कितना भी छोटा है वही श्रेष्ठ है अच्छा है। लेकिन हमने तो अपने मन का स्वभाव ऐसा बना रखा है कि चाहे हमारा कार्य कितना भी अच्छा हो लेकिन दुसरे का ही अच्छा लगता है और भगवान ने साफ शब्द्धों में कहा है दुसरे का धर्म तो भय को देने वाला है। एक कहावत कही जाती है कि दुसरे की भाली में घी ज्यादा ही दिखता है। यह गलत नही कहा गया। आज कोई भी अपने निर्धारित काम अपने फर्ज से संतुष्ट नही है। होता ऐसा है कि हम लोग अपने दफ्तर में अपने निर्धारित काम पर होते हैं हमारा ध्यान अपने कार्य पर अपने धर्म पर 30-40 प्रतिशत ही होता है बस ये ही विचार रहता है फलां आदमी ने इतना सारा धन कमा लिया उसका काम अच्छा है। और ऐसा नही है कि किसी को ये नही पता कि गलत है सब जानते हैं कि दुसरे का काम करना हमारे लिए कठीन होगा लेकिन अपने स्वार्थ, मोह और लोभ के लिए उसमें फंस जाते हैं। यही है कि दुसरे का धर्म भय को देने वाला है।
इससे आगे अर्जुन पुछता है कि हे कृष्ण कोई भी मनुष्य पाप नही करना चाहता अधर्म और अपराध नही करना चाहता फिर ऐसी कोनसी ताकत है जिसके सामने प्रेरित होकर ऐसा आचरण कर डालता है कोई अपराध कर देता है। यहां पर विवश नही कि विवश होकर मजबुर होकर करता है प्रेरित होकर। क्योंकि कई लोग कहते है आदमी मजबुर होकर अपराध या कोई पाप नही करता नही तो जन्म से कोई पापी नही होता कोई अपराधी नही होता। भगवान ने भी बिना किसी भुमिका के सिधा ही जबाब दिया है रजोगुण से उत्पन यह काम ही पाप कराता है। पहले ही कहा है ना कि प्रकृति के गुणों द्वारा परवश होकर कर्म करने के लिए बाध्य किये जाते हैं। बताया है कि इस सबका कारण है रजोगुण, जब व्यक्ति रजोगुण के भावों में बहता है तो उसे हर कोई स्वंय से बेहतर दिखाई देता है और जिधर भी देखता है कि फलां आदमी की इतनी कमाई उसने इतना धन कमा लिया और ऐसी सारी सुख सुविधायें और पैसा मैं कैसे प्राप्त कर सकता हुं। अपनी क्षमता से अधिक कमा तो सकता नही बस किसी अनुचित तरिके से ही हासिल करने की योजनाएं बनाता है। आगे भगवान कहते है कि यह काम बहुत खाने वाला है भोगो से कभी ना अघाने वाला। अगर यह काम किसी एक वस्तु की प्राप्ति के पश्चात ही ठहर जाये इसका यह सिलसिला रूक जाये तो भी अच्छा है लेकिन यह कभी खत्म नही होता भोगों से कभी तृप्त नही होता। रोज इसको नया चाहिए। आज एक लङकी तो कल नई लङकी, पुराने से ऊब जाता है। भोगों को भोगते हुए कभी संतुष्ट ही नही होता। एक के बाद एक पाप का आचरण करता ही रहता है। भगवान ने कहा है कि यही सबसे बङा दुष्मन है।
ऐसा नही व्यक्ति में ज्ञान नही है सभी में ज्ञान है विवेक है। लेकिन जैसे धुंए से अग्नि छिपी रहती है जेर से गर्भ ढका रहता है यहां पर जेर और धुंएं की बात कहकर इसारा किया है कि हमारे ज्ञान के ऊपर कोई इतना कठोर पर्दा नही है जिसे तोङा ना जा सके जेर कितनी महीन होती है लेकिन गर्भ को छिपाकर रखती है। धुंए का क्या अस्तित्व है लेकिन आग दिखाई नही पङती। जिस प्रकार कमरे में चाहे कितना भी गहरा