शुक्रवार, 4 जून 2010

नशे की दलदल में फंसते किशोर


नशे की दलदल में फंसते किशोर
आज सुबह सुबह ही मैंने हिंदुस्तान पेपर पढा तो पढते ही दिमाग झनझना गया। एक नशे की चपेट में किशोर का ग्राफ सा दिया गया है। उसमें लिखा था कि
राजधानी में शराब से प्रतिवर्ष हो जाती 2000 किशोरो की मौत।
और बताया है कि जितने भी लोग वहां पब वगैरह में जाते हैं तो उनमें 80 प्रतिशत 25 वर्ष से कम के युवा हैं, और 67 प्रतिशत 21 वर्ष से कम के हैं और तो और 33 प्रतिशत तो 16 से कम के ही हैं।
क्या आंकङा दिखाया है देखकर ही आंखो के सामने अंधेरा छा जाता है कि क्या होगा इन युवाओं का। जो 16 साल से पहले ही नशे में लग जाते हैं तो क्या होगा। ये खबर पता नही कितने लोगो ने पढी होगी और हो सकता है कि ऊपर से देखकर ही छोङ दी हो कि क्या पढे। आज के आधुनिक युग में तो ये सब आम बात है।
एक लङकी का बयान भी दिया है उसने कहा है कि कनाटपलेस मैं एक बार मुझसे आई डी दिखाने को कहा था लेकिन बसंत बिहार में कभी भी किसी ने आई डी नही देखी क्योंकि वहां में रोज जाती हुं। जाती लङकी का नाम मेघना आहुजा 22 साल बताया है। कितने शर्म और दुख की बात है कि हमारे किशोर जो समय उनके लिए अपना भविष्य संवारने के लिए है उन संवेदनशिल क्षणों में वो नशं में डुबकर सब कुछ भुल जाना चाहते हैं। गलती सारी शराब और पब की नही की वहां आई डी नही देखते या शराब के ठेके ज्यादा खुल गये हैं।
ये बहुत ही संवेदनशिल विषय है हमारे किशोरो को तोङने की साजिश है। भारत की सभ्यता को तार तार करने योजना है और हम सब उस जाल में फंसते जा रहे हैं। जिस देश का किशोर ही नशे में पङकर कमजोर हो जायेगा तो देश की तरक्की क्या वृद्ध करेंगे।
आज के माता पिता की सोच ये हो गयी है कि हमारे बच्चे आधुनिक जमाने के साथ चलें और दुसरो को ये बाते बताकर कितने खुश होते है की लिखने मुशिकल है। लेकिन क्या कभी इसका परिणाम देखा है या कभी कल्पना है........ जो आज बच्चा बियर पी रहा है वो कल शराब पीयेगा पब जायेगा और जब नशा सिर चढता है तो दिमाग में कोई सात्विकता तो आ नही सकती क्रोध हिंसा और वासना की तरफ आकर्शित रहता है और कुछ दिनों तक तो वह किसी भी बात का चिंतन मन ही मन करता है लेकिन पब में कोई शराब पीकर भजन तो गाता नही वहां किस तरह का काम होता है सभी को पता है। एक मासुम बच्चा जो अभी तक सिर्फ बियर पिने के लिए जाता था वहां पर लङकियों को देखकर उन्हे भी भोगने की कोशिश करता है फिर लङकियों से नजदीकी बढाता है तो उसका खर्च भी बढता है। दोस्तों ये वही शुरूआत है जहां से वही बच्चा नशे और सैक्स में पङकर चोरी डकैती लुट खसोट और हत्या तक कर देते हैं। और परिणाम भुगतना पङता है उसके घर परिवार और पुरे समाज को। इस विकट समस्या का समाधान हम सबको ही मिलकर करना है। नही तो हम सबको इस आग में झुलसना पङेगा ये नही सोचो की हमारे बच्चे तो शराब नही लेते हो सकते हैं जो शराब पिकर अपराध करें उसका आप और हम कोई भी हो सकता हैं।
सावधान जाग जाओ नही तो सोते ही रहोगे।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

जीवन का आईना है- श्री मद्भगवद्गीता अध्याय तृतीय


कर्म फलों ले मुक्ति
ये बात बिलकुल सही है कि मनुष्य को उसके कर्मों के द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है। हमारे कर्म ही बंधन और मोक्ष के कारण होते हैं। और अगर देखा जाय इतना आगे की भी ना सोचे तो साधारण सी बात ले लो हम अपने कर्मों से ही समाज में अपनी जगह बनाते हैं और कर्मों के कारण ही यही समाज हमारा बहिष्कार कर देता हमें ठुकरा देता है। तीसरा अध्याय का नाम दिया है कर्म योग, और भगवान ने बिलकुल स्पस्ट बताया भी है कि किस तरह हम अपने कर्म करते हुए मुक्ति को प्राप्त हों। दुसरे अध्याय में भगवान ने बङे ज्ञान की कर्म की बातें की और जैसे ही अपनी बात कहकर चुप हुए तो। यहां पर उन्होंने सोचा होगा की अब तो इतना सब सुनने के बाद अर्जुन का कोई प्रश्न नही होगा कोई शंका नही होगी और एक अच्छे बच्चे की तरह काम करेगा। लेकिन जैसे ही भगवान चुप हुए तो अर्जुन ने एक दम अपना नया सवाल दे मारा। इसमें कुछ शिकायत सी भी थी अर्जुन कहता है कि हे भगवान आप कभी तो कहते हो की ज्ञान मार्ग से कल्याण होगा तो कभी कर्मयोग को महत्वपुर्ण बताते हो। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हो। जो बात मेरे लिए कल्याण की हो आप वो ही कहिए जिससे मेरा भला हो और अकेले अर्जुन की ही नही हम सबकी बात है कि सब ये ही चाहते हैं कि कोई ज्यादा परिश्रम भी ना करना पङे और हमारा कल्याण हो जाये। एक बार फिर प्रश्नों की गैंद भगवान की तरफ उछाल दी। वह एक के बाद एक तरिका सोच रहा था जिससे इस युद्ध से बच सके इतना बङा नरसंहार ना करना पङे। अर्जुन यह भी चाहता है कि भगवान स्वंय ही कोई ऐसा मार्ग निकाल दें और कोई आगे ये भी ना कहे कि अर्जुन ने मोह या भय के कारण युद्ध से पलायन किया था। तभी तो भगवान से कह रहे हैं कि वो एक मार्ग मुझे निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊं। और यहां पर अर्जुन अपना कल्याण समझ रहा है राज्य का सुख, परिवार का सुख और प्रमात्मा की कृपा भी।
इस प्रकार भगवान अर्जुन के शिकायती लहजे में पुछने पर कहते हैं कि हे निष्पाप इस लोक में पहले ही मैंने दो प्रकार की निष्ठा कही है और व्यक्ति अपनी निष्ठा के अनुसार ही कार्य करता है। एक ज्ञान योग और दुसरी कर्म योग। ये दो रास्ते हैं लेकिन मंजील एक ही है कि प्रमात्मा की प्राप्ति। सांख्य की ज्ञान से और योगी की कर्म के मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाकर अपना कल्याण कर सकता है। चाहे दोनों में किसी रास्ते पर ही चल पङो मंजील मिल ही जायेगी।
और ज्ञान हो या कर्म योग युद्ध का विकल्प दोनो में ही है। यहां पर एक बात भगवान सबसे महत्वपुर्ण कहते हैं कोई भी मनुष्य किसी भी समय एक पल के लिए भी कर्म किये बिना रह सकते हैं। अर्थात कर्मों का त्याग नही कर सकते। जैसा हम अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सोचते हैं कि इस क्षण पढ रहे हैं या खेल रहे हैं ड्यूटी कर रहे हैं तो ही कार्य कर रहे होते हैं। जब विश्राम करते हैं तो कोई कर्म नही करते यानि की कई बार हम निश्चय कर लेते हैं कि जैसे कभी वर्त करते हैं तो कोई काम नही करेंगे कहीं हमसे कोई गलती ना हो जाये। लेकिन भगवान ने कितना स्पस्ट कहा है कि एक क्षण भी कर्म किये बिना नही रह सकते अर्थात कोई ना कोई कोई कार्य करते ही रहते हैं। और हर एक कर्म के साथ राग और द्वेष लगे रहते हैं। कोई भी कर्म ऐसा नही है कि जिसमें राग और द्वेष ना हों। और कारण भी यहीं पर बता दिया क्योंकि कहीं कोई आगे चलकर मेरी इस बात को पता नही किस तरह से तरोङ मरोङ कर पेश की जाये यहीं पर इसका स्पस्टीकरण किया कि हम सभी पृक्रति से उत्पन गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करने के लिए बाध्य हैं। हमें कर्म करना ही पङेगा। जैसे सरकारी पद पर कोई डाक्टर इंजिनयर न्यायाधिष या फिर कोई सैनिक अपना अपना कर्म करने के लिए सरकार के अधिन होकर मजबुर है उन्हे अपना काम पुरा करना पङेगा ही। यहां पर कहा है कि परवश हुआ अर्थात दुसरे के अधिन होकर मजबुर होकर जिस क्षण जो भी गुण हमारे ऊपर प्रभावी रहता है उसी के अनरूप कर्म करते हैं। यानि कि हम पृक्रति के गुणों के अधिन हैं। लेकिन जो मूढबुद्धि हैं जो मंदबुद्धि और हठी हैं वो कर्मेंद्रियों को बल पुर्वक ऊपर से रोककर भोगों को मन से चिंतन करते रहते हैं उन्हे मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा गया है। जिस तरह हम कई दफा हम सोचते हैं कि फलां जगह नही जाना तो हमने पैरो को वहां जाने से रोक लिया लेकिन मन से वहां के बारें में सोचते रहते हैं। हमने निश्चय किया की आज अन्न का वर्त रखेंगे लेकिन मन से अनेक प्रकार के स्वाधिष्ट व्यजनों का आनंद लेते रहते हैं। भगवान ने बिलकुल दो टुक भाषा में उनको मिथ्याचारी यानि की झुठे आचरण करने वाले पाखंडी कहा है। वो सिर्फ दिखाने के लिए सब कुछ करते हैं। जो पुरूष मन से सब इंद्रियों को रोककर अनासक्त होकर,,,, भगवान ने जो भी कोई बात कही है उसमें प्रत्येक के पिछे एक ना एक शर्त रख दी और जो हम लोग सारा जीवन गीता अध्ययन करते रहते हैं और फिर भी हमारे आचरण और व्यवहार में गीता नही आती । उसका सबसे बङा कारण है कि हम उन संकेतों को भुल जाते हैं। जैसा यहां पर कहा है कि अनासक्त होकर तो जो ये बात इतनी सहजता और सरलता से लिख दी और आपने पढ ली है उससे कहीं ज्यादा क्रिया में लाना कठिन है क्योंकि हमारी सबसे बङी गलती यही है कि आसक्त रहते हैं भगवान कहते हैं अनासक्त होकर कर्म कर लेकिन हम तो कर्म किये बगैर ही सिर्फ विचार कर करके कि फलां काम करेंगे उसका चिंतन करके ही इतने आसक्त हो जाते हैं कि काम किया नही और उसकी सफलता और असफलता को लेकर इतने बह जाते हैं कि...... .
भगवान ने कहा अनासक्त होकर कोई कर्म करता है वही श्रेष्ठ है। कर्म तो हर व्यक्ति ही करता है लेकिन भगवान ने उन्ही को श्रेष्ठता की उपाधी दी है जो अनासक्त होकर इंद्रियों को वश में करके कर्म करता है। एक बात का खुलासा यहां कर दिया की व्यक्ति अपनी आयु, पद, शिक्षा, धन दौलत से श्रेष्ठ नही होता बल्कि अपने कर्म से क्षेष्ठ और महान बनता है। आगे कहते हैं कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कई बार ऐसा होता है कि जब कोई आदमी ज्यादा अति में चला जाता है उसे हर कर्म में कोई ना कोई दोष नजर आने लगता है। मैं किसी को गलत नही कह रहा हुं। मैंने कई लोग देखे हैं कि सब्जी तक काटने में हिंसा समझते हैं। अरे भाई सब्जी काटने में हिंसा नही है अपने विचारों में हिंसा ना लाये। एक कोई किसान है फसल बुवाई के लिए अपना खेत जोतता है उसने देखा की धरती पर तो असंख्य जीव जंतु रेंग रहे हैं वह सारा काम छोङकर घर आ गया। उसके पिता ने पुछा की क्या हुआ बहुत जल्द सारा काम खत्म करके आ गया है। उसने कहा पिता जी मैं काम ही नही करके आया क्योंकि वहां पर सैंकङो जीव घुम रहे थे अगर मैं हल चलाता तो सब के सब मर जाते कितना पाप लगता। इस पर पिताजी ने उसे समझाया की अगर तु ये ही देखकर काम नही करेगा और सब लोग इसी तरह से ही काम छोङकर बैठ जायेंगे तो सारी दुनिया भुख से तङप तङप कर मरेगी। क्या वह पाप नही है। तो कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। एक सैनिक जो सीमा पर देश की सेवा कर रहा है और दुसरा देश लङाई के लिए हमारे सिर पर आकर खङा हो जाये और हमारा सैनिक उस काम को हिंसा और नरसंहार समझकर हथियार डाल दे तो क्या होगा। और कर्म ना करने से शरिर का निर्वाह भी सिद्ध नही होगा। कितनी सरलता से भगवान ने समझाने की कोशिश की है अगर कर्म से पलायन से करेंगे तो कैसे निर्वाह होगा। यहां यह तो बात है ही कि हम की खाना और जरूरत की वस्तुओं का संग्रह हम कर्म करके ही कर सकते हैं। दुसरा ये है कि आंख खोलना मुंदना सोना जागना खाना स्वांस लेना को भी कर्म की संज्ञा दी गयी है। अगर हम कर्म ही नही करेंगे तो शरीर कैसे चलेगा। आगे भगवान कहते है कि यज्ञ के अलावा जो भी कर्म करते हैं उन्हीं से बंधनों में फंसते और कई बंधुओं ने इसी उपदेश का गलत लाभ उठाया। कहा कि प्रमात्मा के नाम पर यज्ञ करो तो ही हम मुक्त हो सकते हैं। पहले भी इस बात का वर्णन किया गया है गीता रूपी महासागर के अंदर से हर किसी ने अपने अनुसार जैसी भी जरूरत थी वो ही निकाल लिया। और बाकि दिव्य उपदेश को गोण कर दिया। तो यहां पर ऐसा ही हुआ है कि यज्ञ कर्मों से ही हम कर्म बंधनों से मुक्त हो सकते हैं। लेकिन यज्ञ कर्म कोनसे है। प्रजापति ब्रह्मा ने जब यह सृष्टि रची तो सारी प्रजा को कहा कि तुम लोग यज्ञ करो और इन यज्ञों के द्वारा तुम्हें इच्छित भोग प्राप्त होंगे। और अगर उनको बिना दिये खाते हो तो पाप को ही खाते हो। कहने का अर्थ यह था कि जब तक स्वार्थी रहोगे तो बंधनों में बंधोगे ही। और यज्ञ विहित कर्म बताये हैं। यानि कि जो भी हम कर्म करते हैं इस प्रकार करों की एक एक कर्म हमारा यज्ञ बन जाये। और वो बनेगा जब हम स्वार्थ छोङकर परमार्थ के लिए काम करेंगे। यहां पर कई लोग कहेंगे की अगर हम काम परमार्थ के लिए करेंगे तो बच्चों को कैसे पालेंगे या अनाथाश्रम जायेंगे। इस बात का भी खंडन अगले ही श्लोक में कर दिया भगवान कहते हैं कि यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो पहले यज्ञ के निमित्त देते हैं बाद में बचे हुए को खाने वालो को ही श्रेष्ठ कहा गया है कि सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। गीता के एक एक श्लोक को अपनी वर्तमान जिंदगी से मिलाकर चलें। मैं पहले ही लिख चुका हुं कि गीता सिर्फ परमगति या परलोक के लिए ही नही है। तो हम अपने व्यवहारिक जीवन में यज्ञ से बचाकर कैसे खायें।
आगे भगवान ने हमारी नजरों पर चढे एक और पर्दे को हटाया है। कि किस तरह से ये सृष्टि चक्र घुम रहा है। सभी प्राणी अन्न से पैदा होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से और यज्ञ विहित कर्मों से जो कर्म समुदाय है वो वेद में कहे गये हैं, वेद प्रमात्मा से उत्पन हुए जान। गीता एक ऐसा दिव्य शास्त्र है जिसमें मनुष्य ने अपनी इच्छा अनुसार कोई ना कोई एक बात को पकङकर उसका साहरा लेकर अपना उल्लु सिधा किया है। लेकिन यह बात किसी ने किसी को कभी नही बताई। यहां पर भगवान ने ये नही कहा कि सभी हिंदू या सभी मुश्लीम या सभी भारतीय ही अन्न से उत्पन होते हैं। सभी प्राणी पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, मनुष्य और मनुश्यत्र को ही बताया है। अगर यह बात हमारे साम्प्रदायिक ठेकेदार यही एक भगवान का उपदेश ही सभी को बता और समझा देते तो दुनिया में इतनी मारा मारी नही होती। यज्ञ में प्रमात्मा प्रतिष्ठित हैं यानि की जितने भी यज्ञ होते हैं वहां प्रमात्मा हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात ये रही है कि सिर्फ आग में आहुति देने सामग्री और घी डालने की क्रिया को ही यज्ञ समझते हैं। यहां भगवान का संकेत है कि हम अपने हर कर्म को यज्ञ बना सकते हैं। क्योंकि आज तक तो हम जितने भी कर्म करते आये हैं अपने लिए ही कियें स्वार्थ के लिए ही किये है कभी कोई यज्ञ के निमित्त नही किये और इसिलिये बंधनों में फंसते हैं। हमारे सभी कर्म स्वार्थमय, अपने और परिवार तक ही सिमित हैं। अपनी इच्छाओं की प्राप्ति उनको हासिल करना ही सबसे बङा धर्म समझते हैं। भगवान कहते हैं यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले पाप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन हम लोग बचा हुआ तो क्या खायेंगे दुसरो के अधिकारों को भी खा जाते हैं। दुसरों का शोषण करते रहते हैं। जो यह सृष्टिचक्र है कोई मनुष्य इसके अनुसार नही चलता तो उसके विरूद्ध चलता है वह बंधनों में फंसता जाता है। यहां पर उन बंधनो की बात नही करनी हमें जो अगले जन्मों में बांधने वाले हैं। इतने आगे हमें नही जाना। गीता तो जीवन का आईना है जो सिर्फ वर्तमान ही दिखा सकता है तो हम यहां उन्हीं बन्धनो पर विचार करें जिनमें हम बंध रहे हैं। जब हम सृष्टि चक्र के विपरित चलते हैं अर्थात हर प्राणी में प्रमात्मा नही समझकर सिर्फ अपने तक ही सिमित रहकर छोटे छोटे सुखों के पिछे भागते हुए अन्याय पुर्वक दुसरों को हानि पहुंचाकर धनादि का संग्रह करते हैं। ये सभी के साथ है ऐसा नही है कि किसी एक के साथ ही घटता हो। और इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जिनके लिए कोई कर्तव्य नही है सब कर्मों से मुक्त हैं। ये बाच पढकर सभी भाईयों के अंदर उत्सुकता सी हो रही होगी की हमें भी वह मार्ग पता चले की कि जिसके लिए कोई कर्तव्य नही है। पहले जान ले कि कर्म तो है क्योंकि कर्म तो हर जीव प्रकृति के गुणों द्वारा परवश हुआ करता है। कर्म तो होगें लेकिन कोई भोग नही कोई फल नही होगा, बस कर्म किया और समाप्त हो गया। जिस तरह पानी में बुलबुला बना दुखाई भी दिया लेकिन कुछ ही पलों बाद हवा लगते ही फुट गया अब उसका कोई अस्तित्व नही रहा बस पानी था और पानी ही रह गया। बिलकुल इसी तरह ही हमारे कर्म भी विलिन हो जायेंगे दिखाई तो देंगे की कर्म तो कर रहे हैं परन्तु यहीं तक ही रह जायेंगे। जो आत्मा मे ही रमण करने वाला है अब सवाल ये उठता है कि आत्मा में रमण कैसे करेंगे वो कोई जगह तो है नही कि घुम आयेगे। बहुत से संतो ने महात्माओं ने अपनी वाणियों में भी इस बात का वर्णन बहुत प्रकार से किया है। रमण करना अर्थात जहां तक जिसमें यह आत्मा रमी हुई है उसकी गहराई तक जाना जिस प्रकार हम देखते हैं बहुत से बर्तन में पानी भरा है और चांद की परछायी सभी में है लेकिन चांद तो एक है उसी प्रकार आत्मा में रमण करना तथा आत्मा में ही तृप्त रहना यानि की आत्मा में जो जिस रूप में हमें दिखाई पङ रही है स्वरूप चाहे जो भी हो लेकिन जो उस स्वरूप को प्रकाशित कर रहा है उसमें रमण करके किसी भी प्रकार की उत्कंठा नही रही पुरी तरह से तृप्त है वह आत्मा में ही संतुष्ट है। बस हमारी सबकी सबसे बङी कमी ही ये है कि जीवन में संतुष्ट नही हैं। और संतुष्ट होंगे भी कैसे। जब तक हमारें अंदर उत्कंठाएं तो संतुष्ट नही हो सकते जहां हम सब आज बीबी बच्चों धन दौलत घर परिवार में संतुष्टि खोजते हैं वहां नही बताई संतुष्टि तो आत्मा में ही बताई है। ैसे महापुरूष कोई कर्म करे या ना करें किसी बंधन में नही पङता, किसी भी प्राणी में अंश मात्र भी स्वार्थ नही रहता। कितनी महत्वपुर्ण बात है कि जीवन में इतनी बङी क्रांति घट सकती है कि जिसकी कभी कल्पना भी नही की होगी।किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थ नही रहता। अगर हम अपना ही विशलेष्ण करते हैं तो और गहराई में डुबकी लगाकर खोजते हैं कि स्वार्थ है या नही। 90 प्रतिशत जगह स्वार्थ से ही भरी मिलती है। हम किसी से भी बात करतें हैं तो स्वार्थपुर्ण ही करते हैं। और भगवान कहते हैं कि उस महापुरूष का किसी में भी स्वार्थ का संबंध नही रहता। यहां पर महापुरूषों का वर्णन किया है। आगे जो बात कह रहे हैं वह हम सबके लिए ही है कि तुम आसक्ति से रहित होकर कर्म करो ये ही उपाय है जिससे सभी बंधनो को तोङ सकते हो। और प्रमात्मा को प्राप्त करके उसकी कृपा का रसास्वादन कर सकते हो। एक भगवान ने उदाहरण भी दिया है कि जनक आदि भी इसी प्रकार कर्म करके ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। कृष्ण जानते थे कि अगर यहां पर किसी साधु संत का नाम लिया गया तो तो आगं चलकर लोग बङे चतुर होंगे और अनेकानेक बहाने बना लेंगे कि वो तो संत थे उनको किसी की कोई चिंता नही थी। लेकिन हमारा तो पुरा घर परिवार है अगर आसक्ति नही करेंगे तो इच्छा नही करेंगे तो कैसे घर चलेगा। तो जनक बहुत बङे राजा हुए थे और अपने परिवार पत्नि बच्चे राज्य और प्रजा के लिए पर कर्तव्य पुरा किया लेकिन आसक्ति रहित होकर। इससे यह बात सिद्ध होती है कि कर्मों का अमीरी गरीबी शिक्षित या अशिक्षितता से कोई दुर तक का लेना देना नही है। आसक्ति कोठी की भी ना हो और सब कुछ छोङने के बाद लगोंटी में बनी रहे।
श्रेष्ठ पुरूष जैसा जैसा आचरण करते हैं अन्य भी वैसा ही करते हैं। अगर ध्यान से देखा जाय आज जो पुरे विश्व की इतनी बदतर हालात हो रही है जिस पर अंकुश लगाना किसी के हाथ में नही है सब बेबश हैं। और दुनिया का हर बुद्धिजीवी इसी बात से चिंतित है। इस दिव्य उपदेश का एक छोटा सा अंश ही सारी समस्या का समाधान कर सकता है। थोङा सा चिंतन करो तो सब समझ में आ जाता है कि हम देश और दुनिया की बात नही करते इस बिमारी को समझने के लिए विश्व की सबसे छोटी कङी पर ही प्रयोग करना होगा। एक फिल्म के गाने की एक पंक्ति है जिसका बङा भाई हो शाराबी छोटा पीये तो क्या है खराबी है ना बिलकुल यही अर्थ यानि की श्रेष्ठ पुरूष यानि की बङा जैसा काम करेगा तो उसे देखकर दुसरे भी ऐसा ही करेगा। अगर घर के मुखिया या देश के शाशक गलतीयां करे या उनका आचरण अच्छा ना हो तो दुसरो को कैसे प्रेरित करेंगे। जो नशा है या चौरी करता हो वो दुसरों को नशा मुक्ति का क्या संदेश दे सकता है। आगे भगवान ने कितनी बङी बात कही है कि हे अर्जुन मुझे इस संसार में कुछ भी कार्य करने की जरूरत नही है और कोई वस्तु ऐसी नही है जो मैं प्राप्त ना कर सकुं। क्योंकि सारी सृष्टि का मालिक भगवान है। तो भी बङी सावधानी से कर्म करता हुं नही तो बङी हानि हो जायेगी स्थिती बहुत खराब हो जायेगी।यहां पर भगवान ने किसी और का नाम नही लिया भीष्म धृतराष्ट्र जो इतने वरिष्ठ और हर प्रकार से सम्पन्न थे जिन्हे बिना कुछ किये ही सब कुछ प्राप्त हो सकता था लेकिन भगवान ने अपना उदाहरण दिया है की तु या ये संसार में कोई आम आदमी की बात ही अलग है मैं स्वंय भी बहुत ही सावधान होकर कर्म करता हुं। क्योंकि सभी मनुष्य जैसा में करूंगा वैसे ही करेंगे और यही कहेगें की जब भगवान ही ऐसा करते हैं तो हमने कर दिया तो क्या गलत किया है। और सबकी बरबादी का कारण मैं ही बनुंगा।
भगवान सारी दुनिया मैं सर्वोत्तम हैं लेकिन हम भी अपने को अपने घर में गांव में मौहल्ले में श्रेष्ठ मानते होंगे हमें भी इस दिव्य उपदेश को अपने जीवन में लाना चाहिए और कोई कार्य ऐसा ना हो जिससे कारण हम बनें।
हे भारत कहकर संबोधन किया है और गीता में करीब 20यों बार अर्जुन को भारत के नाम से संबोधित किया है। इसका मतलब यह हुआ कि धरती पर चाहे कितने भी सम्प्रदाय खङे कर लो लेकिन यह दिव्य उपदेश जब भी लुप्त होगा या मानव जाति अज्ञान मोह और भय से ग्रसित होकर अर्जुन की भांति अपने कर्म से पलायन करेगा और अपराध तथा हिंसा का समाज में साम्राज्य होगा तो इस उपदेश के द्वारा भारत ही पुरी दुनिया को लाभान्वित करेगा। भगवान ने कहा है कि जिस प्रकार अज्ञानीजन कर्मों में आसक्त होकर कर्म करते हैं अब समझने की बात यह है जो कार्य ज्ञानी करते हैं क्या वह कुछ अलग है। कहा है कि जो विद्वान है वो आसक्तिरहित होकर लोक संग्रह चाहता हुआ कार्य करता है। एक ही काम को ज्ञानी अज्ञानी करे लेकिन जो विवेकशिल हैं वो लोक संग्रह चाहता हुआ करता है और अज्ञानी उसी कार्य को आसक्त होकर और ज्यादा परिश्रम से स्वकल्याण की भावना से करता है। इसका परिणाम हम सबके समक्ष है कि आज 60 प्रतिशत लोग तनाव, चिङचिङेपन के मरीज होते जा रहे हैं। यह बात कितनी सहजता से कह दी की लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। इससे क्या होगा व्यवहारिकता में समझे हम लोग कोई भी एक काम करते बङी शारिरिक परिश्रम से और उसके फल के प्रति इतने आसक्त हो जाते हैं कि जैसे किसी नोकरी के लिए हमने आवेदन किया ओर उसकी तैयारी के लिए खुब अध्ययन भी किया सारी तैयारी की यहां तक तो ठीक है लेकिन एक बात और सबसे गलत जो हम करते हैं कि काम हुआ नही कि उसके फल के प्रति इतने आसक्त हो गये और विचार करने लगे की मैं पुलिस में हो जाऊंगा बहुत सारा पैसा कमाऊंगा, अच्छी सी शादी हो जायेगी, गाङी ले लुंगा पता नही कितनी लम्बी लिस्ट बनाकर बैठ जाता है। कहा है कि लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे मैं पुलिस में चुन लिया गया तो जनता की सेवा करूंगा जो वह इतनी कल्पनाए करके बैठा है वो सब तो स्वत ही प्राप्त हो जायेंगी लेकिन हम तो इतनी बुरी तरह आसक्त हो जाते हैं कि अगर किन्हीं कारणों से भर्ती नही हो सका और सारी इच्छाओं का पहाङ भरभराकर गिर गया तो इतने ऊपर से गिरकर सम्भलना आसान नही होता। परिणाम यह होता है कि अपना मानसिक शारीरिक संतुलन खोकर अपने अंदर बहुत सा बीमारियों का घर बना लेते हैं। इसिलिए कहा है कि जो भी काम करे विवेक से आसक्ति रहित होकर दुसरों के कल्याण की भावना से करें तो हमारी कभी कोई हानि या अनिष्ट नही हो सकता।
एक बात और स्पस्ट है कि जितने भी हम कर्म करते हैं वो सब प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं। हम कभी कोई पुजा, ध्यान, तपादि करते हैं तो हम सात्विक गुण के प्रभाव में हैं और उसके प्रभाव से हम जो भी काम कर सकते हैं वो सब करते हैं, लेकिन अंहकार के कारण यह मन ये सोच लेता है कि ये फलां काम मैंने किया है अर्थात अज्ञानी लोग मैं कर्ता हुं ऐसा समझ लेते हैं। लेकिन जो गुणों के प्रभाव को जानता है ऐसा ज्ञानी तो बस ये विचार कर कार्य करता है कि जो भी जिस समय होता है उनमें प्रकृति के गुणों के अलावा कुछ है ही नही। जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से ज्यादा मोहित रहता है वो कर्मों में भी बहुत ही आसक्त रहते हैं। ऐसा नही है कि ज्ञानी कर्म नही करते या फिर जो गुणों की महत्ता को जान लेते हैं वो कर्म नही करते कर्म तो करते हैं लेकिन सावधान और सचेत होकर। जो गुणों में और कर्मों में आसक्त है उसे ज्ञानी कभी विचलित ना करे नही तो वह अपना स्वभाविक कर्म नही कर पायेगा।
प्रामात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके,, भगवान जितनी सरलता से कहते हैं उनकी बात को मानकर अगर चला जाये तो यह दुनिया उतनी ही सरल हो जायेगी उतनी ही सहज बन जायेगी। लेकिन हम तो अपने जीवन में कोई भी कार्य उनको अर्पण नही करते और सारा अच्छे बुरे कर्मों का भार स्वंय के ऊपर ही लेकर रखते हैं। उस भार के निचे दुखी होते रहते हैं परेशान होते रहते हैं। आशा रहित, ममता रहित और संताप रहित होकर अपना कार्य करें। कितना सुंदर कहा है कि कोई भी काम हम करते हैं तो उसमें किसी भी प्रकार की कोई आशा ना हो इच्छा ना हो। कर्म तो कर्म हैं जो हम करते हैं उसे बस अपना कर्तव्य समझकर ही करते रहे। ममता रहित,,,,, ममता मतलब मेरा.... कोई भी कर्म हमारा नही है जैसे अगर जल कहे की शितलता मेरी है, सुर्य कहे की प्रकाश मेरा है तो बात सही नही है ना। इनके पिछे जो इन्हे प्रकाशित करता है वह शक्ति तो भिन्न ही है। जो भी कर्म हम करते है उस पर हमारा अधिकार नही है और किसी भी तरह का संताप नही होना चाहिए।
भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित होकर मेरे इस मत का अनुशरण करते हैं वो सम्पुर्ण कर्मों से छुट जाते हैं। और अगर मुझमें दोष निकालते हुए मेरी बात नही मानते तो उनको नष्ट हुए ही समझ।
उनको कोई नही साहरा दे सकता। जब तक पतंग डोर में होती है तभी तक एक दिशा में चलती है। जब डोर कट जाती है दिशाहीन होकर इधर उधर भटकती है। ये ही बात ऐसे मनुष्य की कही है जो भगवान के इस मत के अनुसार नही चलते और दोषारोपण करते हैं, वो तो सारी जिंदगी ही दिशाहीन भटकते रहते हैं उन्हे ही नष्ट हुए ही समझो। यहां पर ऐसा नष्ट नही है जैसे कोई मिट्टी का बर्तन टुटकर नष्ट हो जाता है। मनुष्य की सबसे पहली आवस्यकता है शांति सुरक्षा और निर्भयता। जो भी मनुष्य उस मत पर नही चलता वो अपनी शांति को नष्ट करके अशांत और भयभीत होकर स्वंय को नष्ट करता रहता है।
सब मनुष्य अपना कल्याण चाहते हैं। अगर हम शास्त्र विहित कर्म भी कर रहे हैं लेकिन फिर भी कल्याण नही होता और सारा जीवन भागते रहते हैं कभी किसी बाबा के पास तो कभी किसी की शरण में लेकिन कहीं से भी शांति सुरक्षा और निर्भयता नही प्राप्त होती। भगवान ने स्पस्ट कहा है कि मनुष्य के कल्याण के मार्ग में राग और द्वेष दो शत्रु हैं जो कि सबसे बङी बाधा हैं। और प्रकृति के गुणों के परवश हुए जितने भी कार्य किये जाते हैं उन सबमें कहीं ना कहीं राग और द्वेष लगे ही रहते हैं। तो भगवान ने हमारी समस्या का कितनी सहजता से समाधान बता दिया है। जैसे किसी को कोई घातक बीमारी हो जाती है डाक्टर दवाई देता है और निर्देश भी देता है कि फलां फलां चीज नही खानी है। वह मरीज जीभ का चटोरा महीनों दवाई काता है जब डाक्टर ने चैक किया तो बीमारी जस की तस। डाक्टर बङा परेशान हुआ कि इतनी अच्छी दवाई दे रहे हैं और फिरभी आराम नही लग रहा, तो उसने मरीज से पुधा कि जो मैंने आपको खाने के लिए मना किया था वो तो नही खाया। मरीज ने बङे ही भोलेपन से कहा कि डाक्टर साहब मैंने सोचा की एक दो बार खाने से क्या होगा और खाता रहा। यही गलती हम सब भी कर रहे हैं। हर बाबा गुरूसंत अपनी वाणियों में कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो किसी के प्रति भी राग द्वेष नही जगाओ। और अंत में ये ही बात भगवान को कहनी पङी। इतना सब सुनने के बाद भी सोचते हैं कि चल थोङा सा कर लो। और सारा जीवन ऐसे ही बीत जाता है। लेकिन कल्याण तो क्या उल्टा अपने को भय, असुरक्षा और अशांति के चंगुल में फंसाते जाते हैं।
अपने अपने धर्म के अनुसार किस प्रकार परमगति को प्राप्त कर सकते हैं। कहते हैं कि दुसरो के धर्म से अपना धर्म उत्तम है। चौकिये मत भगवान उस धर्म की बात नही कर रहे हैं जिसके बारें में हम लोग सोच रहे हैं। हम स्थुल धर्म को एक बेङे को ही धर्म समझते हैं। इस बात को बहुत ही सावधान होकर सचेत होकर समझे नही तो कहीं कोई गलती हो जायेगी। कहते हैं अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए अपना गुण रहित धर्म भी दुसरे के धर्म से उत्तम है। कई बार हम अपनी तुच्छ और संकिर्ण मानसिकता के आधार पर ही निर्णय ले लेते हैं। जो हमारा कर्म है वही धर्म बताया गया है। हमारा जो भी काम है अगर हम उसे पुरी निष्ठा और लग्न ईमानदारी से करें तो चाहें हमारा कार्य कितनी भी निम्न श्रेणी का है कितना भी छोटा है वही श्रेष्ठ है अच्छा है। लेकिन हमने तो अपने मन का स्वभाव ऐसा बना रखा है कि चाहे हमारा कार्य कितना भी अच्छा हो लेकिन दुसरे का ही अच्छा लगता है और भगवान ने साफ शब्द्धों में कहा है दुसरे का धर्म तो भय को देने वाला है। एक कहावत कही जाती है कि दुसरे की भाली में घी ज्यादा ही दिखता है। यह गलत नही कहा गया। आज कोई भी अपने निर्धारित काम अपने फर्ज से संतुष्ट नही है। होता ऐसा है कि हम लोग अपने दफ्तर में अपने निर्धारित काम पर होते हैं हमारा ध्यान अपने कार्य पर अपने धर्म पर 30-40 प्रतिशत ही होता है बस ये ही विचार रहता है फलां आदमी ने इतना सारा धन कमा लिया उसका काम अच्छा है। और ऐसा नही है कि किसी को ये नही पता कि गलत है सब जानते हैं कि दुसरे का काम करना हमारे लिए कठीन होगा लेकिन अपने स्वार्थ, मोह और लोभ के लिए उसमें फंस जाते हैं। यही है कि दुसरे का धर्म भय को देने वाला है।
इससे आगे अर्जुन पुछता है कि हे कृष्ण कोई भी मनुष्य पाप नही करना चाहता अधर्म और अपराध नही करना चाहता फिर ऐसी कोनसी ताकत है जिसके सामने प्रेरित होकर ऐसा आचरण कर डालता है कोई अपराध कर देता है। यहां पर विवश नही कि विवश होकर मजबुर होकर करता है प्रेरित होकर। क्योंकि कई लोग कहते है आदमी मजबुर होकर अपराध या कोई पाप नही करता नही तो जन्म से कोई पापी नही होता कोई अपराधी नही होता। भगवान ने भी बिना किसी भुमिका के सिधा ही जबाब दिया है रजोगुण से उत्पन यह काम ही पाप कराता है। पहले ही कहा है ना कि प्रकृति के गुणों द्वारा परवश होकर कर्म करने के लिए बाध्य किये जाते हैं। बताया है कि इस सबका कारण है रजोगुण, जब व्यक्ति रजोगुण के भावों में बहता है तो उसे हर कोई स्वंय से बेहतर दिखाई देता है और जिधर भी देखता है कि फलां आदमी की इतनी कमाई उसने इतना धन कमा लिया और ऐसी सारी सुख सुविधायें और पैसा मैं कैसे प्राप्त कर सकता हुं। अपनी क्षमता से अधिक कमा तो सकता नही बस किसी अनुचित तरिके से ही हासिल करने की योजनाएं बनाता है। आगे भगवान कहते है कि यह काम बहुत खाने वाला है भोगो से कभी ना अघाने वाला। अगर यह काम किसी एक वस्तु की प्राप्ति के पश्चात ही ठहर जाये इसका यह सिलसिला रूक जाये तो भी अच्छा है लेकिन यह कभी खत्म नही होता भोगों से कभी तृप्त नही होता। रोज इसको नया चाहिए। आज एक लङकी तो कल नई लङकी, पुराने से ऊब जाता है। भोगों को भोगते हुए कभी संतुष्ट ही नही होता। एक के बाद एक पाप का आचरण करता ही रहता है। भगवान ने कहा है कि यही सबसे बङा दुष्मन है।
ऐसा नही व्यक्ति में ज्ञान नही है सभी में ज्ञान है विवेक है। लेकिन जैसे धुंए से अग्नि छिपी रहती है जेर से गर्भ ढका रहता है यहां पर जेर और धुंएं की बात कहकर इसारा किया है कि हमारे ज्ञान के ऊपर कोई इतना कठोर पर्दा नही है जिसे तोङा ना जा सके जेर कितनी महीन होती है लेकिन गर्भ को छिपाकर रखती है। धुंए का क्या अस्तित्व है लेकिन आग दिखाई नही पङती। जिस प्रकार कमरे में चाहे कितना भी गहरा काला अंधकार हो एक छोटी सी लौ जलाते ही अंधकार छु मंत्र हो जाता है। आगे जो काम की तुलना की है वह अग्नि के समान बताया है। एक बार आग जल जाये फिर उसमें चाहे कितना कुछ भी डाल दो सब स्वाहा हो जाता है और इसकी पुर्ति कभी नही होती उसी काम ने ज्ञान को ढक रखा है। इससे आगे ये भी बता दिया कि यह काम रहता कहां हैं। तो कहा है कि इंद्रियां मन और बुद्धि इसके वास स्थान हैं इनके साहरे से ही यह काम बाहर आता है। इसकी इतनी सामर्थ्य नही है कि अकेला आकर कुछ करके दिखा सके। यह तो मन और इंद्रियों के साहरे से ही अपना काम करता है। इनके बगैर काम का कोई महत्व नही है। डरने की कोई बात नही है ये ठीक है कि दुष्मन बहुत शक्तिशाली है लेकिन भगवान ने इसका भी इलाज बताया है कि किस प्रकार हम इस पर विजय पा सकते हैं। कहा है कि इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले पापी काम को बल पुर्वक मार डालों। गीता में शरीर को पांच भागों में विभाजीत किया है इसिलिए की आसानी से समझा जा सके। शरीर इंद्रियां मन बुद्धि और आत्मा। जो आज विभाजन कर रहे है कि ये दाढी वाले ये तिलक वाले ये गोरे ये काले। कहते हैं कि इंद्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि और बुद्धि से भी बलवान शक्तिशाली है आत्मा और हव प्रमात्मा का अंश कहा गया है। अगर हमें यह काम नाम के शत्रु खात्मा करना है इसको पराजित करना है तो आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानकर बुद्धि के द्वारा मन को काबु में करके इसको हरा सकते हैं। लेकिन व्यवहार में देखा जाता है कि मन जो कहता है या चाहता है और बार बार उसी का राग गाता रहता है उसी का चिंतन करता रहता है, तो बुद्धि भी मोहित हो जाती है। जब मन और बुद्धि एक साथ मिल जाते हैं तो बेचारी आत्मा की कहां सुनते हैं। जैसे एक कोई व्यक्ति किसी पद पर बङी इमानदारी और लग्न से कार्य करता है।
काम करते करते एक दजिन अचानक उसके दिमाग में एक बात आयी की फलां आदमी कार से आता है। आंख ने देखा और मन बस अब हर पल ये ही चिंतन करता रहता कि मेरे पास भी कार होनी चाहिए। और जब थोङा सा होस आता है तो बुद्धि कहती है कि तु जैसा भी है अच्छा है लेकिन यह बेईमान मन नही मानता। और गलत अनुचित तरिके से धन कमाने लगता है। पहली बार जब कोई गलत तरिके से पाप से धनादि का संग्रह करता है भयभीत रहता है बैचेन भी रहता है। ये आत्मा की तरफ से संकेत है कि जो तु कर रहा है जहां तु जा रहा है वो रास्ता ठीक नही है भयभीत बैचेन करके आत्मा सावधान करती है। लेकिन मन नही मानता और एक के बाद एक पाप अपराध करता रहता है। यह एक ऐसी दलदल है जिससे बिना विवेक के निकलना असम्भव है। भगवान कहते हैं कि आत्मा को श्रेष्ठ मानकर बुद्धि से मन को वश में करके जब कोई कार्य होता है तो यह दुष्मन काम सिर्फ देखता ही रहता है हमारा कोई अनिष्ट नही कर सकता है। यही कारण है कि इस पर ही जोर देकर कहा है कि इसे बल पुर्वक मार डालो।
तृतीय अध्याय इति पुर्णं

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

गीता दुसरा अध्याय

ज्ञान की प्रप्ति
दुसरा अध्याय का नाम दिया गया है सांख्य योग यानि की ज्ञान की प्राप्ति। विषाद योग के बाद सांख्य योग। दुख के बाद ही ज्ञान प्राप्त होता है। आंसूओं से भरा चेहरा, व्याकुल नेत्र, शोकयुक्त बताया गया है अर्जुन को। उसके प्रति भगवान कहते हैं। यहां पर यह भी कह सकते थे। कि अर्जुन को भगवान ने कहा लेकिन इन सब बातों को दर्शाने का अर्थ है कि आगे जो भगवान कहने जा रहे हैं, वो थप्पङ हमारे गाल पर भी पङेगा। क्योंकि हम सब तो रोज आये दिन रोते रहते हैं, व्याकुल और बैचेन होते रहते हैं, और लोभ मोह तथा भय के कारण अपने कई जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं। ये नही समझते की ऐसा सब करने से कल्याण नही हो सकता। अर्जुन क्या सोच रहा था कि इस प्रकार रोकर और बैचेन होकर अपने पद की गरीमा बचा सकता है। हम अपने पद जो भी हमें मिला हुआ है अगर उसकी गरीमा को बचाना है तो सत्यभाव में कर्म करना पङेगा, नही तो हानि ही होगी इस बात का वर्णन भगवान ने यहां सही किया है।
जब अर्जुन बिलकुल स्पस्ट कहकर चुप हो गया कि मैं युद्ध नही करूंगा। तो भगवान ने उसे बङे कटु वचन कहे, जैसे हमारा किसी का बच्चा सही काम नही करता तो हम उसे कटु वचन कहते हैं कि अगर तु नही पढेगा तो धक्के खाता घुमेगा, कहीं भीख मांगेगा। भगवान भी ऐसा ही कहते हैं कि तुझे इस असमय में यह मोह कैसे हुआ। इससे ना तो तुझे यस ही मिलेगा और ना राज्य और स्वर्ग ही। और इससे आगे बङे ही सख्त लहजे में कहते हैं कि तु नपुंसकता को मत प्रप्त हो जो तेरे अंदर डर बैठा हुआ है जिससे तु भयभीत हो रहा है उसे निकाल बहार फैंक। और युद्ध कर। एक यौद्धा को डरपोक हिजङा कहना कितने लानत की बात है। लेकिन अर्जुन के उपर तो जुं तक नही रेंगती। यह सब सुनकर कहां गया आज उसका क्षत्रापण कहां गयी उसकी वीरता क्या हो गया गांडीव धनुष को जो बङे बङे यौद्धाओं के छक्के छुङा दिया करता था। क्यों आज इतना स्वार्थी हो गया कि इतना सुनने के बाद भी कह रह रहा है कि किस तरह मैं भीष्म और गुरू द्रोण के विरूद्ध लङुंगा दोनो ही अति पुजनीय हैं। कौरवो की सेना में वो दोनो ही सबसे बङे पराक्रमी योद्धा थे। और उन दोनो से युद्ध ना करने के लिए अर्जुन आज उन्हे पुजनीय बता रहा है। जब अज्ञातवास में थे और राजा विराट के यहां रहे तो अर्जुन को हस्तिनापुर की सेना के साथ युद्ध करना पङा था । और उस जंग में अकेले ने ही सबको हराया। और तो और उत्तरा कुंवर ने भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि सबके कपङे भी उतार लिए तब वो लोग पुजनीय नही लगे थे। आज कितना भयभीत और मोहग्रस्त है कि भगवान के समक्ष समर्पण कर देता है कि हे प्रभु में आपका शिष्य हुं आपकी शरण हुं मुझे वह ज्ञान दिजिये जिससे मेरा यह मोह भय सब दुर हो सके और में अपना कर्तव्य पुरा कर सकुं। यहां पर अर्जुन ने यह भी साफ कर दिया है की हम जिस राज्य के लिए यहां युद्ध करने के उद्देश्य से इकठ्ठा हुए हैं यह तो उसके सामने कुछ भी नही है। इससे आगे कितनी बङी बात कहता है कि अगर मुझे सारी धरती का राज्य भी मिल जाये और अगर मैं देवताओं का भी राजा बन जाऊं तो भी जो आज मेरे अंदर जो शोक है, दुख है और भय है यह सब भी उसको दुर नही कर सकते। अर्जुन इतना परेशान है दुखी है भयभीत हो रहा है और इतना बैचेन है कि पागलों जैसी हालात हो गयी क्योंकि मरने की बात कर रहा है, और ऐसे हालात में भगवान उसको देखकर हंस रहे हैं जैसे बच्चे ने कोई शरारत कर दी हो। और बङा आदमी हंस रहा हो। भगवान हंसते हुए कहते हैं कि तु न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है। जिनको आज अर्जुन इतना पुजनीय मान रहा था उसके एक झटके में ही तरोङ मरोङ कर रख दिया भगवान ने। वही क्या हम सब भी तो उन सभी मनुष्यों के लिए शोक करते रहते हैं जिसके लिए हमें करना ही नही चाहिए। और सारी जिंदगी भयभीत रहकर डर डरकर काम करते हैं। और अपनी ही बुद्धि से सोचते रहते हैं की यह गलत है। यह भगवान का वचन आज के हर आदमी की समस्या का समाधान इतनी सहजता और सरलता से बता दिया कि ना करने योग्य शोक हम करते रहते हैं और जो कार्य करने की हमारी जिम्मेदारी है चाहे वह एक पिता की हो पति की या फिर अधिकारी या हो सैनिक इससे पलायन करने के रास्ते खोजते रहते हैं। यही कारण है कि शोक और भय से ग्रसीत रहते हैं। भगवान यहां पर अर्जुन को बहुत सा ज्ञान देते हैं और वह बच्चे की भांति सुनता रहता है। और सुनता भी क्यों नही वह जानता है कि मेरे समस्या का समाधान बस कृष्ण के पास ही है। इतनी ज्ञान की बातें अर्जुन को भगवान बताते हैं कि जितने भी इस सृष्टि में जो भी चर अचर हैं सबका एक दिन नाश हो जाना है। प्रमात्मा अविनाशी है। इतना स्पस्ट समझाते हैं कि तु यह मत सोच कि तु मैं या ये राजा लोग अभी हैं आगे नही होगें अब भी हैं आगे भी रहेंगे बस ये नाशवान शरीर नही रहेगा। लेकिन ये सब बातें अर्जुन की तो क्या हमारी भी किसी की समझ में नही आती। एक दुसरे ओर सरल तरिके से भी समझाने का प्रयत्न करते हैं। कि अपने धर्म पर चलना चाहिए चाहे कितना भी कष्ट हो कितना भी कठिन कर्म क्यों नही हो डरना नही चाहिए। और एक क्षत्रिय के लिए एक सैनिक के लिए युद्ध से बढकर कोई कर्तव्य नही होता। अगर एक शिक्षक बच्चों को तो पढाये नही और राजनिती करने लगे कितनी भयावह परिस्थती होगी। भगवान भी यही समझाते हैं कि तु एक सैनिक है ओर पंडितो का काम करेगा जो ज्ञान ध्यान की बात करेगा तो युद्ध कोन करेगा। अपने धर्म पर ही चलकर सब लोग कल्याण को प्रप्त हो सकते हैं। और अगर अपने कर्म से भागेगा तो लोग जो अब तक तुझे चाहते हैं तेरी इज्जत करते हैं वो तेरी निंदा करेंगे और जीवन में कोई नही चाहता की कभी निंदा या कोई गलत ना कहने योग्य बात कभी कहे। अगर कभी कोई निंदा या अपमान करता है तो एक अच्छे सम्मानीय व्यक्ति के लिए तो मरण से भी ज्यादा हो जाता है। ये सब ज्ञान की बातें भगवान कहते रहते हैं लेकिन अर्जुन कुछ जबाब नही देता उसकी खामोशी साफ बता रही थी की वह संतुष्ट नही है। कोई भी बात का जबाब नही दे रहा था बस चुप्पी साधे रहा। तो कृष्ण ने सोचा की इसके ऊपर तो कोई असर ही नही हो रहा है। आगे भगवान कहते हैं कि अब में तुझे वह बात बता रहा हुं जिससे तु कर्म करता हुआ भी सभी कर्म बंधनों से मुक्त रहेगा। यह जो मन है ना बङा ही चतुर है अपने ही अनुसार चलने के हजारों तरिके खोज निकालता है। लेकिन कृष्ण तो महायोगेश्वर हैं। वो तो ये बात भलीभांति जानते थे कि अगर आज अर्जुन अपने कर्म से पलायन करने में कामयाब हो गया तो आगे इसी प्रकार अपनी जिम्मेदारी अपने दायित्व से मुंह मोङने लगेंगे, और बङी हानि हो जायेगी दुनिया की। भगवान ने बहुत छोटे स्तर पर आकर अर्जुन के सामने दुसरा विकल्प रखा कि अर्थात एक तरह का प्रलोभन सा दिया कि देख अगर ये वो रास्ता है जिससे तु अपने कर्म यानि की युद्ध भी करेगा और जो कर्मफल होते हैं अच्छे बुरे उनसे मुक्त होकर प्रमात्मा की प्राप्ति कर लोगे लेकिन करना पङेगा। और जो भी इस प्रकार कर्म करेगा उसमें कोई दोष भी नही लगेगा। इस कर्मयोग धर्म का थोङा सा साधन भी जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। उसे यहां पर थोङा भयभीत सा भी कर दिया कि इस जीवन में दो दुख सबसे बङे होते हैं जन्म और मृत्यु अब तो उनका भय भी कुछ नही बिगाङ सकता। व्याक्ति सबसे ज्यादा अपनी मृत्यु से ही डरता है। जैसे अगर हमें ही कोई कह दे कि तुझे मरने के कष्ट से मुक्ति दिलाऊंगा तो हम उसके बदले में कुछ भी कर गुजरेंगे। भगवान कहते हैं कि कर्मयोग में बुद्धि एक ही होती है लेकिन जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है अज्ञानी हैं अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है। बुद्धिहीन तो अधर्म को धर्म मानकर अपने को संतुष्ट कर लेते हैं। अर्जुन को बता दिया की जो अविवेकी हैं जिसमें ज्ञान नही है मंद बुद्धि हैं उसमें तो स्थिर यानि कि निश्चायत्मिका बुद्धि नही होती और अर्जुन तो क्या हममें से कोई भी स्वंय को पागल और मंद बुद्धि कभी नही समझते हैं। भगवान ने सोचा था कि इतनी साफ बात सुनकर तो अर्जुन के अंदर तो कुछ कर्म के प्रति श्रद्धा जग जायेगी लेकिन परिणाम जस का तस। जब द्रोपदी का स्वयंवर हो रहा था और जो शर्त थी मछली की जो भी आंख बेध देगा उसी के साथ द्रोपदी की शादी कर दी जायेगी। जब बङे बङे शक्तिशाली राजा महाराजा आये और मछली तो क्या बेधेंगे धनुष को तक नही उठा पाये। तो बङा दुखी होकर द्रुपद ने कहा था की क्या कोई ऐसा नही है जो इस धनुष को उठा सके जो मैंने शर्त रखी क्या कोई भी पुरी नही कर सकता मेरी बेटी कि वरमाला के लायक कोई नही है। जब कङुवी कङुवी बात कही तो अर्जुन जो पंडित के वेश में बैठा था खुन खोल गया और शंकर भगवान के धनुष को उठाया भी और मछली की आंख भी बेधी थी। लेकिन आज इतनी कटु बातें सुनकर भी उसके रक्त में कोई उबाल नही आया कितना ठंडा पङ गया भय और मोह में। नपुंसक भी कह दिया और अप्रत्यक्ष रुप ये यह भी कह दिया की जो पागल हैं जो मंदबुद्धि हैं वो कोई भी पक्का निर्णय नही कर पाते। ये सब बातें सुनकर भी खामोश रहा अर्जुन। यह भी कहते हैं कि जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त हैं उन पुरूषों की प्रमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नही होती। कितना सुंदर कितने सरल तरिके से बता दिया कि जो आदमी अपना किसी भी कर्म का निर्णय नही ले पाते इसका मतलब ये हुआ कि कहीं ना कहीं भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हैं। गीता पाठ प्रतिदिन लाखो लोग करते होंगे लेकिन सिर्फ उसके पुजा तक ही सिमित रखा हुआ है। कृष्ण के उपदेश को बस ये ही समझकर पढते हैं कि अर्जुन को बता या था उसी के लिए था। और समस्या हम सब की है कितनी बार ऐसा होता है कि हम कोई निर्णय नही ले पाते। लोभ और भय में इस तरह से लिपटे रहते हैं कि अपनी जिम्मेदारी से पलायन करने के तरिके खोजते रहते हैं। आगे भगवान कहते हैं कि तु आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्म कर। जब भगवान ने देखा की अर्जुन के अंदर तो आज अपनों के प्रति आसक्ति और मोह बढता ही जा रहा है। जिसके कारण वह अपने दायित्व से भाग रहा है। अपने कर्म से डर रहा है। तो फिर अपना कथन जारी रखते हुए कहते हैं कि सकाम कर्म तो बहुत ही निम्न श्रेणी का है और ये तक कह दिया कि फलहेतव: कृपणा: यानि की फल के लिए काम करने वाले अत्यंत दीन होते है गरीब होते हैं। मांगने वाले के पास चाहे कितना भी धन दौलत हो लेकिन जब किसी से कोई मांग की तो दीन हो जाता है भीखारी हो जाता है।
अगर व्यक्ति अपने कर्म को सही यथार्थ रूप से जिससे की किसी का अनिष्ट ना हो यानि की समता से करेगा तो इसी जन्म में पाप पुन्य को त्याग देता है। सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है। कहने का आशय ये है कि जो हम सब जीनव में अपने अपने कर्म करते हैं जो अन्याय पुर्वक धनादि का संग्रह करते हैं या जो भी हम अनुचित तरिके से आगे बढते हैं। अगर हम समत्व योग में स्थित होकर वही कर्म करें तो कोई बंधन नही होगा। अर्जुन को यहां युद्ध करना था और वह अपनो को देखकर मोहीत हो गया अपने अंदर की समता को नष्ट कर दिया। और भगवान ने तो समता को ही सबसे बङा योग बताया है और उसी से विमुख हो गया अर्जुन। कि ये ही एक रास्ता है जिससे चाहे तु यहां लाखों आदमीयों को मार भी डाले तो लेकिन तेरे ऊपर कोई हत्या का पाप नही लगेगा। कोई दोष नही लगेगा। कई लोग इस उपदेश को गलत समझ जाते हैं। जैसे अगर किसी के हाथ से कोई अपराध हो जाता है तो बस गीता को माध्यम बनाकर कहते हैं लोगो को गुमराह करते हैं कि ये तो स्वंय भगवान ने ही कहा है जो भी होता है वो सब मुझसे ही होता है तु तो सिर्फ निमित्त मात्र है। तो इसमें हमारा क्या दोष है। लेकिन जरा एकाग्र होकर सुनो की भगवान ने ये कहा है कि जिसका जो भी कर्म है जैसे कोई डाक्टर हो या इंजिनयर या वकिल हो कोई किसी की हत्या कर देता है चाहे वह कितना गलत या कितना भी बङा अपराधी क्यों ना हो उस पर हत्या का आरोप लगेगा और पाप भी लगेगा, सजा मिलेगी ही। क्योंकि वह उसका कार्य नही है। जो नियम है जो व्यवस्था है तो पुलिस या फिर सैनिक या न्यायधीष ही किसी अपराधी को सजा सुनाने दंड देने के अधिकारी है। यहां सबसे महत्वपुर्ण यह है कि कोई विकार के शिकार होकर ना किसी को मारे अपना फर्ज समझकर एक सैनिक किसी अपराधी को पकङकर सजा देता है तो ही कर्मयोग है। अगर कोई सैनिक किसी का आप्रेसन करने लगे तो कितना भयानक परिणाम होगा। और इससे आगे तो भगवान ने बिलकुल स्पस्ट ही कह दिया की, जब तेरी बुद्धि इस मोह रूप दल दल को भली भांति पार कर जायेगी तो सभी भोगो से वैराग्य प्राप्त हो जायेगा। इन भोगो के कारण ही तो लोभ, मोह, क्रोध, और भय के शिकंजे में फंसे रहते हैं। और अगर इन भोगो से ही वैराग्य प्राप्त हो जाये तो कोई व्यवस्था कभी बिगङेगी ही नही। चाहे वह राजनिती हो शिक्षा नीति सब अपनी अपनी जगह ठीक होंगी। जो इन भोगों के प्रति राग हो रहा है इनकी जितनी आसक्ति बढ रही है तो व्यक्ति अपनी इच्छा पुर्ण करने के लिए किसी काम के करने से चाहे कितना भी अनुचित हो नही चुकता है। भगवान की इतनी सारी ज्ञान की और कर्म की बातें सुनने के बाद भी उसकी समस्या कम नही हुई जस की तस बनी रही। मानो कहीं ना कहीं कोई भारी असमंजस की स्थिती बनी हुई है कोई ठोस निर्णय नही ले पा रहा है अर्जुन। भगवान से पुछता है प्रभु जिसे आप कई बार कह चुके हैं कर्म योग में स्थित रहुं स्थिर बुद्धि रहुं तो लेकिन प्रभु स्थिर बुद्धि के पूरूष के क्या लक्षण हैं। वह कैसे चलता है कैसे बोलता और कैसे बैठता है। इस सवाल के पुछने के तरिके से क्या आपको लग रहा है कि पुछने वाला इतना बङा शूरवीर और इंद्र देवता के आशिष से कुंती जैसी श्रेष्ठ नारी के गर्भ से पैदा हुआ हो बिलकुल आम आदमी की तरह स्थिर बुद्धि की पहचान शारीरिक रूप से कर रहा है। कितनी अबोधता से कह रहा है कि स्थिर बुद्धि कैसे चलता है। इस तरिके से सवाल करने से ये तो साफ हो गया कि वह भगवान की बात पुरी तन्मयता से सुन रहा था। और जब इतना सब कुछ उसे बता दिया कि तेरी बुद्धि इस मोह रूप दलदल को पार कर जायेगी तो स्थिर बुद्धि ही समझो यहां ये सवाल पुछकर हो सकता है कि ये देखना चाह रहे हो अर्जुन की मेरे अंदर भी कोई स्थिर बुद्धि के लक्षण हैं या नही।
भगवान बिना रूके कहते हैं जिस पल यह मनुष्य मन में स्थित सम्पुर्ण कामनाओं को त्याग देता है तो स्थिर प्रज्ञ ही समझो। कितना सटीक हमला है ये हम सबकी अंर्तात्मा को झकझोर कर रख दिया। अर्जुन तो क्या हम सब भी उन्ही कामनओ की फांसियों में फंसे पङे हैं। तो अर्जुन अपनी कामनाओं के शिकंजे में है उनसे मुक्त ही नही हो पा रहा। वह कह तो रहा है कि राज्य की इच्छा नही है राज्य से कोई लोभ नही है। लेकिन दुसरी कामनाओं की झङी लगा रखी है। कि जो मेरे सामने हैं ये सब दादा परदादा मामा साले भाई बंधु खङे हैं उनके बिना क्या करूंगा में राज्य का कहने का मतलब ये है कि अर्जुन चाहता था कि ये सब लोग भी ना मारने पङे और राज्य भी मिल जाये। तो कामनाओं का पहाङ तो उसके अंदर ज्यों का त्यों खङा है। एक छोटी सी कहानी मेरे याद आ रही है एक आदमी अपनी बहुत सारी जमीन जायदाद धन दौलत छोङकर साधु बन गया और सन्यासियों का जीवन जीने लगा। अब वह सिर्फ एक लकङी से बना टाट जैसा कुछ पेट पर लपेटता था। एक दिन उसके किसी शिष्य ने उसके पास भोजन के लिए आमंत्रण भेजा। तो उसे रेल से सफर करना था। जहां जिस स्टेशन पर उसे उतरना था वहां करीब 6 बजे रेल पहुंचेगी। लेकिन बाबा तो तीन बजे ही उठ गये नींद नही आ रही थी। किसी से पुछा कि फलां स्टेशन कितनी दुर है उसने कहा बाबा आप आराम से सो जाओ अभी बहुत समय बाद आयेगा और हमें भी सोने दो। तो बेचारा बाबा चुप बैठ गया अपनी सीट पर। तकरीबन एक घंटे बाद फिर पुछा कि कितनी दुर है देखा इतना सब त्यागने के बाद भी कितनी बैचेनी और व्याकुलता हो रही है बाबा को। अब तो उनसे बिलकुल भी सोया नही गया। और उठकर हाथमुंह धोये अपनी दाढी पर तेल लगाकर चमकाया। अब वह लकङी का टाट अपने पेट पर बांधने लगा और बार बार रेल के डिब्बे में लगे आईने में देख रहा है कि कैसा लग रहा है। यह ठीक नही है तो दुसरा पहनुंगा, दाङी में कंघी की। अरे भाई कामना तो कामना है घर त्याग दिया तो टाट की कामना बनी है छुटी तो नही ना। जब तक कामनाएं है तब तक स्थिर बुद्धि कहां है। अर्जुन बात कर रहा है कि मुझे राज्य नही चहिए। मुझे किसी भी चीज से लोभ नही है बस कूल का नाश नही करना। लेकिन दुसरी तरफ सबको अधर्म पर चलते देखकर भी अपना कर्तव्य भुल रहा है। भगवान ने सिधी चोट उसकी कामनाओं पर ही की। आगे कहा की जो आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट हो वह स्थिर बुद्धि है. कहने का अर्थ यह हुआ कि अर्जुन तु स्थिर बुद्धि नही है, क्योंकि शरीरों को देखकर मोहित हो रहा है कि ये तो मेरे दादा हैं ये मेरे गुरू हैं। ये ज्ञान नही रहा कि जो तेरे अंदर आत्मा है इनके अंदर वो ही प्रकाश है। जैसे एक ही बिजली बल्ब, फ्रिज, हिटर फैक्टरी सबको प्रकाशित कर रही है उसी आत्मा से आत्मा में संतुष्ट हैं।
भगवान तो मानो एक के बाद एक उसकी हर कमजोर कङी पर हमला कर रहे हैं दुखों की प्रप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नही होता सुखों की प्रप्ति में सर्वथा निस्पृह है। जिसके राग भय क्रोध नष्ट हो गये ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि हैं। दुखो के मिल जाने पर जो उदास ना हो दुखी ना हो। हम तो रोने लगते हैं। और खुशियों में उझलने लगते हैं। तो कहां हम कर्म बंधनो से मुक्त हो सकते हैं। हम तो रोज नये बंधनो में फंसे रहेंगे।
भगवान स्थिर पूरूष के सारे लक्षण जब बताते हैं तो एक बात का ओर खुलासा कर देते हैं उसे स्पस्ट कर देते हैं। अगर कोई व्यक्ति हठ पुर्वक विषयों का सेवन नही करता तो उसके विषय तो निवर्त हो जाते । लेकिन उनकी आसक्ति बनी रहती हैं। जो स्थित प्रज्ञ है उसकी तो प्रमात्मा का दर्शन करके आत्मा से आत्मा में रमण करके आसक्ति भी निवर्त हो जाती है। जो मनुष्य बार बार गलत कार्यों की तरफ भागता है उनकी तरफ मोहित होता है। इनका सबसे बङा कारण ये ही कहा है कि जब तक आसक्ति का नाश नही होता प्रमंथन स्वभाव वाली इंद्रियां मन को बलात खिंच लेती है। यहां पर इंद्रियों को प्रमंथन स्वभाव वाली कहा है अर्थात ये सदा हर क्षण दुसरे का ही मंथन करती रहती हैं। बाहर ही इनका दरवाजा खुलता है। कभी स्वमंथन की कोशिश करती ही नही है। जब तक आदमी की बुद्धि स्थिर नही होती तो अपना मन स्वभाव के अनुसार कुछ ना कुछ चिंतन करता ही है। इसको तो कोई ना कोई काम चाहिए ही जैसे रेल को चलने के पटरी की आवस्यकता होती है तो मन को भी हर पल काम चाहिए और स्थिर बुद्धि के अभाव में ही गलत विषयों का अपने अनुसार ही चिंतन करता है। जो इसे अच्छा लगता है जो इसे भाता है। इसके आगे जो भगवान जो कहने जा रहे हैं वह सिर्फ अर्जुन या भारत के लिए 5100 वर्ष पहले कहा एक मामुली उपदेश नही था। वह विस्व में बढती हा हा कार, अपराध, हिंसा, व्याभीचार, अलगाव अशांति की जो मुख्य कारण है वो ही बता दिया की क्यों आदमी बलात्कार हत्या, डकैती और बम धमाके करता है। जरा ध्यान से पढे एक एक बात पर पुरा ध्यान रखे बिलकुल अर्जुन की भांति ही नही तो पता नही क्या हमारे काम का हाथों से निकल जाये। जो लोग विषयों में रमण करते हैं हर पल विषय भोगो में तत्पर रहते हैं विषयों का चिंतन करने से उनमें आसक्ति होती है। विषय धन का, वासना का, लोभ का, भय का कुछ भी हो सकता है। और किसी के भी अंदर हो सकता है। ऐसा नही है की अशिक्षित या गरीब पर होगा यह तो चाहे अनपढ हो या शिक्षित गरीब हो या अमीर, भारत का हो अमेरीका का, जो भी विषय भोगो का चिंतन करेगा तो उसके अंदर आसक्ति बढेगी ही अर्थात उस विषय को हासिल करने की लालसा बढेगी कामना पैदा होगी। और कामना पुर्ण होना हमारे किसी के हाथ में नही है कि जिस विषय की कामना हमारें अंदर जगी और पुर्ण हो गयी। ज्यादातर कामनाएं हमारी यानि की मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर ही होती हैं। और जब कामना पुर्ण नही होती उसमें किसी प्रकार का विघ्न पङता है उसके मार्ग में कोई रूकावट आती है और यह बेबश मजबुर मानव उस रूकावट को दुर करने में नाकाम होता है तो क्रोध आता है। हर समय चिङचिङा रहता है किसी से बात करने का मन नही करता बैचेन रहता है किसी से भी बात करेगा तो पता नही क्या कह दे क्या कर दे उसे स्वंय को भी ज्ञान नही होता की कि तु क्या कर रहा है। इस क्रोध के कारण अत्यंत मुढभाव यानि की आम भाषा में मूढ खराब रहता है। किसी अनजाने तनाव में रहता है। पता नही मन पर ऐसा कोनसा भार रहता है कि ऐसे भाव में भगवान कहते हैं कि उसे कुछ ज्ञान ही नही रहता की तु क्या कर रहा है। क्या बोल रहा है। कहते हैं ना कि पागल सा हो जाता है। यानि की बुद्धि खराब हो जाती है। और ऐसे व्यक्ति को सभी जानते हैं की कोई कुछ नही कहता। जब किसी घर में भी कोई सदस्य ऐसा हो जाता है तो कहते हैं कि ये पागल हो गया उससे कोई बात तक नही करता। क्योंकि उसकी बुद्धि खराब हो जाती है। वह अपनी वास्तविक स्थिती से गिर जाता है। और अंत में क्या होता है कि वह विषयी मनुष्य कोई भी अपराध कर देता है। वह कुछ परिणाम नही देखता कि इसके बाद क्या होगा। छोटे छोटे सुख और भोगों की खातिर अपना जीवन ही बरबाद कर देता है। लेकिन जिसने अपने मन इंद्रियां और अंतकरण को अपने अधीन कर रखा है यानि कि जैसा बुद्धि कहती है वैसे ही मन चलता है जो इंद्रियां अनुभव करती हैं उस सबका ज्ञान हो कि ये अच्छा है तो विषय को भोगते हुए भी अंतकरण प्रशन्न रहता है। कितनी बङी बात कही है कि जिस शांति के लिए सारा जीवन इधर उधर भागते रहते हैं कभी इसे मां बाप की गोद में खोजते हैं तो कभी बीबी के प्यार में तो कभी धन दौलत और सोहरत में खोजते हैं। और कभी प्राप्त ही नही हो पाती। पल दो पल की शांति को प्रमानंद समझ लेते हैं। अंतकरण की प्रशन्नता के बाद सब दुखों का अभाव हो जाता है। और जब दुख ही नही होंगे तो शांति मिलेगी ही। यहां पर ये बात भी चिंतन करने की है कि भगवान ने ये नही कहा की दुख समाप्त हो जाते हैं। कहा कि दुखों का अभाव हो जाता है। अर्थात दुख तो हर मनुष्य के जीवन में आते जाते हैं ही लेकिन अगर हमारा अंतकरण हमारा चित्त प्रशन्न रहता है तो उनको दुखों का ताप सताता नही है। क्योंकि सम्पुर्ण प्राणीयों के लिए जो रात्री के समान है उसमें स्थित प्रज्ञ योगी जागता है इसका अर्थ यह नही है कि योगी रात को सोते नही। अरे भाई रात्री मतलब अंधकार, अज्ञान यानि की अगर किसी भी प्राणी के सामने वह पशु पक्षी या मनुष्य कोई भी हो उसके मन के अनुसार कोई काम नही होता तो दुखों में रोता है बिलबिलाता है। और सुखो की प्रप्ति में हंसता है कुदता और नाचता है। सब सुखों में संसारी जागता है तो योगी सोता है। लेकिन जो योगी है उस पर जब भी कोई दुख या कोई कष्ट आता है तो बङा सावधान रहता है जागता है और सुख में संसारी जागते हैं तो योगी सोता है यानि की उसे भी सावधानी से भोगता है। जो पूरूष सम्पुर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित अहंकार रहित और स्पृहा रहित रहता है वही शांति को प्रप्त है। यहां यह बात भी साफ कर दी कि शांति कहीं बाहर नही है जो कोई हमें दे देगा कोई प्रदान कर देगा। ऐसा सम्भव नही है। जो अशांति की जङ हैं वो हमारे अंदर ही हैं। हमारे अंदर पैर फैला चुकि ममता अंहकार और कामनाएं हैं। और ऐसा योगी अंतकाल में भी ब्रह्मानंद यानि की सात्विक आनंद को प्रप्त होता है। ये बात इसलिए लिख रहा हुं कि आनंद तो हम विषयों को भोगते हुए भी अनुभव करते हैं। यहां उस आन्नद की बात हो रही है जो सास्वत है ध्रुव है जिसे प्राप्त होकर सारे दुखों का अभाव हो जाता है। चाहे कुछ भी कर्म करो तो आन्नद ही मिलता है कोई तनाव नही हो सकता। क्योंकि हम लोग सारा दिन सुबह से रात तक कोई ना कोई कर्म करते ही रहते हैं और कोल्हु के बैल की तरह पिलकर भी अशांति और पीङा का ही अनुभव करते हैं। तब भी भयभीत रहते हैं। लगता है जैसे कोई गलती हो गयी है कोई भुल हो गयी हो लेकिन स्थिर बुद्धि पुरूष जो भी कर्म करता है उसमें सुख शांति ही का ही अनुभव करता है।
बोलो कृष्ण भगवान की जय गीता माता की जय

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

प्रेम बङा दुर्लभ है----



दिखता तो ऐसा नही है हमें तो हर तरफ प्रेम ही प्रेम ही दिखता हम तो दिन में कई बार सुनते होंगे की जैसे कोई कहता है कि मैं तो फलां आदमी से बङा प्रेम करता हुं। और वह भी मुझसे बहुत प्रेम करता है। जब चारो तरफ प्रेम ही प्रेम है तो आप सोच रहे होंगे की शिवा पागल हो गया है क्या जो कह रहा है कि प्रेम बङा दुर्लभ है। ऐसा हो सकता है कि शिवा के जीवन में ही प्रेम ना हो सिर्फ और सिर्फ जीवन नीरस हो।
चाहे कोई जैसा भी समझे लेकिन मैं जीवन के तथ्यों को गहराई से जांचकर परखकर उनका विशलेषण करके ही कुछ लिखने का साहस करता हुं।
सच्चाई बङी कङुवी होती है कई बार सच को निंगल पाना नामुनकिन हो जाता है। और हम ऐसी असमंजस की हालात में फंस जाते हैं की अगर स्वीकार करें तो मरे ना करें तो मरे। हमारे यहां एक कहावत है पागल गिदङ के किसी ने कान पकङ लिए अब छोङे तो खाने का डर और नही तो कब तक पकङे रखेगा। तो यह सच्चाई है कि प्रेम बङा दुर्लभ है अर्थात प्रेम होना बङा कठिन है।
यहां संसार में तो कोई मानने को ही तैयार नही होता क्योंकि आप हो या मैं हममे से कोई भी नही चाहता की हमारी किसी भी बात की पोल सबके सामने खुल जाये सबके सामने उजागर हो जाये।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में एक जगह कहा है कि हजारों में कोई एक मुझे खोजने के लिए चलता है यानि की हजारों में से किसी एक के अंदर प्रेम का बीज अंकुरित हुआ। और उनमें से भी कोई एक है बिरला जो मुझे तत्व से जानता है। कितना स्पस्ट कहा है लेकिन हमारी तो समझ में ही नही आता। अरे बाबा जब किसी के अंदर प्रेंम उपजेगा तो ही तो प्रमात्मा की तरफ चलेगा अर्थात मानवता, अहिंसा, सदभावना, सहयोग, मैत्री और करूणा ह्रदय में प्रवेश करेगी।
सर्वप्रथम यह समझना चाहिए की प्रेम है क्या कैसे होता। कई बार हम किसी और चीज को ही प्रेम समझते रहते हैं। और भागते रहते हैं जीवन भर उसी के पीछे पागलों की तरह, और पता भी नही रहता की क्या कर रहे हैं और जाना कहां है। और अंदर ही अंदर खुश होते रहते हैं कि प्रेम प्रमात्मा का गुण है जो हमारे भीतर सबसे ज्यादा है।
एक छोटा सा उदाहरण है एक कोई गरीब आदमी था बेचारा उसने जीवन में कभी खीर नही देखी थी। उसका एक साथी खीर की बङी तारिफ कर रहा था। आज तो भाई मजा आ गया किसी ने मुझे खीर खिलाई। उस बेचारें ने बङी सहजता और भोलेपन से पुछा कि भाई कैसी होती है खीर.............
दोस्त ने कहा मीठी स्वाद्धिष्ट बङी लजीज होती है।
उसको क्या पता बेचारे को पुछता है की भाई देखने में कैसी होती।
अब वो कैसी बताये सामने एक बगुला खङा था कहने लगा देख इस बगुले जैसी सफेद होती है।
तो आप और हम सब समझ गये कि क्या हर सफेद चीज खीर हो सकती है। वैसी ही उपमा प्रेम की हो रही है। हम चाहे किसी से भी बात करके देखे बस यही कहेगा की मुझसे ज्यादा प्रेम तो कोई करता ही नही। कि इतना प्रेम करता हुं की फलां आदमी के बिना जी नही सकता। अरे भोले भाई प्रेम तो जीना सिखाता है जीवन को कैसे जीये ये हमें सिखाता है। जहां यह बात है कि हम जी नही सकते, तो प्रेम के बजाय कुछ ओर ही है जिसका हमने दर्शन किया है। राधा ने तो कभी नही कहा था की मैं कृष्ण के बिना नही जी पाऊंगी। और मीरा तो कृष्ण के प्रेम के आन्नद में झुम उठी थी, और कोई भी व्यक्ति दुखों में तो झुमेगा नही। भगवान श्री कृष्ण प्रेम के महासागर हैं। इसलिए बार बार कहते हैं कि हे अर्जुन तु मेरा सखा है भक्त है इसलिए जो गोपनीय से भी गोपनीय ज्ञान है वह मैं तुझे दे रहा हुं। अर्थात वह रहष्य तुझे बता रहा हुं। और हमारा कैसा प्रेम है। कि मैं फलां से प्रेम करता हुं वह भी मेरी सारी बात मानता है लेकिन जिस दिन उसी आदमी ने हमारी कोई बात मानने इंकार कर दिया तो सारा प्रेम टुटकर बिखर जाता है अब उससे खराब कोई नही है वह ही हमारा सबसे बङा दुष्मन बन जाता है। अरे भाई प्रेम तो दिव्य है अलौकिक है असीम है किसी का बंधन नही होता इसके ऊपर। और अगर किसी के अंदर एक बार अंकुरित हो जाये तो फिर जो भी उसके निकट आयेगा सभी को प्रेम मिलेगा ऐसा नही है जैसे एक मां अपने बच्चे को तो सीने से गलाकर रखती है और दुसरे का बच्चा चाहे रास्ते पर पङा रोता रहे कोई दया नही आती कोई प्रेम नही उमङता इतना स्वार्थी नही होता प्रेम इतना संकुचित नही होता।
जैसा आजकल देखा जा रहा है हम सबके समक्ष है एक लङका और एक लङकी आपस में बहुत प्यार करते हैं और एक दुसरे के लिए सभी दीवारें सभी मर्यादाएँ तोङकर मां बाप के प्रेम को ठोकर मारकर एक बंधन में बंध जाते हैं। कितना अटुट प्रेम है जिसने मां की ममता को भी दरकिनार कर दिया और पिता की परवरिश को भी अनदेखा कर दिया। एक दुसरे की हर बात को हर क्षण मानने को तैयार रहते हैं। एक दुसरे की दिल की धङकन हैं। कुछ समय बाद उन्ही के घर के प्रेम के मंदिर में हिंसा के कुत्ते भौंकते हैं नफरत और घृणा हर पल नाचती है। तो कहां छु मंत्र हो जाता है वह प्रेम। समझना बहुत कठिन है कोई सच्चाई को स्वीकार नही करना चाहता। सब भ्रम में जी रहे हैं। लोगो ने अपनी इच्छाओं को आसक्ति को प्रेम का चोला पहनाकर सबको को धोखे में रखते ही हैं स्वंय को भी धोखा दे रहे हैं।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-- 9210650915

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता-प्रथम



प्रथम अध्याय---
दुख और मोह से पीङीत है दुनिया
गीता का प्रारम्भ होता है युद्ध के मैदान कूरूक्षेत्र से, जहां कोरव और पांडव अपनी अपनी सेना के पुरी तैयारी में हैं। इसमें ऐसा दिखाया गया आदमी पहले भी कितना चतुर और चालाक था। यहां आपको कुटनीति, राजनीति, रणनिती सभी का दर्शन होगा बस ध्यान से एक एक बात को गहराई से चिंतन करते चले कुछ छुट ना जाये। कहीं ऐसा ना हो की जो काम का हो वो ही हमारे हाथों से निकल जाये और बाकि सब कुछ पकङे रहे। इस बात के प्रति सावधान रहे। और ये बात तो स्वंय भगवान ने भी कही है की यदि में कर्मों में सावधानी ना बरतु तो बङी हानि हो जाये। अगर हम भी सावधान नही रहेंगे तो कोई हानि तो होगी ही। इसलिए सचेत रहे सजग रहे। गीता शास्त्र ऐसा सागर है जिसमें से हर व्यक्ति को अपने अनुसार वो सबकुछ मिल सकता है जिसकी उसे जरूरत है। और यह भी देखना है कि आज ही नही पहले से ही यह मानव किस तरह अपना काम निकलवाने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता था। लालच और स्वार्थ ऐसा है कि राजा धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो रही है कि युद्ध के मैदान क्या हो रहा है। इतनी उत्सुक्ता हो रही है लङाई देखने की और यह भी पता है कि यह कोई आम युद्ध नही है इसमें लाखों लोग मारे जाने वाले हैं। रक्त की नदियां बहने वाली हैं। और जो भी होगा उसमें उन्ही के बच्चे मारे जायेंगे क्योंकि पाडव और कौरव दोनो ही अपने हैं। प्रथम अध्याय में ही हमारे सामने दोनो बात आ जाती हैं कि एक तरफ युद्ध को देखने के लिए और करने के लिए लालायित हैं तो दुसरी तरफ अर्जुन इतने बङे नरसंहार के परिणाम की कल्पना करके कहते हैं कि हे भगवान में अपने गुरूजनों ताऊ चाचा दादा प्रदादाओं को मारकर भीख लेकर खाना भी कल्याण ही समझता हुं। क्योंकि उनके रूधिर से सने हुए भोगों को नही भोग सकते हैं हम लोग। युद्ध की तैयारी होते हुए ही दुर्योध्न गूरू द्रोण के पास जाता है। यहां यह बात स्पस्ट होती है की कितना चालाक था दुर्योध्न की सेना का सेना पति भीष्म है। और वह सबसे पहले द्रोण के पास गया। और जाकर अपने सेनापतियों की गिनती कराता है और सबसे पहले द्रोण के सामने उनका ही नाम लेता है जिससे की वह खुश हो जाये। वह जानता था कि ये सब लोग लङ तो तेरी तरफ से रहे हैं लेकिन भावना पांडवो की तरफ है। उनका अहित नही करना चाहेंगे। तो वह अपनी साम,दाम,दंडभेद वाली सारी प्रकिया अपनाता है। हर व्यक्ति के जीवन में शंखनाद होता है। महाभारत में भी शंखनाद हुआ। बताया जाता है कि युद्ध का शंखनाद किया भीष्म ने। हर बात के दो पक्ष होते हैं एक अच्छाई दुसरा बुराई, एक धर्म दुसरा अधर्म। लङाई और हिंसा धर्म नही करना चाहता जब भी लङाई हिंसा तकरार कुछ भी कहो वो अधर्म ही करता है। उस समय भीष्म अधर्म के साथ हैं तो शंखनाद भी उन्ही की तरफ से हुआ। उसके पश्चात स्वेत घोङो के रथ पर बैठे श्री कृष्ण महाराज ने पाचजन्य शंख बजाया। स्वेत घोङो पर सवार अर्थात शांत है जब अधर्म बढ रहा है तो धर्म के रक्षा के लिए पंचजन्य बजाकर युद्ध का शंखनाद किया। गीता तो हर कोई पढ सकता है मैं तो सुक्ष्म बातें आपके समक्ष रखने चाहता हुं। अधर्म के साथ कोई भी चलना नही चाहता हर कोई बचता है। संजय बताता है कि महाराज वह शंखनाद ऐसा हुआ कि आपके पक्ष वाले योद्धाओं के ह्रदय विदीर्ण कर दिये भयभीत कर दिये। यह बात समझने की अब तो संजय भी कौरव पक्ष को अपना नही मान रहा। अगर कोई नोकर मालिक के पास बैठा होता है तो वह यही कहता कि हमारा पक्ष। लेकिन संजय को भी ज्ञात था कि ये सब गलती पर है पाप के साथ हैं अधर्म के साथ है और कोई नही चाहता की मैं पाप का साथ दुं वही किया संजय ने।
इसके पश्चात कितना गहरा रहष्य है कपिध्वज से संबोधित किया है यहां अर्जुन को। अर्जुन कहता है की हे कृष्ण में इस सेना को देखना चाहता हुं। कपिध्वज यानि की जिसकी झंडे पर पताका पर हनुमान जी है यह प्रतिक है। हम सब भी किसी ना किसी प्रतिक के साहरे चलते हैं। गीता में यह दर्शाने की क्या जरूरत थी लेकिन उन्होंने समझी थी क्योंकि जिस प्रतिक के साहरे हम चल रहे हैं उसके गुण भी तो हमारे अंदर होने चाहिए ना। हनुमान जी जिन्होंने अधर्म के विरूद्ध पाप के खिलाफ 100 योजन का समुंद्र लांघ कर रावण की गुफा जहां पर यमराज भी आने से कतराते थे वहीं पहुंच गये थे। और अर्जुन ध्वजा पर हनुमान जी का प्रतिक लगाया है लेकिन अब असमंजस में पङ गया और ऐसी घङी में जब युद्ध का शंखनाद हो गया तब देखने की इच्छा कर रहा है। सब बातें भुल गया की ये वही लेग हैं जिन्होंने द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयत्न किया था और धोखे से लाक्षाग्रह में जलाकर मारने की कोशिश की। और भगवान भी कम नही थे उसके रथ को ले जाकर भीष्म और गुरू द्रोण के सामने खङा कर दिया और उनकी तरफ उंगली करके कहते है कि देख ये सब हैं जिनसे तुम्हें युद्ध करना है। अगर भगवान युद्ध कराने की सोचते तो रथ को दुर्योध्न कर्ण और दुशासन के सामने खङा करते और जिसे देखते ही अर्जुन का खुन खोल उठता। चाहे कितना भी कायर हो डरपोक हो लेकिन दुष्मन को सामने देखते ही मारने की सोचता है। लेकिन भगवान ने रथ खङा किया भीष्म के सामने जिसके हाथों से अर्जुन ने खाना सिखा, कपङे पहनने सिखे। गुरू द्रोण जिसने धनुष पकङना सिखाया तरकस टांगना सिखाया और आज उन्हीं के सामने धनुष लेकर खङा होना पङ रहा है।
उन सब को देखकर कहते हैं कि अर्जुन को मोह सा हो गया लेकिन स्वंय अर्जुन ने कहा है कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता। अर्थात कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला में धर्म के विषय में मोहीत हुआ आपसे पुछता हुं। और यहां पर जब उसने सारी सेना देखी की सब अपने ही हैं और इतने शक्तिशाली की सभी के पराक्रम से परिचित भी था। तो उसे कुछ मोह भी हो गया और भय भी हो गया। यहां पर कई लोग कहते हैं कि वह मनोरोगी हो गया था। यह भी संभव है क्योंकि मनोरोगी वही होता है जिसका कहीं ना कहीं शोषण हुआ हो या कुछ छिन गया है। और ये दोनो बात ही अर्जुन के साथ घटित हुई इसलिए मनोरोगी हो गया। और कि इन सब लोगो को मारकर राज्य भोगने से बेहतर तो ये ही होगा की धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्र रहित को मार डालें वह भी कल्याण कारक होगा। कितना भयभीत हो गया की हाथ से हथियार छुट रहा है शरीर काप रहा है मुख सुख रहा है त्वचा जल रही है। ये सब भय के ही लक्षण है मोह के नही। और इसी भय को छिपाने के लिए कितनी दुर तक की बातें बताने लग जाता है भगवान को ये मत समझना की ये सिर्फ अर्जुन के जीवन की घटना है हम सबके जीवन में भी यही सब हो रहा है। कहता है की अगर सब लोग मर जायेंगे तो कोन पुर्वजो के पिंड दान करेगा और सारी स्त्रीयां अत्यंत दुषित हो जायेंगी और वर्णशंकर पैदा होगा। वह इस भयानक युद्ध से बचना भी चाह रहा था लेकिन यह भी सोच रहा था कि कोई यह ना कहे की डरकर भाग गया है। और कहता है कि हम बुद्धिमान होकर भी इस महान पाप करने को तैयार हो गये और एक आह सी निकलती है उसके मुंह से जिसका स्पस्ट वर्णन किया है कि हा शोक.......। जैसे पता नही कितना बङा जुलम करने जा रहा हो। आज यह युद्ध अर्जुन को पाप लग रहा है ना जाने कितने युद्ध किये और कितने लोगो को मारा तब पाप नही था। सब राज्य और सुखों को छोङकर वन जंगल में रहना ही पसंद करता है। साफ कह देता है की मुझसे युद्ध नही होगा। अब जरा चिंतन करो की क्या हम अपने जीवन में आये दिन किसी ना किसी जिम्म्दारी से पलायन करने की नही सोचते और उसका ठिकरा किसी और के सिर फोङते हैं। ऐसा युद्ध हमारे अंदर चलता ही रहता है और हमारा मन है कि कोई ना कोई बहाना बनाकर युद्ध से बचता रहता है और बातें घङने की आदत सा बन गयी है लेकिन जैसे हमारे पास कोई ऐसा नही है इससे हमें निकाल सके क्योंकि जो निकाले वह पहले ही ऐसा होना चाहिए जो इस समस्या से मुक्त हो। वहां तो भगवान थे कोई आम आदमी नही स्वंय भी उलझा रहे। भगवान ने पहले अध्याय में कुछ नही बोला क्योंकि जो व्यक्ति अपनी गलती छुपाने की कोशिश करता है वह सामने वाले को बोलने का मौका कम ही देता है। और सोचता है कि बस मेरी सुने और मान जाये। यहां तक पहला अध्याय है कि धनुष बाण सब छोङकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। इतना तनाव में पहुंच गया कि कुछ समझ ही नही आ रहा कि क्या करूं और क्या ना करूं। यह देखो ना कि जब आदमी किसी काम से बचने के लिए आत्महत्या करने तक की बात करने लगे तो कैसी स्थिती होगी कल्पना मात्र से ही सारे बदन में सिहरन सी दोङती है। भगवान सारथी भी है और अर्जुन के सखा भी है। पहले अध्याय को विषाद योग कहा गया है यानि की दुख का मिलना । और जब हम अपनी जिम्मेदीरियों से पलायन करेंगे तो दुख और विषाद तो प्राप्त होगा ही। अर्जुन को इतना भारी तनाव गलत नही हुआ था क्योंकि एक सैनिक होने के बाद भी वह युद्ध से बचने के रास्ते खोज रहा है तो क्या होगा अगर कोई शिक्षक, डाक्टर, इंजिनयर कोई भी अपने काम से अपने फर्ज से पलायन करेगा तो उसका परिणाम भारी तनाव और विषाद का योग तो भोगना ही पङेगा । शिवा तोमर-9210650915

जीवन का आईना- श्रीमद भगवद्गीता



विस्व का सबसे पवित्र और प्राचीन ग्रंथ है श्री मद्भगवद्गीता। नाम तो इस शास्त्र का संसार के बहुत से लोगों ने सुना होगा लेकिन इसका अध्ययन किया होगा 4-5 प्रतिशत ने ही। और अगर दर्शन करने की बात की जाय तो हजारों में किसी एक ने इसका यथार्थ रूप से दर्शन किया होगा। लोग इसे पढना नही चाहते पलायन करते हैं इससे। और अपने को सही साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी बताते हैं। कोई कहता है कि ये तो हिंदूओं का शास्त्र तो कोई कहता है कि ये तो साधु संतो के लिए है, तो कोई युद्ध की जङ बताते है, कहते हैं कि अर्जुन तो युद्ध करना ही नही चाहता था कृष्ण ने यह उपदेश देकर कितना बङा नरसंहार कराया। मंदबुद्धि लोग ऐसे बाते करके ही इसके अध्ययन करने से बचने लगे।
यह भी सत्य है कि यह युद्ध क्षेत्र में दिया गया उपदेश है। लेकिन भगवान का मकसद युद्ध कराने का नही था, नही तो भीम और अर्जुन को कहीं भी भङका कर युद्ध करा सकते थे। लेकिन भगवान ने यह कहा है हे अर्जुन यह योग तो मैंने कल्प के आदि में सुर्य को दिया था ऐसा नही है कि तुझे ही दिया है। लेकिन अब यह लुप्तप्राय हो गया है इसलिए मैं तुझे यानि कि तेरे माध्यम से फिर दे रहा हुं। जिससे सभी का कल्याण हो सके। इसकी आवस्यकता तो सभी मनुष्यों को थी और रहेगी। और जब जब लोग इससे विमुख होगें तो ऐसे ही भृष्टाचार अपराध हिंसा और व्याभीचार में वृद्धि होगी ही। ये बात नही है कि अर्जुन को यह लङाई करने के लिए दिया था। यह उपदेश तोङने के लिए नही जोङने के लिए है। नफरत के लिए नही प्रेम और सदभावना के लिए है। श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही ऐसे बातों से होता है कि जिससे ज्ञात हो कि कितनी अज्ञता भरी पङी थी लोगो में। धृतराष्ट्र कहता है हे संजय कुरूक्षेत्र में मैंरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया है क्या कर रहे हैं वो। जहां श्री कृष्ण स्वंय मोजुद हो भीष्म, गुरू द्रोण, कृपाचार्य, और राजा स ऐसी बात करें तो कितना गलतो हो सकता है। तेरे मेरे की ओर पाडुं पुत्र तो उन्हें सर्वस्व ही समझते थे लेकिन मोह और लोभ में अंधा धृतराष्ट्र के मन में तेरे मेरे की दीवार बन गयी थी। तो ही ऐसी बात कर रहा था। तो देश समाज इमानदारी और इन्सानियत का क्या होगा हर तरफ मारा मारी हर तरफ खुन खराबा ही होगा। एक राजा के अंदर ऐसे भाव तो क्या होगा समाज का ऐसी स्थिती में गीता का उपदेश दिया गया था। जिससे ऐसे भाव समाप्त होकर सदभावना जागे।
मैंने लिखा है जीवन का श्री मद्भगवद्गीता। मैं कोई ज्ञानी नही हुं बस उस महायोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का आभारी हुं जिन्होंने ऐसा विवेक दिया और मैंने गीता अध्ययन किया और इसमें पाया की यह तो जीवन का आईना ही है। यह हमें ऐसा दिखाती है जैसे हम होते हैं। मैंने कभी भी गीता को इस तरह से नही पढा की जैसे ये अर्जुन को सुनाई थी मैंने तो सदा इसी भाव से पढा जैसे ये मेरे लिए ही हो और मुझे ही सुनाई हो। गीता पढने का अपना लाभ है मैं ये नही कह रहा की लाभ नही है। यह तो दिव्य है अलौकिक है निर्मल है । इसके स्पर्स मात्र से ही कल्याण हो जाये। लेकिन जो भगवान ने आदेश दिया है उस पर चले बिना कैसे मंजील तक पहुंचेगे। जैसे सङक पर चलने के लिए कई दिशा निर्देश लिखे होते हैं जैसे लाल बत्ती हो गयी, कहीं पर बोर्ड पर लिखा होगा की प्रवेश वर्जित है, तो कही लिखा होगा की गाङी खङी ना करे ये सभी निर्देश हमारी सुरक्षा के लिए जिससे हम अपनी मंजील तर जल्दी और बिना किसी कष्ट के पहुंच सके इसिलिए बनाये हैं।
गीता को कहानी की तरह से नही पढना है बल्कि उसमें दी गयी शर्तों के अनुसार ही पढना है तभी हम अपनी मंजील कर पहुंचेंगे। भगवान ने कदम कदम पर संकेत दिया है ये नही करने या ऐसा करोगे तो लाभ होगा लेकिन हम वो संकेत तो देखते ही नही और अपनी गाङी को 100 की रफ्तार से भगाते रहते हैं और टक्कर मारते रहते हैं और कोसते रहते हैं कि हम तो भगवान का नाम लेते हैं उनका ध्यान करते हैं गीता भी पढते हैं लेकिन विपत्तियां तो हमारे ऊपर आती ही रहती हैं। अरे भाई जब हम संकेतो को देखकर चलेंगे ही नही तो परेशानी तो आयेगी ही। मेरा यह लिखने का उद्देश्य यह नही है कि किसी को ज्ञान दुं ज्ञान तो सभी के पास है। हो सके किसी की नजर में कोई संकेत आ जाये और हमारी जीवन की गाङी सही सलामत पहुंच जाये अपनी मंजील तक। यह मैं लिखने की कोशिश कर रह हुं अगर कोई त्रुटी हो या सुझाव हो तो जरूर बतायें।

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

हर कोई है असंतुष्ट


क्या अजीब बात है क्यों नही है संतुष्टि,,,,,, यह मैं खाली बात ही नही कर रहा। बहुत अध्ययन किया चिंतन किया मनन किया। तब लिखने का साहस किया है।
और यह किसी एक व्यक्ति की बात नही है बल्कि सारी दुनिया मे मच रही हा हा कार आपाधापी भृष्टाचार और अपराध का आंकङा देखकर सभी बातों पर गहरा विचार किया और खोजने का प्रयत्न किया कि व्यक्ति देश और संसार में इतनी त्राही त्राही क्यों हो रही है।
भगवद्गीता में एक श्लोक है..... किसी विषय का बार बार चिंतन करने से उसकी आसक्ति होती है और आसक्ति से कामना पैदा होती है कामना अर्थात पाने की लालसा। और जब कामना पुर्ण नही होती तो असंतुष्टि होती है। और व्यक्ति कुछ भी कर बैठता है। चाहे वह कितना भी जघन्य अपराध ही क्यों ना हो।
अगर स्वभावत: यह बात किसी से पुछी जाय तो शरमा शरमी हर व्यक्ति कहता है कि मैं तो बिलकुल संतुष्ट हुं।
लेकिन अगर हम अपने ही अंदर खोजे तो सब असंतुष्ट हैं। कोई करोङो में एक आद होगा जो संतुष्ट होगा। जब बच्चा गर्भ से बहार आता है इतना दुख और कष्ट से गुजर कर बहार आता है होना तो उसे खुश चाहिए लेकिन फिर भी रोता है। और रोता कोन है जो किसी चीज की कामना कर रहा हो। किसी चीज की उसके पास कमी हो अर्थात कहीं ना कहीं असंतुष्ट है।
और भगवान ने गीता में हम सबको कहा भी है कि मुझे वह भक्त प्रिय है जो सदा ही संतुष्ट है। वरना भगवान को क्या पङी थी यह बात कहने की अगर किसी को कोई बीमारी हो जाती है हम अच्छे से अच्छे डाक्टर के पास जाते हैं और बीमारी का इलाज करवाते हैं। लेकिन अपनी इस घातक बीमारी को अंदर ही अंदर पनपने देते हैं, बतायें तो क्या कोई स्वीकार तक नही करना चाहता कि मैं संतुष्ट नही हुं। बल्कि इसको ढांपने के लिए तरह तरह की बातें बताकर यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि जिस बीमारी से सब जुझ रहे है मैं उससे मुक्त हुं।
एक छोटी सी कहानी है। एक साधु बाबा कही भ्रमण पर जा रहे थे जाते जाते रात हो गयी आगे बियाबान जंगल और पुराने जमाने में तो शेर चीते आदि खतरनाक जानवर ऐसे ही खुले घुमते रहते थे। रास्ते में एक बुढिया की छोपङी दिखाई दी और रात काटने के लिए वहां पहुंच गये बाबा। उसने साधु बाबा की अपने सामर्थ्य के अनुसार बङी खातिर दारी और सेवा की।
जब रात को खाना खाकर विश्राम करने लगे तो बाबा बोले की तुमने मेरी बहुत सेवा की है और तेरे पास कोई कमाने वाला भी नही है। जो मुझे आटा वगैरह भीक्षा में मिला है उसमें से आप भी कुछ ले लो। बुढी माई ने अपने आटे का बरतन देखा और कहने लगी की महाराज सुबह का काम चल जायेगा और सांय को ऊपर वाला देगा। देखा कितनी संतुष्टि।
बाबा को यह बात सुनकर बङा आश्चर्य हुआ कि हम तो बाबा होकर भी संग्रह करते रहते हैं और और इसके पास कुछ है ही नही फिर भी कितने मजे में है। ना कोई चिंता है ना कोई फिक्र।
यह है सच्ची संतुष्टि। अगर कोई चीज हमारे पास नही है या इसका अभाव है और हम कहे कि मुझे उसकी कोई इच्छा नही है इसे संतुष्टि नही कह सकते।
जैसे कोई शाराब का सेवन करने वाला जेल चला जाता है (ये बात मैं सिर्फ सुनकर नही कह रहा है गहरा चिंतन किया है) और वहां तो शाराब या कोई भी नशा का सामान मिलता ही नही और वो महिना दो महिना शाराब या कोई भी ड्रग्स छोङ दे और कहे मुझे इच्छा नही है मैं संतुष्ट हुं तो कोरी बात है कोई भी विस्वास नही करेगा।
यहां किसी एक की बात नही हो रही है मानव स्वभाव की बात हो रही है मानव मन की बात हो रही है।
यहां एक बात को और साफ करना चाहता हुं कि असंतुष्टि सिर्फ धन दौलत और पैसे की हा नही होती। आदमी असंतुष्ट लोभ, भय, क्रोध, वासना किसी से भी हो सकता है। जरा देख लो इस लोभ के कारण ही उचित या अनुचित तरिके धनादि का संग्रह करते हैं। और मान लो किसी को आप या कोई भी समझाये तो कहेंगे कि अगर हम लोभ की इच्छा नही करेंगे तो अपने क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो या नोकरी या शिक्षा कैसे आगे बढेंगे कैसे तरक्की करेंगे।
लेकिन समाज सुधारकों ने बुद्धिजीवियों ने इसका खंडन किया है लोभ से तो हम अपने अंदर बैचेनी, व्याकुलता और स्वार्थ को बढा रहे हैं। जो भी हमारी कामनाए हैं उसमें लोभ की कामना ना करें उसके प्रति बस प्रयास करें की लाभ कैसे हो और वो भी किसी कि सुख शांति भंग ना करके।
दुसरा सबसे बङा कारण असंतुष्टि का,,,,, हमारे अंदर की वासना है।
एक ऐसा भाव जो सभी के अंदर है जिससे कोई भी बचा हुआ नही है। चाहे लाख छिपाने की कोशिश करे लेकिन छिपा नही पाते। कोई कहां तक बताये कि कितनी असंतुष्टि है। हां ये हो सकता है कि कोई थोङा ज्यादा तो कोई थोङा कम असंतुष्ट हो।
अर्जुन भगवान से पुछते हैं हे प्रभु यह मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। भगवान कहते हैं कि यह काम ही पाप है, हिंसा है, अपराध है काम यानि कि कामनाएं।
और यह बहुत खाने वाला भोगों से कभी ना अघाने वाला है। संसार में अपराध, हिंसा, नशा और सैक्स में वृद्धि का कारण ये असंतुष्टि ही है।
एक और छोटी सी कहानी है एक आदमी बेचारा नोकरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहा था। एक दिन उसकी बीबी ने कहा कि घर में एक टीवी आ जाये तो कितना अच्छा होगा। उस भले आदमी के अंदर अब इसका ही चिंतन चलता रहता कि भगवान बस टीवी आ जाये। और कामना पुर्ण हुई भी टीवी आ गया।
अब वह अपने एक दोस्त से बोला की भाई बस एक स्कुटर और मिल जाये तो बसों के धक्के खाने से छुटकारा मिल जायेगा। उसकी यह भी इच्छा पुर्ण हुई और एक स्कुटर भी आ गया। एक कामना पुर्ण नही होती की दुसरी सिर उठाकर खङी रहती। एक के बाद एक बस हर पल बैचेन रहने लगा उसके जीवन की सुख शांति छु मंत्र हो गयी। सारा दिन इधर उधर भागता रहता मकान बन गया एक कार खरीद ली एक फैक्टरी भी लगा ली। घर में सब ऐसो आराम का सामान आ गया। बस अपने दोस्त से एक दिन बोला की भाई बस भगवान एक फैक्टरी और लगवा दे तो बेटे को देकर बस हम दोनो पति पत्नि आराम से अपनी फैक्टरी में गुजारा कर लेंगे। अरे बाबा कहां संतुष्ट होगा यह मानव चाहे कितना भा मिल जाये फिर भी पागलों की तरह भागता रहेगा। कभी भी तृप्ति नही होती। कोई ना कोई उत्कंठा बनी ही रहती है। और उस भले आदमी को बस इसी तनाव में कि ये मिल जाये आज ये मिल जाये एक दिन दिल को दौरा पङा और भगवान को प्यारा हो गया।
कोई भी व्यक्ति जो उसके पास है उससे संतुष्ट नही है बस कहीं से ना कहीं से और ज्यादा प्रप्त हो जाये इसी उधेङ बुन में ही लगा रहता है। और अपनी संतुष्टि के लिए उचित या अनुचित कोई भी कार्य करके जिस वस्तु व्यक्ति या किसी और पदार्थ की कामना करता है हासील करने का भरकस प्रयास करता है। साम दाम दंड भेद वाली सारी नीति अपना लेता है।
इसी बात का खंडन भगवान ने गीता में ही किया है कि जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन यापन के लिए संग्रह करता रहता है विवेकी पूरूष भी उसी तरह लोक संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। इस तरिके से ही हम संतुष्ट हो सकते हैं। लेकिन लोक संग्रह या परमार्थ तो कही रहा ही नही बस स्वार्थ ही स्वार्थ चारो तरफ मुंह बाये खङा रहता है। और हम अपनी असंतुष्टि पुर्ती के लिए अपनी तामसी बुद्धि के कारण अधर्म को भी धर्म मानकर जो भी हमें चाहिए उसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं।
इसे पढकर आप कृपा अपने विचार जरूर बताये।
जय श्री कृष्ण
शिवा तोमर-09210650915