काला अंधकार हो एक छोटी सी लौ जलाते ही अंधकार छु मंत्र हो जाता है। आगे जो काम की तुलना की है वह अग्नि के समान बताया है। एक बार आग जल जाये फिर उसमें चाहे कितना कुछ भी डाल दो सब स्वाहा हो जाता है और इसकी पुर्ति कभी नही होती उसी काम ने ज्ञान को ढक रखा है। इससे आगे ये भी बता दिया कि यह काम रहता कहां हैं। तो कहा है कि इंद्रियां मन और बुद्धि इसके वास स्थान हैं इनके साहरे से ही यह काम बाहर आता है। इसकी इतनी सामर्थ्य नही है कि अकेला आकर कुछ करके दिखा सके। यह तो मन और इंद्रियों के साहरे से ही अपना काम करता है। इनके बगैर काम का कोई महत्व नही है। डरने की कोई बात नही है ये ठीक है कि दुष्मन बहुत शक्तिशाली है लेकिन भगवान ने इसका भी इलाज बताया है कि किस प्रकार हम इस पर विजय पा सकते हैं। कहा है कि इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले पापी काम को बल पुर्वक मार डालों। गीता में शरीर को पांच भागों में विभाजीत किया है इसिलिए की आसानी से समझा जा सके। शरीर इंद्रियां मन बुद्धि और आत्मा। जो आज विभाजन कर रहे है कि ये दाढी वाले ये तिलक वाले ये गोरे ये काले। कहते हैं कि इंद्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि और बुद्धि से भी बलवान शक्तिशाली है आत्मा और हव प्रमात्मा का अंश कहा गया है। अगर हमें यह काम नाम के शत्रु खात्मा करना है इसको पराजित करना है तो आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानकर बुद्धि के द्वारा मन को काबु में करके इसको हरा सकते हैं। लेकिन व्यवहार में देखा जाता है कि मन जो कहता है या चाहता है और बार बार उसी का राग गाता रहता है उसी का चिंतन करता रहता है, तो बुद्धि भी मोहित हो जाती है। जब मन और बुद्धि एक साथ मिल जाते हैं तो बेचारी आत्मा की कहां सुनते हैं। जैसे एक कोई व्यक्ति किसी पद पर बङी इमानदारी और लग्न से कार्य करता है।
काम करते करते एक दजिन अचानक उसके दिमाग में एक बात आयी की फलां आदमी कार से आता है। आंख ने देखा और मन बस अब हर पल ये ही चिंतन करता रहता कि मेरे पास भी कार होनी चाहिए। और जब थोङा सा होस आता है तो बुद्धि कहती है कि तु जैसा भी है अच्छा है लेकिन यह बेईमान मन नही मानता। और गलत अनुचित तरिके से धन कमाने लगता है। पहली बार जब कोई गलत तरिके से पाप से धनादि का संग्रह करता है भयभीत रहता है बैचेन भी रहता है। ये आत्मा की तरफ से संकेत है कि जो तु कर रहा है जहां तु जा रहा है वो रास्ता ठीक नही है भयभीत बैचेन करके आत्मा सावधान करती है। लेकिन मन नही मानता और एक के बाद एक पाप अपराध करता रहता है। यह एक ऐसी दलदल है जिससे बिना विवेक के निकलना असम्भव है। भगवान कहते हैं कि आत्मा को श्रेष्ठ मानकर बुद्धि से मन को वश में करके जब कोई कार्य होता है तो यह दुष्मन काम सिर्फ देखता ही रहता है हमारा कोई अनिष्ट नही कर सकता है। यही कारण है कि इस पर ही जोर देकर कहा है कि इसे बल पुर्वक मार डालो।
तृतीय अध्याय इति पुर्णं

2 टिप्‍पणियां: